Wednesday 30 May 2012

वो बचपन जो रीता रीता , माँ का आंचल दूर हो गया


वो बचपन जो रीता रीता , माँ का आंचल दूर हो गया

by Suman Mishra on Tuesday, 29 May 2012 at 23:47 ·


( ये कविता एक छोटे बच्चे की भावना से प्रेरित है जब किसी बच्चे के माँ बाप का साया अगर बचपन  छोटी सी उम्र जब उसने
 चलना ही सीखा हो तब उसके मन पटल पर अपने आस पास की घटनाओं पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है..उसके लिए जीवन की सबसे बड़ी पूँजी माँ और पिता के प्यार का अभाव होता है ,,,,,उसी भावना पर आधारित ये शब्दावली )

वो बचपन जो रीता रीता , माँ का आंचल दूर हो गया ,
सर्द गर्म रातों का साया, जीवन को मंजूर हो गया ,
आज तलक मैं तरस रहा हूँ ,ममता के आंचल की खातिर
दूर गयी क्यों वो  मुझसे , प्रश्न मैं खुद से पूछ रहा हूँ.




रहे अधूरे मेरे सपने , एक समय जब छूटे अपने ,
आँखों में बेबसी के आंसू, ठहरे रहते ना दूं  बहने
एक अकेला बचपन ऐसा , उम्र लगा था अपनी गिनने
कब जीवन को साथ मिलेगा, अपनों का संग तन पर गहने


बचपन की कगार पर जीवन , सूखा था तन भूखा था मन
अलक पलक पर प्यास धरी थी, बूँदें पलकों पर ठहरी थीं
बहती भी तो कौन देखता, नहीं था आचल कौन पोछता
सिमट के सोना खुद से ऐसे, माँ की गोद में सर हो जैसे


कभी भूख से तड़पा था मैं, आज ये दोनों हाथ भरे है
कभी फटे कपड़ों में जीवन, आज सोने के बटन सिले हैं
कभी दूरियां नापी पैदल, पैरों के छालों की गिनती
आज लाल कालीन विछी है , गाडी के पहियों के नीचे


जब लोरी के गीत सुरों में माँ उसकी थी उसको सुलाती
मेरे भी आँखों के सपने , खुली आँख से रात बिताती
मन मसोस कर सो जाता था , स्वप्न बांह में माँ के घेरे
सारा संयम भर लेता था, कुछ  जीवन के नए सवेरे



अब जीवन के इस पड़ाव में सारी दुनिया  घूम रहा हूँ
हर सुख जीवन के लहरों से धुप सुनहली सेंक रहा हूँ
फिर भी मेरा स्वप्न अधूरा , माँ का आँचल में छुपता मै
हाथ पकड़ मैं पिता की अपने , कई खिलौने भी किनता मैं

हे इश्वर क्यों छीना तुमने मुझसे वो अमूल्य निधि थी मेरी
ये सारे सुख दिए जो तूने बदले में मेरी माँ लेली
क्या ब्यापारी तू भी है जो जनम के बदले छीना माँ को
धरती पर आने का सौदा , मुझे अनाथ बनाने तक था ?




श्वेत श्याम तस्वीरों से ही आकर मुझको गले लगा लो
मैं भी जी लूं अपना जीवन , बेटे का अधिकार दिला दो
मेरी ख्वाहिश मेरे सपने , एक अधूरापन जीवन में
सारे सपने पूरे होकर , रहा अधूरा माँ का सपना .

आज देखता हूँ खुद को मैं , खुद के बच्चों में मैं खुद को
उनके सर पर हाथ है मेरा , बीता जो कल वो था अन्धेरा
मैं फिरता था उन गलियों प्रश्न है मेरा इस समाज से,  
प्रश्न है मेरा इस समाज से, क्या वो गूंगा है या बहरा

बहुत प्रताड़ित जीवन है ये ,,,साया नहीं जो माँ का सर पर
लोग नहीं अपने होते हैं , रिश्तों की तादाद हो घर पर
जीवन जीना ही पड़ता है सहकर सबकी तानाशाही
येही था कहना इस समाज से , अश्रु बन गयी  मन की स्याही

कोई तकल्लुफ नहीं दोस्ती में , मगर एक दीवार भी है ..


कोई तकल्लुफ नहीं दोस्ती में , मगर एक दीवार भी है ..

by Suman Mishra on Tuesday, 29 May 2012 at 00:47 ·

कोई तक्कल्लुफ़ नहीं है दोस्ती में
मगर एक दीवार भी है
कैसे कहें हम ये बात
अपना मिलना बस बे-अख्तियार सा है

कल तलक यूँ ही जुमलों में हम मशगूल रहे
एक हद तक किन्ही बातों से तवारूफ करें
अभी तो जानना है बहुत कुछ की बात का मंजर
एक वो आदमी कई दिन से उससे मसरूफ रहे

कभी कभी मुझे हवा की सरगोशी कहती है
कोई एक दास्ताँ दस्तकों में मिलती है
सर्द झोंके से एक हल्की चपत के जैसे
कुचले फूलों की खुशबू में पैरों की सैर सुनती है



कभी कभी जब खुला आसमान यूँ ही  खाली हो
कोई परिंदा ना हो तैनात  इसकी बे-खयाली हो.
मेरी जरूरत हो गर महसूस तो  समझ लेना
ऐसे लम्हों में तेरी याद मन सवाली हो ..


ये दुनिया सैरगाह और हम मुसाफिर से

अपनी ये दोस्ती भी इनसे परे क्या होगी
कोई दीवार का पैबंद अगर लग भी गया
एक हल्की शिकस्त  होगी और क्या होगा


अगर ये दोस्ती की हद को मुकम्मल कर दो
दोस्त के नाम से मुझको ज़रा मशहूर कर दो
नहीं जुड़ पाएंगी ईंटें किसी दीवारों में
थाम कर हाथ आज तुम मुझे मगरूर कर दो,,,,

नुमाइश या मजबूरी


नुमाइश या मजबूरी

by Suman Mishra on Saturday, 26 May 2012 at 01:37 ·

जहां देखो नुमाइश का दौर है यारों
कोई चिट्ठा कहीं कच्चा या पका है यारों
बिना इसके कहीं कोई तिजारत मुमकिन नहीं
कही पे दिल, कही दिमाग का खेल है यारों

आज कुछ लोग नुमाइश का दम भरते हैं,,
किया कुछ भी नहीं बस यकी लोग करते हैं
हम तो शब्दों में चाँद तारे टांक सकते है
एक पैबंद ना खुल जाए आँख रखते  है

 

किसी ने एक वक्त पेट भरा खुश हो गया
किसीने खींच ली तस्वीर एक रस्म हो गया
दिखायेंगे , बनायेंगे नया जहां इससे
खींच दी क्रांति की लकीर और खुश हो गया

कहीं रंगों में , कहीं लेंसों में कैद तंगहाली
कहीं अखबार के पन्नो में लिखी बदहाली
कहीं  टीवी में दिखी दासता गरीबी की
कहीं सड़कों पे विछी बच्चियां करीने से



कोई भी तूलिका जादू नहीं दिखा सकती
प्राण तस्वीरों में वापस नहीं वो ला सकती
काश वो रूप नया नक्शा कुछ बना सकती
राम और कृष्ण को वापस धरा पे ला सकती

आज हालातों की नुमाइश करो और पैसा लो
इनके चेहरे में ज़रा रंग भरो पैसा लो
खुद को नारी से पुरुष का कोई किरदार करो
अपने ईमान को ताखे पे रखो पैसा लो
              ****

मन विहग सा फिरता अम्बर , पाँव हैं पर पत्थरों पर


मन विहग सा फिरता अम्बर , पाँव हैं पर पत्थरों पर

by Suman Mishra on Friday, 25 May 2012 at 01:01 ·



मन विहग सा , उड़ता रहता बादलों के संग गगन में,
मैं हूँ धरती  तुम हो अम्बर, नहीं मिलना इस जनम में, 
जाने कितने साहिलों को छु के गुजरी नदी हूँ मैं
पर लहर का आना जाना यूँ ही है जल के सघन में

पंख  का विस्तार कर दूं, या समेटूं खुद में खुद को
धरती से अम्बर की दूरी ना बढ़ेगी ना ही हो कम
आशा के पंख बढ़ रहे हैं, इनको मैं एहसास कर लू
लहर का आना और जाना , संग इनके मैं भी चल दूं

 

उड़ने की आशा से तिश्नित मन की भाषा लहर जैसी

जाने क्या वो ढूढती है, अनगिनत प्रहरों  सी तट पर
जाने कितने अब थपेड़े सहेगा  तट  ना हो क्रंदन
ढूढती हूँ इसके आंसू, सीपों में मोती अकिंचन 


हर तरफ अवसाद फैला, मिलन का उपहास फैला

लहरे साहिल से मिली जब , कुछ नहीं आभास फैला
तट की सीमा वही तक है जहां तक लहरें नहीं है
ह्रदय से मन क्या कहेगा , जहां यादें बलवती है


समय धरती और हकीकत सूना है सब नष्ट होगी
फिर जनम होगा सभी का या ये सृष्टी विलुप्त होगी
अब नहीं पनपेगी धरती , कितनी शलाका दग्ध होगी
फट पड़ेगी ज्वाला बनकर, सूर्य जैसी ये दिखेगी

इसलिए है पंख बांधे गगन से कुछ बात कर लूं
कुछ जमी और जल की सीमा दोनों का सन्देश दे दूं
नहीं अपनी बे-गुनाही , पर ज़रा फ़रियाद कर दूं
आसमानी कुछ फ़रिश्ते , इंसा की बुनियाद रख दूं
                         ****

दुविधा .....मेरे मन की


दुविधा .....मेरे मन की

by Suman Mishra on Wednesday, 23 May 2012 at 12:17 ·

अभी तो बस ख़ामोशी सिल दी
सिलन खुली तो गर्जन होगी,
बाँध बनाकर रोक दिया है
वरना वेग प्रलय सी होगी

कुछ पत्तों को चुनकर मैंने
आग ताप ली पेड़ के नीचे
आंधी से जब हिलेगी शाखा
टूट गयी तो जड़ रोएगी



शंख बजे तो हृदय दुदुम्भित
लहरों में बहकर आया  था ,
है अमृत मुख से लगने दो,
पर जीवन की बात ना करना 


जल की सीमा ख़तम हो रही
कश्ती में पहिये लगने दो ,
अब इंधन की बात ना करना
फुकनी से लकड़ी जलने दो.



अन्न मिला तो पचना मुश्किल,
जूते फटे तो चलना मुश्किल,
पथ पे धूल, परत पत्तों की
पतझड़ से सड़कें बिछने दो

ये गति है जीवन में आगे
क्या मैं बड़ा और तू छोटा
एक रास्ते चलते हैं हम
बस कुछ शब्द अभी कहने है 

Tuesday 22 May 2012

शब्द से निर्माण कर, कर्म से आह्वान कर


शब्द से निर्माण कर, कर्म से आह्वान कर

by Suman Mishra on Sunday, 20 May 2012 at 15:36 ·

शब्द से निर्माण कर,
कर्म से आह्वान कर
पंख काटे जो विहग के
नया आसमान कर

उसका जो  आंचल फटा है
तनिक ना अपमान कर ,
पग उठे जो आगे बढ़ जा
अब नहीं अवसान कर



सोचने दे मुक्ति का पथ
इतने झंझावत यहाँ
कौन कहता है ये अपना
अहम् का विराम कर


रक्त का प्रवाह बढता
लहर दर लहरों से रिश्ता
ये उफनती नदी तत्पर
मुश्किलों का भान कर,



बचपने की याद मत कर
पलों का हिसाब मत कर
भूलकर बीती सी  दुनिया
नए युग का मान सत कर

हर तरफ एक ताजपोशी
इंसां को फरमान मत कर
आँख खुलते हाथ सत्ता
सब यहाँ बलवान विषधर

 

शंख से हुंकार लेकर
बांसुरी की  नाद भरकर
धनुष  की टंकार सा मन
शत्रु से ललकार तू कर

शत्रु जो बस  हारता है
वीर वो जो मारता है
मन का जीता जीत सबको
एक अमोघ हथियार बनकर

आज रंग बरसेंगे बूंदों में अलग अलग, राग थी मल्हार तान आस ने लगाई है


आज रंग बरसेंगे बूंदों में अलग अलग, राग थी मल्हार तान आस ने लगाई है

by Suman Mishra on Sunday, 20 May 2012 at 00:39 ·




आज रंग बरसेंगे बूंदों से अलग अलग ,
राग थी मल्हार तान आस ने लगाई थी
दीपक की रोशनी में बूंदों के नृत्य देख
भैरवी की तान आज किसीने सुनायी है

स्वाती की बूँद ताईं बैठी वो त्रिश्नित सी
कूक थी पपीहे की प्यास ना बुझाई है
आवत जो दूर से बटोही नैन चमक गए
चला गया अनदेखा धूर आँख में समाई है


भीगा मन भीगा तन रंग रंगे ठाडी हूँ ,
अलकन ते पलकन पे काजर संवारी हूँ
देहरी से उपवन तक नयनो ने राह तकी
पाँव के निशान रंग पैरों से  छाप आयी

मन को मयूर और मधुबन की पांखी से
प्रीत रीत जोड़ जोड़ पंख सा उडाये जा 
राह की उजास आज सूरज की लाली से
आवन की खुशी में तू महावर सजाये जा




दोनों नैन दीप जले , बाती ना तेल बिना
मन की ये आस श्याम प्रीती से बढाए है
रंग की फुहार आज मेघ गजब बरस गयो
पात सरिस डोले  मन  हूक सी जगाये है

येही व्यथा येही कथा जनम भया नारी का
देहरी जो लांघ गयी हुयी बस परायी है
जीवन में आस लिए , मिलन पी का साथ लिए
प्रतीछित वंदना  सी स्वरों में समाई है,,,

आसान जिंदगी किस्तों में बंट गयी , कुछ सांस बची है आँखों के आसरे


आसान जिंदगी किस्तों में बंट गयी , कुछ सांस बची है आँखों के आसरे

by Suman Mishra on Saturday, 19 May 2012 at 15:26 ·
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आसान जिन्दगी किस्तों में बंट गयी ,
जो कठिन थी वो खुद की खुद में ही रह गयी
अब साँसों की जागीर में रहते हैं सिमटकर

वो जिन्दगी थी किसीकी ये जिदगी है और


आसान थी राहें आसान था जीना
मंजिल के पास आ उम्र ही निकल गयी
अब लोग पूछते है कहो तुम यहाँ कैसे
हमने भी कह दिया हम खोज में निकले



एक मोड़ है आगे मुड़ जाना है हमको ,
था काफिला वहाँ अब सफर तनहा है
मालूम है सबको कल तलक भीड़ थी
चलते बने हैं सब अब साथ छोड़ कर


कितने बही खाते सब मेरी विरासत ,
पन्नो के पुलिंदे उड़ते हैं हवा में
ये दौर नया है, पर दर्द पुराना
रिसते हैं मेरे जख्म पर दीखते नहीं



अब ये जहां महफूज या वो जहां माकूल
कल तक जो साथ थे ,अब तनहा है दस्तूर
इस जहां से उस जहां - रत्ती सा फासला
रह जाएगा बस ठहर थोड़ी उम्र बितानी है 


दौड़े थे साहिल पे कभी ना मापयंत्र था  
धरती पे पैर थे मेरे पंखों का बाना था
उसने यहाँ भेजा था हमें जी लूं जिन्दगी
अब चंद साँसे है मेरी उस पार जाना है
                    *****

आसमा पे रहने वालों से एक गुजारिश मेरी भी है,,,


आसमा पे रहने वालों से एक गुजारिश मेरी भी है,,,,

by Suman Mishra on Saturday, 19 May 2012 at 00:20 ·

ये जीवन अनदेखा सा है,
कितने आधे अधूरे किस्से
कुछ तो दूरिया रखनी होगी ,
वरना सब एक जैसे होंगे,

वो एक कद है ,नायाब सा हीरा
,मगर अकेला बंद पिंजरे में
बड़ी  चौकसी उसपर होगी ,
क्या होगा जो पा लूं उसको



हर पल चकाचौध की बाते,
क्या ये सब मन पूर्ण करेगा
कहीं रोशनी कहीं अँधेरा
दोनों से  जीवन पनपेगा ( हर स्थिति जरूरी है)

हर पल है अहमी सी  गुजारिश,
इसीमे जीना सीखा हमने


कैसे कह दें पाँव पंख से
हम आसमा के घर में रहते हैं




सब कुछ जो उगला धरती ने
वही अन्न है मैंने खाया
हो सकता है अलग जहां का
पड़ता हो तुम पर कुछ साया

क्या ये शरीयत है बातों की
इसमें मनन ना कोई चिंता
जहां मन किया धावा बोला
ढाल लगा कर उड़ा परिंदा
           ***

मौन को मत छेड़ देना , जाने कितने रंग बहेंगे


मौन को मत छेड़ देना , जाने कितने रंग बहेंगे

by Suman Mishra on Thursday, 17 May 2012 at 23:33 ·


मौन को मत छेड़ देना , जाने कितने रंग बहेंगे
रंग बिखरेंगे यहाँ पर , मौन को कुछ शब्द देंगे
पुष्प को मत तोड़ लेना , ये स्वीकृत की नहीं मंशा
जल में तिरकर ये बहेंगे, लहर के संग चल पड़ेंगे

मौन के शब्दों की गाथा जाने कितनी लम्बी होगी
ये तो बादल सिमटा सिमटा, जल की बूंदों से भरा सा
बह गया तो धरा सिंचित , मौन मन रंग जाएगी ये
रंग परिधानों में सजकर ये हँसेगी कलरवों में



"मौन" मैं कुछ सौम्यता है ,
"मौन" संवेदन सी गाथा
"मौन" में वो सब छुपा है
"मौन" का  मर्मों से  नाता ,


किसी गहरी झील सा जो शांत सी दर्पण सा चेहरा
फिर भी मर्मों के प्रवाहों में ज़रा सा मैं गति दे दूं
मौन के गुल्लक में जाने कितनी बाते खनखनाती 
कर दूं क्या आजाद इनको , कुछ खरीदूं और यादे


मौन में रंग ? मत हंसो तुम ,
ये तराशी मूर्त जैसी
मैंने पहनाये हैं कपडे
जब तलक ये पूर्ण होगी

चल पड़ेगी राह पर ये
गति भरे शब्द साथ लेकर
साथ में यादों के पंछी
नीरवता को भंग करेंगे

(मेरी प्रिय पंक्ति)
टूटने दो मौन को अब
वज्र सी आवाज होगी
फट पड़ेंगे नभ से बादल
तड़ित दिल के पार होगी


इंद्र का सिंहासन हिलेगा
तांडव शिव का आज होगा
धरा का श्रृंगार करने
फिर से नव गंगा बहेगी,,,,,

टुकडा भी धुप का जहे-किस्मत से मिलता है (धुप छाँव )`


टुकडा भी धुप का जहे-किस्मत से मिलता है (धुप छाँव )`

by Suman Mishra on Thursday, 17 May 2012 at 00:54 ·
टुकडा भी धुप का जहे-किस्मत से मिलता है
ये चादर नहीं ऐसी की पैर ढँक ही जाएगा
अधिकार उस पे सबका है वेदों ने लिखा है 
हिस्सों में जहानत की खुशी आधी अधूरी

कोई खुशी में डूबा की  अब उबरता नहीं
अजब सा ये दौर जाने कितना जुनू है
उम्मीद भी सजग है की वो सफल हो जाए 
किस्मत की बेरुखी से कही मात ना खाए



ये प्रेम प्यार की कहा जरूरत है अब किसे
सब डूब रहे हैं किसी आदत के नशे से
आसान है हर शख्स इसे पा ही जाता है
किस्मत नहीं ये दौर कहो, झूठा सा नाता है

कुछ लम्हे खुद के साथ जो हमने थे गुजारे
खुद को गलत सही समझ चल  चित्र उभारे
थी अजब सी तस्वीर मेरी , मेरा ये वजूद
मुझसे अलग लगा मगर ये मेरे सहारे



आसान किस्तों में मिली ये जिन्दगी जी लो,
कितनी मिली हिस्से में ये मत पूछना कभी
इस  धुप छाँव पे है अधिकार सभी का
बस दोष ना देना कभी किस्मत की जमी का


जीवन के बाद भी रहेंगे साथ में उसके
ये रूह फना होगी नहीं मेरा यकीन है
बस इत्तिला मेरी येही पहचान सको तो
जन्मों से हम तुम  एक ही राहों पे चले हैं


क्योंकर हो नाराज ज़रा पास तो आओ
हालात के शहतीर आज फिर से लगाओ
बरसात में भीगोगे अगर होगा फिर एहसास
पीली सी धूप में पसीना बहा कितना


कहते है मुझे लोग ये शब्दों की बाबत से
 मिलता है मुझे बल भी उनकी इजाहत से
पर मंजिलों पे नजरों का अभी देखना बाकी
जिस दिन मिली मुझे तो मिलंगे शराफत से
                   *****
                  *****

तनिक अनमना हूँ पर जीत लूंगा सरहदों को


तनिक अनमना हूँ पर जीत लूंगा सरहदों को

by Suman Mishra on Wednesday, 16 May 2012 at 01:15 ·

घर से निकला अनमना सा,
अश्रु  माँ के ढलके तन पर
भीगा था जब मेरा कंधा,
बूँद आंसू कांटे सी बन कर

चल पडा हूँ अपने पथ पर
कर्ज है कुछ मेरे मन पर
बोझ का मत नाम देना
कर्म का आधार पहला



भर लूं आँखों में वो चेहरा
फिर ना जाने कब मिलूंगा
चल पडा हूँ सरहदों पे
जमी जो अपना है डेरा

प्यार है मुझको इसीसे
जनम मेरा इसकी खातिर
छीन लूगा दुश्मनों से
आँख से देखे जो शातिर


वज्र सा तन , वज्र सा मन ,
सर्दी गर्मी मुझको संयम
मैं खडा हूँ जिस धरा पे
इसका ही बस मान रख लू

कोई सरहद ना रहे अब
मिल जो जाए ये जमी से
अपनी दुनिया कह सकेंगे
मिलके सब इंसान भी तब


उड़ चलेंगे पंछी बनकर
सरहदों के पार हम तुम
जहां भी मन घर बनेगा
एक नया संसार हम तुम

ख्वाहिशों से बल है मिलता
एक मुट्ठी की है ताकत
हाथ में अब हाथ लेकर
जोड़ लो अपनी शहादत

हम नहीं तो क्या हुआ जग
वीर की उपाधि देगा
धरती का हर चप्पा अपना
एक हैं सब जग हंसेगा

उससे कह दो मेरे ख़्वाबों में ना आया करे,,,,(कशमकश )


उससे कह दो मेरे ख़्वाबों में ना आया करे,,,,(कशमकश )

by Suman Mishra on Tuesday, 15 May 2012 at 01:15 ·



बड़ा विस्तृत सा ये रूप या रिश्ते की थाह है  क्या
कहाँ तक सोच कर मैं खुद को अब तामील जो करू
अमलो जामा है पहना बहुत सी याद काबिज है
कहाँ तक मुद्दतों की बात का अफ़सोस मैं करूँ

अभी तक मैं नहीं उबरा , वो दुनिया एक अलग सी  थी
अजब सी मन पे रंगत थी, हरेक जेहमत शहादत थी
गुजर जाते थे रस्मों को निभाने के लिए हद तक
मेरी दुनिया में वो बस थी , उसकी दुनिया भी मेरी थी

वो था फानूस जैसा वक्त क्या बस रोशनी मंजर
ना जाने कितने रंगों के धनुष खिलते थे हर पल में
थी बाहें फ़ैली उसकी मेरी दुनिया में समाने को
मैं खो जाऊं जो गर उसमे , नहीं कोई नुमाइश थी



ना जाने कितने दर पे हम मिले शाम से पहले जा जा कर
वो सूरज अस्त होकर आ गया मिलने फिर से मुहाने पर
कई रंगों में रंगने को विछा देता था गलीचे
मगर अपनी जो बंदिश थी वही हम सोच कर बिखरे

कसम है उसकी मेरी भी , नहीं ये आजमाइश थी
बस एक हल्की सी दस्तक बंद दिलों के दर्द जैसी थी
धड़कने एक लय में थी, बस एक उसकी गुजारिश थी
हमारी बात हम तक ही रहे , हमारी भी ये ख्वाहिश थी


एक तनहा सा है ये मन, नहीं समझा ना समझेगा
ये पंखों से नहीं उड़ता , मगर अब कौन रोकेगा
जहां चाहे जिधर  जाए , पुकारे मन से ये उसको

कोई सुनता भी है इसको, घिरा खुद के सवालों से


है कुछ मालूम इसको जो कभी उसकी धरोहर थी
ये लाया मांग कर उससे बनाने अपनी किस्मत भी
ये मन के तार के जैसा जुड़ा है उसके   ख्यालों से
अजब सी एक कशिश इसमें, अजब से बे-खयाली है




सुनो...अब स्वप्न में आना नहीं तुमको  हिदायत है

बड़ी ही तपिश है इसमें , अजब सी ये नफासत है 

मैं हूँ बदला हुआ इंसा , चला जो साथ मैं उसके
वो  मेरी अलग दुनिया थी  , खोया था ये शिकायत है

वो एक स्वप्न सा हरदम दिलो गुलशन में खिलता है
उसीकी बात से हर बात की शय शुरू करता है
मैं चाहूँ अलग होकर मैं अलग अपना जहां चुन लूं
मगर वो मेरे साए की तरह मुझमे ही रहता है


"है हर जो बात ये मैं स्वप्न को अलविदा कह दूं "

मैं दूं अब इत्तिला उसको ना आओ जेहन में कह दूं
जो होगा हश्र अब मेरा , ये माना धडकनों की बात
ना आये स्वप्न में मेरे , कहो तुम या मैं (मैं तुम दोनों एक ही हैं ) कह दूं

ओ ! रे कन्हाई तूने दधि नाही खाई ,,,?


ओ ! रे कन्हाई तूने दधि नाही खाई ,,,?

by Suman Mishra on Monday, 14 May 2012 at 17:42 ·


माँ की ममता .....वात्सल्य  ..कृष्ण यशोदा से भी सुंदर कहीं मिलता है बोलो ?

ओ ! रे कन्हाई तुने दधि नाही खाई, ?

बांसुरी की धुन ने मुझे बात ये बतायी
रूठ गयो मोसो काहे, काहे मुंह फेर लियो
बोल दे ओ ! कान्हा देख,  माँ ने हाथ जोड़ लियो


तेरी बांसुरी भई, तेरी ही सहोदरी अब
माखन वा से मांग लियो, मन्ने अब ना दोष दियो
शिकन तो तेरे मुख तनिक सौ तो आयी नाही
मन मुस्कात कान्हा , माँ ने ली बलैया जानी




बैठी छाँह कदम के, माँ यो मनुहार करे,
छोटो सो कान्हा मेरो, मैं काहे ना लाड़ करू
जगत दुलार जैसो, माँ को ये दुलार न्यारो
खुद नै लुकाय लियो, शिशु कान्हा प्यार बाढ्यो

कैसो मात, कैसो सुत, निरखत ज्यों जीव जंतु
मन को सम्मोहन में सबही ने भरमाय लियो
आयो रूप धर के ज्यों लीला पै यूँ लीला कीन्ही
बाल रूप सूर भाष्यों , अंखियन में समाय लियो.



रोज रोज मनमानी , कितनी ढिठाई करयो
गोपी संग तोड़ फोड़, मटकिन गिराय दियो
छुप छुप बाट जोहत , गोपी गृह माखन लै
गवाल बाल सबहीं के मुख लपटाय दियो


चोर ये चकारो सारो, करै सब गुहार देखो
मोहनी सी मूरत सो चेहरों बनाय लियो,
देख देख लीला न्यारी , मन में समाय जात
कान्हा ये मुरारी मेरो , माखन चुराय खात


आज दधि खाई नाही, बड़ी है कमाई मेरी 
सारी सारी गोपियाँ की आयी है दुहाई तेरी
तेरो मन वाको संग , रम गयो जानू मैं
दीप से पतंगा जैसी प्रीत वा लगाईं आयी

मान ले ओ ! कान्हा तेरो ऐसो उत्पात हियाँ
दिन रात नन्द बाबा सब नै सुनायी कही
कित्ते युग बीत गयो , पर ना पुरानी भई
बाल कृष्ण कान्हा कथा सब ने जुबानी लई

रिश्तों के त्यौहार,,,,,( माँ - on mothers day )


रिश्तों के त्यौहार,,,,,( माँ - on mothers day )

by Suman Mishra on Sunday, 13 May 2012 at 21:38 ·


होली , दीपावली ,दशहरा ,ईद ,और क्रिसमस तो सूना था
अलग प्रान्तों के नव वर्ष भी ना अनसुना था
लोगों के अपशब्दों में रिश्तों को तौलते हुए गुना था
जाने कैसी ये दुनिया तू तू मैं मैं में सुनकर ये मन अनमना था


आज रिश्ते सड़क पर चलते ही बन जाते हैं
पड़ोसियों से ठन गयी तो तम्बू उखड जाते हैं
अब इन रिश्तों के कोई माने शहरों की दूरियों में गुम हुए
इसीलिए इन रिश्तों की याद के लिए कुछ कार्ड छप गए


माँ का दिन भी अब मुक़र्रर हो गया है लोगों
कम से कम एक दिन तो याद कर ही लो उसे
ये शब्द जो धरती , और अम्बर से जुड़ा है
ये शब्द जो तन मन में झरोखे सा बुना है

जो छाँव है ममता की साए की तरह है

हर सांस कर्जदार जिसकी दुवावों की तरह है

हर वक्त हमारे लिए जीती है वो ताप कर
अब दिन मुक़र्रर कर दिया रिश्ते में बंधी है
 

अब क्या कहूं माँ शब्द पर मुझको नहीं है थाह
ये धरा , धरनी , धरती से हरदम जुड़ा हुआ
अंकों में पल के हमने सीखा था जब उड़ना
लो कर दिया मुक़र्रर एहसान  का एक दिन


ये दूरियां लम्बी हुयी , दिल दूर हो गया 
काढा जो माँ के हाथ का दूभर सा हो गया
अब तो समय की शागिर्दी घडिया मंहगी सी
कर के किनारा माँ से डिप-डिप चाय बन गयी


कुछ पल ही अब सही मगर वो स्वर्ग लगता है
हाथों से माँ का सर पे जब स्पर्श लगता है
हाथों की लकीरों से बड़ी सड़के , नौकरी
हर दिन ही बात की मगर ये दिल पत्थर का लगता है

ये रस्म अदायगी सभी दस्तूर खा म खां
इश्तिहार में छपने लगा अब माँ का सहारा
वो कौन सी जमी है जिसपे माँ नहीं होती
फिर दिन मुक़र्रर कर दिया ये किसकी बपौती