Thursday 19 September 2013

सीपियाँ


कुछ चमकते कण जो चिपके पाँव के तालू में आकर
कुछ कदम का साथ था फिर मिल गए अपनी विधा से
.

मैंने सोचा सीपियों में छुपी है इनकी ही आभा,
ले चलूँ कुछ रोप कर मुट्ठी में थोड़ी रेत जादा
कुछ समय तक एक कटोरा बन के सीपी मान लेंगे
कैसे जीवन में चमक का आगमन ये जान लेंगे


मगर ये क्या ! हो दूर सागर से ये मिटटी में परिणित
चमक का विस्तार धूमिल, नहीं का स्वर इसमें मिश्रित ,
एक जीवन रह गया है अब अधूरा मेरे कारण
खेल बस अपने खिलौने , भूल जा इसको अकारण
.




ये प्रक्रति का खेल है बस, उसकी रचना वो ही जाने
सागरों के आभरण सी सीप तुझको देगी ताने
रेत, मिटटी , खारा पानी, नील धवलित लहर है बस ,
येही तन अपना सृजित शायद ये जीवन सीप सा बंद