Saturday 29 October 2011

बिखर जाने दो फूलों को...(नई उम्मीद )


बिखर जाने दो फूलों को...(नई उम्मीद )

by Suman Mishra on Sunday, 30 October 2011 at 01:23
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बिखर जाने दो फूलों को ,नए फूलों की ख्वाहिश है,
चमन होता नहीं है एक जैसा देखा है सबने,
वो पत्ते उड़ ही जायेंगे, शाख से टूटते हैं जो,
उन्हें फिर याद ना करना, नहीं अब लौट पायेंगे,

कोई रोके जो अपने  को कहाँ रुकता जो गैरों का,
है आदत नशे के जैसी, खुमारी उसपे छाई  है ,
आँख पर पर्दे कितने है, दिलों पर एक मुलम्मा है,
कहाँ उसकी कोई मंजिल , रास्तों पर बिखरना है.

ये रिश्ते खाक से उड़कर कहीं खुद को तलाशेंगे
वो ढूढेंगे कहीं अपना , नहीं अपनों को जानेंगे,
बहुत से लोग फिरते हैं एक मुखौटे लगा कर ऐसे,
है पतझड़ सामने फिर भी, फूल को सींचते जाते,

नहीं रोको उसे अब खोजने दो उसकी मंजिल को,
हवा के रुख पे जाने कब कहाँ अंजाम जानेगे
पता है लौटन मुश्किल , बेरुखी ही है अब अच्छी
चलो अब अलविदा कहकर, आज हम खुद को  देखेंगे,


एक मंजर , एक आलम ,उदासी साफ़ नज़रों में  
नए रंग भरने हैं इनमें , नयी शाखें तलाशेंगे,
 नयी कोपल उगेगी मन के आँगन मैं किसी भी दिन, 
आज से रंग भरकर ये समा रंगीं बनायेंगे

एक तस्वीर जो अधूरी ही रही

एक तस्वीर जो अधूरी ही रही

by Suman Mishra on Saturday, 29 October 2011 at 16:06


कितने  मायने हैं इस तस्वीर  के
रिश्तों मैं ढलती हुयी जाती है,
किंतने नामों ,बे-परवाजों से
हमेशा नवाजी जाती है,

पलती बढ़ती घर आँगन मैं,
कलियों फूलों के माफिक सी,
अब आगे जाने क्या पथ हो,
क्या कहती हाथ लकीरे ये,

बस प्रतिमा कह लो या कह दो,
ये नारी जैसी लगती है,
आगे जाने क्या नाम बदा,
शहतीरों सी क्यों गिरती है,

कुछ अग्नि चढी, कुछ फूल मिले
कुछ  काँटों की सौगात लिए.
कुछ शब्द मिले आशीषों के,
आगे जाने क्या पथ हो,

क्या कहती हाथ लकीरे ये,
जाने क्या नाम मिले इसको,
बस कृति बनी ये नारी की,
तुम नाम की परिभाषा कह दो,

Thursday 27 October 2011


रोशनी के मायने , ख़तम हुआ पर्व ये ,
खाली हुयी जेबें कई , ब्यापारियों का घर भरा,
राम आये घर को जब , जगमग दिए खुद जल गए,
अब तो एक दिन का पर्व, बाकी चाँद पर टिके.

रावणों के मुख बढे , कुम्भकरण जागते,
शान्ति द्वार बंद है , शोरगुल ललकारते ,
आवाज खुद की दब गयी, माइकों के शोर से,
वोट मांगते फिरे , तिरछी नज़रों की ओट से.

उधार पर इंसान अपनी जिन्दगी चला रहा,
हाथ फैलाना नहीं, बस बैंक पर ही चोट कर,
बेच बेच कर वो कर्म कागजात बना रहा,
दर और दीवार रंग रंग से सजा रहा.

खुद से ही तलाश आज खुद को ही वो कर रहा ,
भूलता है खुद को बस ये बैंक लोन भर रहा,
हम ने आज पर्व पर कुछ याद की मिसालें ली,
आज दीप पर्व गया , आगे की फ़िक्र कर ज़रा,

ये चाँद सबकी सुनता है ...है ना ?


 by Suman Mishra on Thursday, 27 October 2011 at 08:24



बचपन से दोस्ती थी मेरी , पर अर्थ बदल से जाते हैं,
पहले वो मामा था मेरा, अब अक्स ही कुछ कह जाते हैं
वो रोटी जैसा गोल गोल , खाते थे देख भुलावे मैं,
अब उसका मुखड़ा याद करूँ, है दाग कहीं अफवाहों मैं,

हर समय अक्स पर नूर तो है, पर मक्खन जैसे पिघले क्यों,
आधा तीहा, पूरा, दिखता, हर वक्त ये खुद से बदले क्यों,
गजलों की तो भरमार है पर ,इस चाँद के टुकडे की सोचो,
क्या मीत मिला इसको कोई, थोड़ा मिलकर इससे पूछो .

क्यों कबतक खुद को बाँट बाँट जीवन मैं अकेला रहेगा ये,
अपनी बहना धरती के चक्कर करके  क्या समझाये,
ये धरती वाले धरती को दिन दिन,  प्रहार कर तोड़ रहे
सतहों पर कुछ तो छोड़ा ना, पाताल लोक मैं ढूढ़ रहे,

ये शांत सौम्य चन्दा मामा या प्रिय की याद मैं डटा रहे,
शीतल सी अपनी छवि लेकर ,उस ब्योम मार्ग पर अड़ा रहे,
अब यहाँ नहीं कुछ रखा है, बस आना है तुमसे मिलने
हे चाँद मौन व्रत अब छोड़ो , स्वीकार करो ये पहल मेरी.

Sunday 23 October 2011

मन का दिया या मिटटी का ?


मन का दिया या मिटटी का ?

by Suman Mishra on Monday, 24 October 2011 at 00:21


आये होंगे राम कभी , खुशियाँ छाई होंगी वहाँ ,
जाने कितने दीपक होंगे , जाने कितनी रोशनी,
सूर्य की आभा जैसा मन सबका दीप दीप सा जला वहाँ
दिप दिप करता हर ललाट , मन तन से हर्षित वो जहां 


राम राज्य भी बीत गया ये कलयुग की दीवाली है,
हर मन तन है थका हुआ, हर जीवन एक सवाली है.
एक एक दीपक की कीमत, एक एक पल खटा हुआ,
घर मैं दीपक ,मन मैं अन्धेरा ,निशा रूप ये दिवस जिया .

कुछ खुशिया खुद निर्मित कर माटी के दिए सा गढ़ ले हम,
चाक चला कर मिटटी से ही पल को निर्मित कर ले मन
बाँट बाँट कर खुश हो लेंगे, दुखी ना कोई मन होगा,
आखिर राम तो आये ही थे, कुछ  पल  आलोकित होगा


क्या करना है लंबा जीवन , जब तक  दिया मैं बाती है
जला करेगा साथ सभीके , हर दिन ही दीवाली है,
शुभ प्रभात या शुभ रात्री हो, जगमग मन मैं  ज्योति जले
मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं चाहूँ मैं जन जन तक पहुंचे .

Thursday 20 October 2011

हदों मैं रखके तो देखो,


 हदों मैं रखके तो देखो, मुकामों की परवरिश है
हदों से बाहर आओगे, मंजिलें दूर ही होंगी,
हदों मैं रहके सपनो की नयी बुनियाद बनती है,
हदों को लांघ कर देखा तो बस ये धूल उडती है.

 हदों की सीमा अपनी है, उसे तय करना मन से है,
खवाहिशें थोड़ी सी हैं, मगर फेहरिस्त लम्बी है,
हदें अपनी जो जकड़ी हैं उन्हें स्वछन्द तो कर दो,
वो खुद ही सामने आ कर,दायरे पेश कर देंगी.

बहुत आगे अभी जाना ,मगर रस्ता है वीराना ,
उसे खोजा बहुत मैंने, मिला तो नहीं पहचाना
सूना है साथ चलता है, वो साया अपना ही तो है,
गिरे गर सूनी राहो मैं, हाथ उसका है ये जाना .

कभी संयम, कभी अद्भुतत रोशनी दिख रही मुझको,
कहीं तो हद मैं वो होगा, कहीं उसकी विरासत है,
जो लिखा नाम मैं मेरे, उसे हद में ही पाना है,
अगर वो मेरा है तो मेरा सर उसकी हद मैं झुकाना है,

Wednesday 19 October 2011

परिभाषा और नारी



जाने कितने रंग छुपे हैं नारी और रंगों का मिश्रण,
सुख दुःख, प्रेम, स्नेह विछोहों से आप्लावित नारी चिंतन,
नदियाँ, पर्वत, सागर रंग मन, मंथन भी कुछ क्रंदन सा है,
फिर भी शांत सौम्य प्रतिमा सी बहती खुद से भाव निरंजन

शांत चंचला मृगनयनी सी,एक एक पग संयोजित सी,
हर पल एक चुनौती देता, चुनती सबको मन आँचल में,
धीरज के गहने से लदी है,आभा से परिपूरित नारी,
पर जो विषय कहीं भी देखा, नारी को कहते लाचारी,

समय समय पर सब कुछ बदला, नारी क्यों ना बदली अब तक,
खुद को चोला बदल लिया तो, जन का मन है वही पुरातन,
सदियाँ बीती एक शब्द बस नारी नारी लिखो उसी पर,
क्या लिखना अब समझो खुद से, नारी जीवन नहीं बेचारी, 
 

Monday 17 October 2011

क्यों पसरा है मौन यहाँ पर,


क्यों पसरा है मौन यहाँ पर,
कोई छला गया है मन से,
जीवन की क्या गजब लालसा,
मन त्रिश्नित के खेल यहाँ पर.
कितने वादे , कितनी बातें ,
सब है टूट टूट कर बिखरी,
मन अथाह पर भ्रमित भ्रमित सा,
सोच वहाँ तक नहीं थी पहुँची.

जीवन मैं रिश्तों की गरिमा,
तोल तराजू क्यों ना करता,
जितनी सच्चाई के वादे,
उतना मन स्वीकार ना पाता.

छनिक भाव वश, मन मंदिर का
पट है खुला सब रहते मन मैं,
इश्वर से तो पूछ ज़रा तू,
क्या तू भी है उसके दर पे ?

उसको ना स्थान दिया क्यों,
मानव मानव का ही साथी,
पहले बस जा इंसानों सा,
फिर जलना ज्यों दिया या बाती.
 

Thursday 13 October 2011

आंसुओं अब राह बदलो, अब सवेरा हो गया है,




आंसुओं अब राह बदलो, अब सवेरा हो गया है,
तम नहीं अब लालियाँ हैं,सूर्य मुखरित हो चला है,
निशा की तन्हाइयां , त्रस्त मन और ये उजाला,
व्यथा धूमिल हो चली है, आगमन प्रियतम तुम्हारा.


कुछ कठिन और मोह तम ये कोहरे सी मन मैं उदासी,
उड़ गयी सब धुवां बनकर, लालिमा अब है उजासी,
रश्मि की जब प्रभा मन आ मिली बन कर सहेली,
कान मैं कुछ कह गयी वो, बुझती हूँ अब पहेली,

रास्ते बदले हमारे चाल मैं है गति मध्यम,
ज़रा रुक स्पर्श कर लूं , बूँद पत्तों पे ज़रा नम,
उड़ गयी जाने कहाँ ये , ओस थी अब तलक बैठी,
आंसुओं ने राह बदली, थम गयी अलकों पे शबनम. 

माँ और वात्सल्य


माँ और वात्सल्य

by Suman Mishra on Friday, 07 October 2011 at 18:12

बचपन और माँ
बहुत विराट शब्द ये "माँ " है, सारी शक्ति इसीमें सिमटी,

स्पर्श और मर्म की ब्याख्या , माँ ही पूर्ण खुद से कर सकती,
जादू है माँ के  हाथों मैं, रवि तक माँ ही पहुंचे देखो,
हम मांगे बस चंदा मामा, सूरज भी ये लाकर दे दे,
बहुत कठिन हैं माँ का बनाना, देव तुल्य सब मात्री रूप मैं,
वरद हस्त गर माँ का हो बस, माँ तो रोम रोम मैं बस्ती.

मेरे एक भाई बनाम मित्र ने कहा आप माँ और वात्सल्य पर लिखिए , मैंने पाया ये शब्द जितना
करीब है इंसान से उतना ही अछूता है शब्दों से, लोग  प्रेम, विरह, व्यथा, अजीबो गरीब

भावनाओं मैं भ्रमित भावों  मैं तिरते रहते हैं, क्यों ?? अगर माँ साथ है तो क्या जरूरत है परेशान होने की
लेकिन माँ की शक्ति जो इंसान के अन्दर निहित है भूल जाते है, माँ जगत दात्री , माँ धरा जिस पर हम  इतने बडे होते हैं
और माँ जिन्होंने हमें जनम दिया और इस शब्द से ही सारे वेद पुराण गुंथे पडे हैं, क्या कहेंगे इस शब्द के लिए, अनुकम्पा हो
माँ की तभी इस शब्द की महिमा बयान करने का सामर्थ्य मिल सकता है,


एक माँ है पूरा जीवन दायरा परिवार उसका,
ह्रदय की धड़कन धडकती, मन है रहता बस भटकता,
चूल्हे की अग्नि दहकती, माँ का तन भी साथ तपता,
मन तडपता रात दिन बस , उसका दिल अब कहाँ उसका.

आड़ी तिरछी रेखाएं दीवाल पर कितनी बनायी,
माँ का थप्पड़ और आंसू, प्यार का स्पर्श पाना,
फिर वही वापस कहाँ मार खाना भूल जाना,
माँ और बचपन एक ही है, एक है ये ताना बाना ,

माँ का हो गर साथ तो उड़ चले हम बिना पंखे ,
गिर पडे जो हम धरा पर , फ़ैली हों गर माँ की बाहें,
कोई भी दस्तूर हो सब माँ के शब्दों से ही बनता,
हम है माँ से माँ हमारी, पयार की भाषा मैं बसती.


क्या कहूं मैं शब्द महिमा , पूछो जिनकी माँ नहीं है,
एक पल ना भूलती वो, सोचते वो माँ यहीं है,
कुछ मिले या ना मिले , बस ये आँचल सदा देना,
माँ निहित स्पर्श उसका, पिता हो संग येही कहना ...जय हो,

और वो पत्थर कैसे मोम हो गया,


 by Suman Mishra on Sunday, 09 October 2011 at 19:09

एक उम्र का मुकाम.

बड़ी अजीब शख्शियत से दौर गुजरा था,
बडे बड़ों के सामने कभी झुका ना था ,
बडे  आये गए दुआ सलाम का वो दौर चला,
उसकी महफ़िल और वो अपनी जगह काबिल था.


मगर ये उम्र भी खुद को ज़रा झुकाती है,
थोड़ी  आँखों मैं ज़रा ज़रा नमी लाती है,
खुद पे रोये नहीं कभी और ना गैरों पे,
मगर धुंधली  हुयी तो थोड़ा सहम जाती है 


ये वो एक दौर है मायूसी का आगाज यहाँ,
कहीं रुकना कहीं चलना ,नहीं परवाज यहाँ
ये ही तो समय है जब उसके दरमियान हैं वो,
जिसके सजदे मैं कभी सर नहीं झुकाया था.



वक्त की मार और पत्थर ने तराशा खुद को,
आंधी तूफ़ान उसे छु के गुजर जाते हैं,
जिसने देखा नहीं उसने ठोकर खाई,
आखिर ये मोम से टुकडे ही तो थे कभी,
ठोकरों से ही पत्थर से नज़र आते हैं.


उससे कह तो दिया अब मेरे तुम हमराह नहीं,
दूर तक  देखा तो बस वो हो नज़र आता था,
उसकी आँखों के दिए रोशनी है राहों की
खुद मैं देखा तो बस वो ही अक्स पर काबिज.

इतनी पत्थरदिली बस शब्दों मैं आसान नहीं
ये तो लम्हा है हवा संग गुजर जाता है,
कैसे तोडें  हजार रिश्तों के बराबर वो है,
कभी पत्थर से हम और मोम पिघल जाता है,



बड़ी तलवारें और खंजरों  की बाबत से
जीता अशोक ने जाने यहाँ जमीन कितनी
खून के छींटे उडे बारिशों के मंजर थे
दिलों की धडकने रुक रुक के नजर पर ठहरी,

कितनी आँखों से याचना की भीख छलकी थी,
जाने क्यों लोग रहम सीख नहीं पाते हैं
भूख साम्राज्य और जान की की कीमत लेकर
आज अब भिछु से भिखारी नज़र आते हैं .


कर्म से पत्थरों की शान ज़रा सा रख लो ,
दिल को ना आस पास इसके कहीं जाने दो,
दिल दिमाग की फितरत बड़ी ही मुश्किल है
जाने कब कौन यहाँ पत्थरों मैं तब्दील करे.

मन के आंसू  कहाँ कोई भी देख सकता है,
ये तो वो भाव हैं चेहरे से गुजर जाते हैं,
एक समंदर  वहाँ उफान लेता रहता है,
अब तो मुश्किल है समझना किसी को  मोम कहे
या नवाजें पत्थर,,,,,

वो कागज़ की कश्ती - (श्री जगजीत सिंह जी को नमन)


by Suman Mishra on Monday, 10 Octob

 

er 2011 at 22:24
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आज वो नहीं

मगर जब भी कागज की कश्ती बनेगी
लहरे भी फर्शों  से दिल मैं उतरेंगी,
होंगी शब्दों की गहराइयां अथाह उनमें,
ये सागर बनेगा , अश्रु बूँदें भरेंगी.



बड़ी ही अजब जिन्दगी की कहानी,
जाने कब ये हमसे यूँ रूठ बैठे ,
सुना है इसे चाहे जितना संभालो,
बड़ी मूडी है ये, करती अपनी मनमानी.


कभी तो हंसाती ये बिन बात के ही,
कभी रो रुलाके ये आँखें सुजाती,
कभी फेरती है आशाओं पे पानी.
कभी ये सुनाती नानी की जुबानी.

बहुत फाडे पन्ने बनायी थी कश्ती,
मगर कर सके ना हम इस पर सवारी
वो बैठा वहाँ खेलता खेल  हमसे,
उसीके हैं प्यादे ,खेल अब भी है जारी.


Tuesday 4 October 2011

सपनो का महल या शब्दों का महल

 by Suman Mishra on Tuesday, 04 October 2011 at 17:31


मेरी ये कलम जो लिखे दूर तक जड़ फैले ऐसा हो काश,
हर शाखा से भी वृछ बने, शब्दों के उनसे रस फूटें,
हो तृप्त सभी का मन इससे , ना अभिलाषा हो भोजन की
शब्दों का माध्यम सबको दे स्वाद सभी हर ब्यंजन के .

ये स्वप्न कभी देखा मैंने, पर कलम नहीं चलती मेरी,
भावों के भटके राही को,निद्रा हरदम है भरमाती,
बस शाख शाख ,कोपल की आस, कब स्वप्न मेरा ये सच होगा,
शब्दों का महल या सपनो का, बन जाए जीवन थिर होगा,
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सपनो के महल बनते ही नहीं, या बनते ही ढेह जाते हैं,
अच्छा होगा अब बदलो तुम, शब्दों की काया से इसको,
जाने कितनी देह्लीजें हैं, सोपान अनगिनत गिनती के,
पांवो के नीचे फूल पडे , लहराते उपवन झूलों से,

मैंने देखा और सोच लिया, ये सच है या एक सपना है,
पर नीद स्वप्न के साथ चलूँ , बस तब तक ये सब अपना है,
भावों के मैं मानिंद बहूँ, डूबूं तिर तिर कर पार करूं,
कोई तिनका तो नहीं मिलता, उसके हाथों मैं हाथ ये दूं,

अधखुले नेत्र ,जागे सोये, सब कुछ भूला भूला सा है,
बरबस यादों की तहरीरें वापस कोई कुछ लिखता है,
जाने कैंसा वो सपना था, सबकुछ जैसे प्रवाहमय सा,
ये सपने मन को भरमाते, जब आँख बंद इनका स्पंद.


Monday 3 October 2011

फरेब


 फरेब से रची बसी दुनिया , इसी मैं उलझे हैं,
ज़रा सा शब्दों मैं सचाइयां उतार ही लूं ,
कहीं ये शब्द बिखर गए तो फिर क्या होगा,
हवा मैं सांस गहरी खींच कुछ शुमार कर लूं,

...
इन्हें अलकों और पलकों पे सजाना मुश्किल,
बस ख्यालों मैं बंट कर यहाँ हम जीते हैं,
कभी इसकी कही, उसकी सुनी और अपना किया,
हम भी दिल दायरे मैं खुद को डुबो लेते हैं,

बहुत सोचा मगर ये साफ़ गोई कहीं नहीं,
हंसीं आती है सभी उलझे हुए जीते हैं,
हंसना बहुत मुश्किल से बयाँ होता है,
फरेब उसने किया, हम यहाँ पे रोते हैं.
 
 

श्याम मीरा , राधे श्याम , कौन रूप जानू

श्याम मीरा , राधे श्याम , कौन रूप जानू.

by Suman Mishra on Monday, 03 October 2011 at 13:25

प्रेम हो तो श्याम मीरा, राधे तो नियरे रही ,
राधे नाही मिली श्याम, तबहूँ अधिकाय रही,
जाने कौन रीत प्रीत, जग के खेवैया से,
मीरा सब भूल भाल प्रीत ई निभाय रही.



बांसुरी की धुन कबहूँ मीरा न त सूनी नाहीं,
कत्थक को ताल ज्यों राधे यूँ लगाय रही,
लय से मदमस्त ब्रिद, गोकुल की गलियन मा,
मीरा करताल से ही श्याम को रिझाय रही.



बहुतेरे प्रेम देख्यो, जौन की मिसाल नाही,
राधे श्याम ,दिव्या प्रेम मन भरमाय रह्यो,
नैनन मैं बंद मीरा श्याम की पुजारन भई,
नैनन मैं राधे काहे श्याम ने लुकाय लियो,

चरण पखारो श्याम मीरा मनुहार करे,
जगत नियंता मीरा ह्रदय मैं समाय लियो,
राधे श्याम एक ही तो मीरा जाने अलग अलग,
एही बात सोच श्याम ह्रदय बैठाय लियो.


मीरा भई दीवानी , प्रेम रस डूबी चाखे
विष ओ पियालो होंठ तै लगाय लियो,
श्याम श्याम श्याम बस मन मैं पुकारो आज,
सारी विधा श्याम मय, राधा को रिझाय बस.

एक श्याम एक मीरा पर नाही दूजी राधा,
राधे श्याम एक नाम , एक सी जनाय दिखो ,
भ्रमित है जग सारो, मन की ई लुका छिपी,
मन मैं बसों हे श्याम, मन ना दुखाय कोई.

Saturday 1 October 2011

अब और नहीं


 by Suman Mishra on Sunday, 02 October 2011 at 04:45


बहुत हुआ अब विरह प्रेम, अब और नहीं कुछ और कहो,
क्यों भाव बाव मैं बहते हो, थोड़ा सा खुद को देश कहो,
ये प्रेम , विरह कब अपना है, हर देश की ये परिपाटी है ,
रहती है हीरोइन भारत मैं, और हीरो विदेशी नागरिक है,

इससे क्या होगा, कुछ भी नहीं,
बस एक फिल्म ही देख लो तुम,
थोड़ा सा धुवां अपने घर का,
ऊंची लहरे उसके मन की.



वो ले के दुनाली खडा वहाँ , दुश्मन की नजरें भांप सके,
गर चुका वो थोड़ा सा भी, दुश्मन ये धरा ना नाप सके,
औरों का क्या कहना है यहाँ, सब डूबे मस्ती खोरी मैं,
वो प्रहरी है पैदाइश से, हम क्योंकर झेलें दंश यहाँ .

वो तकती राहें , पति के लिए,
तैनात खडा वो सीमा पर,
वादा करके न आया तो,
करती मन्नत दिन रात यहाँ,

थोड़ा सोचो , ये माँ अपनी ,जिसपर खेले हम सभी यहाँ,
उसका सौदा कैसे करलें , ऋण चुका नहीं जन्मो का जहां,
मरकर भी न  पूरा होगा, हम जन्म इसी पर लेंगे फिर,
माँ अपनी धैर्य शक्ति से फिर, हमको सम्मान दिलाएगी.

कब कहाँ घटित फिर हो जाए, मत भूलो देश तुम्हारा है,
ये मात्री भूमि बस अपनी है, हक़ या अधिकार हमारा है,
तत्पर होकर ,आँखें हो खुली, कोई इसको ना भंग करे,
तुम कुछ भी करो, पर सैनिक बन ,इस जननी  का उद्धार करो

जीवन की ललक तो सबको है, पर सार्थक कितना हुआ यहाँ,
हम भारत के लोगों को . अधिकार मिला ,कितना छीना ,
चढ़ जाओ अरि के सीने पर, सम्मान हमारा देश है बस,
वन्दे मातरम् को फील करो, जब जब ये गीत दोहराते हो,

फिर कब मिलोगे तुम ?


 by Suman Mishra on Sunday, 02 October 2011 at 02:54

होती है जिन्दगी भी, कुछ अलग सी सभी की,
शाखों से लगा पत्ता, या टूट कर जुदा सा,
गतिमान हो गया अब , जब सांस नहीं बाकी
भूल जाना मुझको , अब हम नहीं रहे हम



कभी हम मिले थे जाने की जल्दी थी,
अब नहीं है याद मुझे जाने कब मिले थे ,


वो समा कुछ और था,
वो पल था एक भुलावा,

वो तुम भी कुछ और थे,
और हम भी हम कहाँ थे .


एक था गुल और एक थी बुलबुल ,
दोनों जहां मैं रहते थे ,
ये कहानी बड़ी पुरानी,
तुमने कहा हम सुनते थे,

कुछ सरगोशियाँ, कुछ तकरीरें,
कुछ गजलें, कुछ समय की शहतीरें,
सब हैं वहीं पे मौजू, सब वही पे है शैदा
पर हम नहीं तुम्हारे ये तुम्हे ही पता है

हर शाम अब तुम्हारी , हर दास्ताँ तुम्हारी ,
मजमून बांच कर हम, बस तुम्हें सोचते हैं,
वो ख़त कभी लिखे थे , जो पेशकश तुम्हारी
सब बंद लिफाफे से , जेहनों की एक तिजोरी,

कल खोल कर पढ़ा था, सब याद हो गया है,
क्या सुन सकोगे उनको,  दुनिया नयी  तुम्हारी.
हम शाख से अलग हैं , उड़ते हैं   इस जहां मैं,
इक उम्र जी रहे हैं , अब शाख से जुदा हैं .


होती है जिन्दगी भी, कुछ अलग सी सभी की,
शाखों से लगा पत्ता, या टूट कर जुदा सा,
गतिमान हो गया अब , जब सांस नहीं बाकी
भूल जाना मुझको , अब हम नहीं रहे हम



दस्तूर ये जहां का, जाना है तो बुलाना    ,
इसलिए मैंने पूछा कब आ रहे हो मिलने