Wednesday 30 November 2011

मन की देहलीज .....कहीं कच्ची सी कहीं पक्की सी,,,

 by Suman Mishra on Wednesday, 30 November 2011 at 14:06


मन की देहरी कहीं कच्ची सी कहीं पक्की सी,
कभी कभी दरवाजे की दस्तक नहीं सुनती,
थकी हुयी सी ढेह जाती है बारिशों मैं कभी,
कभी जज्बातों से मिलकर यूँ ही बहक जाती है,,,


इस देहलीज़ पर फूल की जरूरत नहीं,
पत्थरों के ढेर से भी कोई फर्क नहीं
देव-स्थान के द्वार की देहलीज से कम नहीं,
भावों के समन्दर के बाँध बांधे गए हैं इसपर.



रिश्तों की चहारदीवारी से घिरी हुयी है 
जीवन मैं कुछ को अभिलाषित है ये,
देहलीज ये जो मन की, स्थिर सी एक विधा है,
सपनो के पंख बनकर इससे ही हैं निकलते,


इसके तरकश मैं तीर बहुत से हैं
कुछ विष बुझे , कुछ फूलों के रस बुझे,
वक्त की तहजीब से सुशुप्त हैं ये,
बस कच्ची पक्की देहरी स्वतंत्र नहीं.
            *****

वक्त को कहने दो अपनी बातें, हम ने कहा था बोले वो,,,

 

by Suman Mishra on Wednesday, 30 November 2011 at 00:29

हमने जो तामील किया था, वही वक्त तो बोलेगा,
कहने दो जो वो कहता है, ये खुद से खुद को तोलेगा
कभी गर्द उडती राहों पर, कदमो से जो बने निशाँ,
कभी वक्त की आंधी लेकर उड़ जाती छोटा सा जहां

अभी वक्त है हुक्म है उसका ,हम अपनी कुछ बात कहें
कहना क्या ,करना है सबको, दुश्मन को हम मात करें,
हो सकता है मित्र बना वो, साथ मैं अपने चलता हो,
वक्त का ऐनक ज़रा लगा लो चेहरा साफ़ तो दिखता है,

शक्ल सही  पर मन काला हो, वो शत्रु का प्यादा हो,
इंसानों की भीड़ में छुपता, खुद से एक तकादा हो,
ये जीवन के मूल्य को कुछ नोटों में तोल के चलते हैं,
वक्त की आँखें इनपर भी हैं ये सब भूल के छलते हैं.

क्या छोटे बच्चों की चीखें , अखबारों से आती हैं,?
नेता के दो संवेदित शब्दों से चीख रुक जाती है,?
क्या जीवन इतना सस्ता है, माँ के ह्रदय से पूछो तुम,
अब खुद ही आगे बढ़कर इस बुरे वक्त को रोको तुम.
                      *****

Tuesday 29 November 2011

एक बार मन अलग थलग सा होकर उसका ही बस हो ले

एक बार मन अलग थलग सा होकर उसका ही बस हो ले 

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ये कोई उपहास नहीं है, अंतरमन  की प्यास नहीं है,
जीवन एक मरुस्थल जैसा, उससे मुझको दूर है जाना
कुछ पथरीले पथ हैं आगे, कुछ मन की ये उठा पटक है,
समतल कोना ह्रदय का ढूढूं, अंतरद्वंद से पार पाना है.

एक ह्रदय और लाखों आहें , कैसे मन की थाह मिलेगी,
कब खुश और ग़मों के बादल , सच्चे  मन की चाह मिलेगी,
पलक पलक आँखों के झरने , झरते हैं दुःख की आहट से,
अभी निराशा दूर है मुझसे, आशा को इस पार लाना है.

क्या ये शब्द है मन की झांकी, शायद कुछ तो सच ही होगा,
मन की बात या लौ बत्ती की, एक साथ जल भस्म मिलेगा,
माथे पर जो लिखा भस्म से, कुछ लौ का अपवाद दिखेगा,
आज अलग कल विलग कहेगा, मिलन धरा का छितिज से होगा,


मन का दर्पण बिन पारे का, सब कुछ आर पार है दिखता,
एक नहीं तो दूजे पल का अंत और आरम्भ ये करता,
अब जो भी हो कुछ पल अपने नाम करू मैं सोच लिया है,
एक बार सब दरकिनार हो, उसको अपना  नाम दिया है.
                      *****

Monday 28 November 2011

दूसरों के हाथो से ख़त क्यों मेरा मुझ तक पहुंचे ?

दूसरों के हाथो से ख़त क्यों मेरा मुझ तक पहुंचे ? 

by Suman Mishra on Monday, 28 November 2011 at 16:19
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दूसरों के हाथों से ख़त क्यों मेरा मुझ तक पहुंचे
पहरेदारी मैं लगे हैं पेड़ के हर पात इस पर,
खुशबू फूलों की है इसमें , कोपलों सी नर्म चाहत,
उनका हर पैगाम हवा खुद ही उड़ा के लाये मुझतक,


रोशनी अंजाम देती शब्द दिखते मोतियों से,
एक पुरवाई ही काफी,चलती है ख़त पहुँचने के,
मेरी यादों में जो बीते पल ,वो पल सब लिखे थे,
क्यों  दिया उस दूसरे  के हाथ जो मुझे प्रिय थे ,

एक रुसवाई है  ये मेरे तरन्नुम और के हों,
ये तो गुस्ताखी हुयी उसकी अगर मैं पूछ लूं तो ?
एक जीवन जिसमें उसका ही बसर है,
दूरिया भरता हुआ, उसका ये ख़त मुझको नज़र है.


सुर्ख स्याही ये नहीं ये फूल के रंग से सजे थे,
हवा के मानिंद से ये रास्ते पहचान लेंगे,
उनका होकर भी ये सदमा फिर है मुझको अजीज
पढ़ना चाहूँ शब्द को पर दृश्य बन जाए शदीद

उनके ख़त को लगा सीने , धड़कने और नयन संगम
एक की आवाज प्रतिपल, एक गति से सजल प्रतिपल,
इन हवाओं की नमी से भीगता सा ख़त अगर तो,
                           ****

Sunday 27 November 2011

उसकी यादों को बुलाना ही नहीं,


उसकी यादों को बुलाना ही नहीं,

by Suman Mishra on Sunday, 27 November 2011 at 21:24


देखना है शाम होती जिंदगी, हर सुबह पैगाम होती जिंदगी,
क्या करेंगे याद उसकी रख के यूँ,सोची समझी साजिशों सी जिंदगी,
हमने क्या सोचा हुआ कुछ और ही, उसकी सूरत याद हर पल जिन्दगी,
हमने पी आंसू गुजारी इस तरह, उसने हंस कर टाल दी यूँ जिंदगी.

क्या  करे बातें किसी की खाम-खां,इक नशे की है खुमारी जिंदगी,

बेचकर बाजार वापस आ गए, खाली हाथों से लुटी ये जिन्दगी .
सारा घर खुशियों की रहमत माँगता, वो पडा बीमार सा ये जिन्दगी.
फूल एक खिलता है मन में यूँ ही क्यों, बादलों से सींचती है जिंदगी.


एक पल की याद बस दस्तूर है, अच्छरों से जुड़ना जारी है यहाँ ,
क्या लिखा क्या सोचा था इस पंक्ति मैं ,बन गयी कविता सी है ये जिन्दगी
याद उसकी सालों तक आती रही, अब मिली निजात जैसे जिन्दगी,
चाँद तारे रोज आते हैं यहाँ, उसकी यादों को न बुलाना "ही" जिन्दगी .



ख़ामोशी भीतर की , बाहर का आलम शोर भरा. 

by Suman Mishra on Saturday, 26 November 2011 at 14:10

ये नदिया भी शांत अभी है, लहरों की हलचल है कहाँ,
ठांव रुकी नौका सुस्ताती, जीवन पल भर रुका हुआ,
शोर बहुत था बाहर ज्यों क्रंदन की गति गतिमान हुयी,
मन बहता इन धाराओं मैं , संग उसके जीवन संध्या  

खामोशी भीतर की जब जब जड़ फैलाती दिखी ज़रा,
शोर हुआ है कही कहीं पर, तिजारती बाजारों मैं,
चल उठ मन चल ठौर कही ले, इस जग का दस्तूर येही,
कोई छूटा जग बंधन से, मन करता उससे बैर अभी.



ख़ामोशी भीतर थी बाहर सारा आलम बोले है
कौन  गया मेरे मन से, मन ही मन से तोले है,
दिल का शीशा टूट गया, पर किरचों से ना जख्म हुआ,
सब दिल के अन्दर का रिश्ता,क्यों सब मन को कुरेदे है

हर गूंगे एहसास की बोली दिल बेचारा बोले था,
उसने ना समझा था इसको, कोई नहीं किसीका है,
कुछ दिन की एहसान पे दुनिया ,हर पल जीना मुश्किल है
एहसासों को शब्द बना दो, महक बने ये जी ले तो.

Friday 25 November 2011

मुमकिन जहां गुजारना लम्हा भी नहीं था

मुमकिन जहां गुजारना लम्हा भी नहीं था (श्री रविन्द्र जी द्वारा प्रेरित)

by Suman Mishra on Friday, 25 November 2011 at 12:30


हम उस जगह भी उम्र को आये गुजार के ,
मुमकिन जहां गुजारना लम्हा भी नहीं था,
बातों का रोग यूँ भी जमाने ने पाल कर ,
बख्शा मुझे कुछ शब्द से कुछ तीर की तरह

उसने जो एक बार यूँ अपना कहा मुझे
इस जिन्दगी से माँगा कुछ पल उधार यूँ,
अब शाम का अन्धेरा हर रात चांदनी ,
पानी मैं अक्स उसका, पतझड़ बहार सी, 

बस याद ने उसकी यहाँ सूरत तलाश ली,

उसने तमाम उम्र नकाब मैं ही काट ली,
कुछ शऊर होगा उनकी ह्या या कोई तहजीब
एक वफ़ा का जज्बा ही मेरे काम आ गया,

ये याद की बरसी हमेशा याद रहती है,
हरदम ख्याले रोशनी में तेल के माफिक,
हम जाने कितने पत्थरों मैं ढूढ़ते रहे
क्या मिल गया हवा से एक सलाम ही देके.


हमने बहुत सजदे किये उसकी तलाश मैं,
बस एक ही खुशबू ने मेरी सलामी ली,
अपनी बनाई सूरतों में हम फना हुए,
एहसास उनका मुझपे काबिज जहा रहा,

उड़ते हुए कुछ फूल के टुकडे मुझे मिले,
ख़्वाबों की दरगाहों पे हमने जो चढ़ाए .
मेरा वजूद जाने कहाँ गुम है हो रहा,
चेहरा तो उनके पास अपना भी नहीं था  
 

Thursday 24 November 2011

रात भर जागे गुलाबों को लगा होगा

रात भर जागे गुलाबों को लगा होगा (श्री रविन्द्र जी द्वारा प्रेरित)

by Suman Mishra on Thursday, 24 November 2011 at 13:20

रात भर जागे गुलाबों को लगा होगा,
चाहतों का अर्थ कितना शबनमी निकला,
छोटी बूँदें बन गयी आकार मैं दुगुनी,(दर्पण का काम कर सकती हैं.)
लालिमा चेहरे की उसके शक्ल ले लेगी,

दर्द मैं चुपचाप मेरे पास आ बैठा
कुछ ग़मों की आँधियों से बिखरा बिखरा सा,
उसकी पंखुरियों को छुआ एक आह सी निकली,
यार तू तो एक मुकम्मल आदमी निकला.


कुछ नहीं तो आज इसकी रौं में बह जाएँ,
एक खुशबू हवा से हम खींच यूँ लायें,
रंगतों का क्या ये तो एहसास ले आये,
क्या गुलाबी, लाल रंग हम यूँ ही पी जाए,

उसका भी कुछ दर्द ही होगा, पास जो मेरे वो आया,
उसके काँटों मैं नरमी थी, साथ जो वो अपने लाया,
वैसे तो वो नाजुक दिल का पर मन की परिभाषा एक,
मैंने अपनी बात जो बांटी, एक हुयी वो एक ही बोल,

एक गुलाब जो जीवन की खिड़की से दिखता मुझको,

लहराता सा खुशबू देता, मन के वस्त्र से लिपटा जो,

कुछ कांटे जो चुभ जाते हैं, रंग में परिणित होकर भी,
आह नहीं बस प्यार की खुशबू, मन के द्वार से अर्पित हो,                          *****

वो हरसिंगार का पेड़, जो आज भी वहीं है

वो हरसिंगार का पेड़, जो आज भी वहीं है 

by Suman Mishra on Thursday, 24 November 2011 at 16:26

तुम्हारे आँगन मैं खडा वो हरसिंगार ,
मुक्त मन से मुस्कराया उम्र भर,
मन का कोना तरबतर खुशबू से था ,
उसने ही मुझको जगाया उम्र भर,,

नीद लगते साथ ही दिखता था रोज,
उसकी  डाली लिपटी मुझसे लता सी,
स्वप्न के मानिंद कुछ स्वप्निल सी थी,
इसी सपने ने सताया उम्र भर,

रात की खुमारियों थी, गिर पडे  कुछ  धरा पर,
पल मैं ही हो गयी पागल, खुशबू से मन भरा यूँ,
गगन से  वो जब मिली थी, महक कर वो हंसी थी,
फूल के रंग रंगी जैसे, इन्द्रधनुषी बनी वो.

कुछ चुने मैंने भी इनको, पुष्प ये पारिजात के,
मन के आँगन में जो मूरत, हैं चढ़े विश्वास से,
ये नहीं हैं फूल ही बस, जनम संवाहक से हैं,
भीनी खुशबू मन बसी है, है धरोहर मन की ये,

क्या लिखूं इस पर ये कविता,
इसको भर कर अंजुरी,
बहकता मन,महक से यूँ,
मन लता की मंजरी,
ओस की बूदों मैं लिपटी
है नमी खुशबू भरी ,
देव के चरणों मैं अर्पित
पुष्प श्रध्हा हे हरी....

Tuesday 22 November 2011

अकेला चल के तो तू देख, काफिला आ रहा होगा,

अकेला चल के तो तू देख, काफिला आ रहा होगा,

by Suman Mishra on Wednesday, 23 November 2011 at 01:06

अकेला चल के तो तू देख , काफिला आ रहा होगा,
शहंशाहों की माफिक चल, काफिला आ रहा होगा,
नहीं रुकना  कहीं पर तुम , काफिला आ रहा होगा,
किसी रोडे से बचना तुम, काफिला आ रहा होगा.

कोई भी उम्र इसकी है, कोई वाक्यात शामिल कर,
लगेंगे पंख पैरों मैं, येही जज्बात शामिल कर,
लगेगे कुछ ही तब पीछे, पीछे दो आँख शामिल कर,
ज़रा  जल्दी हो मंजिल की, एक तर्ज़ुमात शामिल कर,

हुयी एक शाम सुबहों की, अन्धेरा फिर भी है जारी.
कहीं सूरज थका ना हो, कुछ तो एहसास शामिल कर,
कदम बढते रहें यूँ  ही, दिशा की बात शामिल कर,
कोई तो लक्छ्य जीवन का, एक कायनात शामिल कर,

येही जज्बा जो फैलेगा, कोई भी रुक नहीं सकता,
सभी आयेगे यूँ पीछे, कोई अब मुड़ नहीं सकता,
जो छोड़ा छूट जाने दे , नयी कुछ बात शामिल कर,
अकेला अब नहीं है तू, तारे और चाँद शामिल कर,                 

धरोहर

कुछ बातों की याद धरोहर ,
कुछ बातों के साथ धरोहर,
कुछ रक्खी तालों के अन्दर,
कुछ मन की है बात धरोहर 
कुछ शब्दों के तीर चले थे,आर पार गंभीर चले थे,
जीत हार परिणाम युगों का,
बनता है इतिहास धरोहर,

कहीं दीप की लौ फीकी सी,
कहीं ज्योति की लडियां लटकी
कहीं वो भूखा सोया कबसे,
कभी बनी अपमान धरोहर,

कितने किस्से गठरी बनते,
पन्नो पे है धूल जमी सी,
अब तो जाने क्या क्या बिकता,
वेद और पुराण धरोहर .
 

Sunday 20 November 2011

मीठी नदिया समझ ना पायी गहराई की बातों को


मीठी नदिया समझ ना पायी गहराई की बातों को 

by Suman Mishra on Monday, 21 November 2011 at 01:47
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मीठी नदिया समझ ना पायी गहराई की बातों को,
गहराई की बात अधूरी ,ख्वाब हमारा बोले है,
आना पड़ता है जमीन पर ,आसमान से मिलने को,
ये जमीन के एक टुकड़े से , मन के मिलन को जोड़े है,


तरल गरल सब स्वयं समेटे, है प्रवाह जीवन इसमें,
वायु आद्र और नमी लिपट कर , ओस बूँद पडी थल मैं,
मन विह्वल अब चली मिलन को, धरती की सहभागी ये,
वो कठोर और ये है सुकोमल , पुष्प सींचने आयी ये,



आँखों में बन आस चमकती, बादल इसका घर जैसा,
रहती जब तब घूम  घूम कर करती धरती का फेरा,
उडती है रूई के जैसी , काले नीले रंग लिए.
विहग रूप धर आसमान मैं , उडी मेघ को संग लिए,


जीवन के  कुछ छन से जुडी है, सब अर्पित इसमें सबका,
मन निर्मल और तन है शीशा, सब कुछ इसमें है दिखता,
कब प्रवाह गतिमान  बना दे, कब सुशुप्त छुप जाए धरा,
बस निर्झर बन बहे निरन्तर , जीवन की आधार शिला.


एक दीप मैं करू प्रवाहित, एक दीप बस ज्योति जले,
मन प्रकाश या दीप ज्योति से आगे का रास्ता निकले,
माना ये बस छोटी कोशिश , पर ये जीवन भी है छोटा,
क्यों ना बहे संग नदिया के, इसको ही अस्तित्व बना,


इसकी ही भाषा को पढ़कर, ये  उन्माद प्रवाहित हो,
धरा मिलन और वेग सी तत्पर,प्रेम मैं सभी समाहित हो,
हमने तो बस पुष्प दिए कुछ, और एक छोटा दीपक,
इसकी गहराई मैं जाकर, बचा अभी ये तन अर्पित
                ****

Friday 18 November 2011

चन्दन महकी रात

चन्दन महकी रात 

by Suman Mishra on Saturday, 19 November 2011 at 12:58

चन्दन महकी रात भले ही समझ ना पायी ये वरना,
किसकी खुशबू थी नीदों मैं, ख्वाब हमारा बोले है ,
हल्की खुमारी आँखों मैं है, मन उपवन सा डोले है,
तैर रहा मन पंखुरी जैसा, थिरकन जल की हौले से.

जीवन की अभिलाषा है ये स्वप्न मयूर सा मन मैं रहे,
दिल को हाथों मैं रख ले हम, फूलो सा स्पर्श बसे,
चुन कर कुछ ख्वाब सुनहले, रूपहली रातें मध्हम,
चटक धुप  की आभा से कुछ . ठण्ड चांदनी शीतलतम,

मन की बात किसे मैं सुनाऊँ, नेत्र अधखुले सोये से,
कुछ हलके से कहा किसी ने , क्या तुमसे कुछ बोले ये,
हल्की सी मुस्कान है लब पर, शब्द कठिन कुछ तोले ये,
क्या कहना है पूछ रही हूँ, चुप है कबसे टोहे ले.

हरसिंगार की खुशबू से मन त्वरित हुआ अब सोच रहा,
किसकी यादों से महका मन, कौन स्वप्न मैं आके मिला,
नैन खोजते उसको हर पल, भ्रमण रहा मन भौरे सा,
बंद रात को कमल कुमुदिनी, खुशबू भर मन मन में बसा,

Thursday 17 November 2011

चमकत दमकत नार नवेली - मन की विरह


चमकत दमकत नार नवेली - मन की विरह

by Suman Mishra on Friday, 18 November 2011 at 01:18


चमकत दमकत नार नवेली, छमक बजावत नूपुर की धुन,
निकसत द्वार से दामिनि सी ज्यों, घूघट पट ज्यों एक पहेली,
जल की धार भर जोहत पिय को हाट गए मन भयो अकेली,
दुःख सुख बाँट बाँट ज्यों बतियन, सखियन सो अब भई दुकेली,
वेणी गुथी ,सुरभित फुलेल सो, महकत ज्यों चंपा या चमेली,
सोंध से खुसबू उडी बयार मैं , लै पराग उपवन माँ ठिठोली,
गावत गीत भयो मगन मन सोचत, पी को घर की नार नवेली,
द्वार बुहारत ,सजी अलापना, गौरी गणेश पूजत अलबेली,



मन की बात अब मनही मैं गूंथत ,कौन सुने दुःख नार हिया की,
पी जब से परदेस सिधारे, ताकत राह हर छनहि दुवारे,
सात वचन फेरन मैं लै के, गयो छोड़ मोंहि वहि भिनसारे,
आज महावर रचन जो लागी, पग मानत ना चलन पे ठाड़े,

स्वपन और मन , सखियन को संग, घर परिवार सब हमही संभारे,
पाती ना आवत, दुःख ही बढ़ावत, नारी को जनम अब हमें नसावत,
एक बरस युग लागत जैसे, सुध की आस ना हमें दिखावत,
दीप जलयो मन आस भयो जन, अबकी बरस पिय  आवत आवत,

तेवर


तेवर 

by Suman Mishra on Thursday,TEVAR 17 November 2011 at 00:17

इन तेवरों पे नज़र है मेरी जाने कबसे,
बडे रंगीन हैं ये रंग बदलते रहते हैं,
कभी सावन की घटा, बरस कर बहार करे,
कभी मोती की तरह बूँद छलक जाती है,

हम तो हैरान हैं इन तेवरों की रंजिश पर,
खुद का ही घर और बना है बेगाना सा,
चढी है त्योरियां बस वेवजह सी बातों पर,
खडे हाँ पैर पर ,और चलते आसमानों पर

हम तो हैरान हैं इन तेवरों की बंदिश पर,
नहीं जाना है घर से बाहर ये ताकीद हुयी,
जहा हम कल थे भागते पीछे जुगनूँ के,
आज ये रोशनी का साथ, हुक्म की तामील हुयी,

हम तो हैरान हैं इन तेवरों के दर्पण से,
ज़रा सी शकल बिगाड़ी समां ही बदल गया,
अब तो चेहरे पे मुखौटा चढ़ा के लोग यहाँ
घर से अपने निकल के लोगों से यूँ ही  मिलते हैं 

Monday 14 November 2011

कभी कभी बादल कुछ जल्दी ही बरस जाते हैं

कभी कभी बादल कुछ जल्दी ही बरस जाते हैं.

by Suman Mishra on Sunday, 13 November 2011 at 21:14

कभी कभी मन की तल्खियां कुछ शोर सी मचाती हैं,
उसकी नाराजगी मन पे असर सा कर जाती हैं,
जाने कितने वादों की दीवार टूट जाती यहाँ,
आज नहीं कहेंगे कुछ मन को समझाती हैं.

क्यों उसकी याद मैं मन डूब डूब जाता है,
क्यों उससे दूर दूर रहके पास आता है,
क्यों उसका नाम यहाँ मन को भरमाता है,
कहीं रहो, कुछ भी करो, बस उसे ही बुलाता है,

बादलों की परत चढी, आसमान छिपा हुआ,
चाँद और तारों का घर भी गुमनाम हुआ,
कहाँ है वो कैसा है, मिलना एहसान हुआ,
जोर से पुकारूं उसे , दिल का फरमान हुआ,

अब तो इन बादलों से राह बनाना होगा,
इनके ही रास्ते उस देश में जाना होगा,
किसीने कहा था अपनी तल्खियों को ख़तम कर लूं,
कभी कभी बादल कुछ जल्दी ही बरस जाते हैं,,,,

Wednesday 9 November 2011

ये स्वप्न भी ना ....


ये स्वप्न भी ना ....

 
श्याम और बांसुरी की धुन का क्या ,वो तो बजेगी,
मधु मधुर सी तान सरगम गीत बन छलती रहेगी,
नूपुरों की ध्वनि त्वरित हो, यमुना के संग जा मिलेगी,
पत्र हों कदम्ब पात, लेखनी उस पे लिखेगी,

कल्पना श्रृगार की हो , रूप रस पराग लेकर,
अधर के रंग पंखुरी से, स्वप्न से उधार लेकर,
टूटना ना लिया वादा, स्वप्न मन विहार तो कर,
एक पल जो पारदर्शी , नेत्र खुले निहार पल भर.

कब रुका है स्वप्न का रेला वो तो बस छनिक सा है,
श्याम के रंग रंगी राधा, रंग नीला हरा क्या है,
प्रतिध्वनित ये बिम्ब जल मैं, छू दिया तो मिल सका ना,
येही स्वप्नों की व्यथा है ...उफ़ ये स्वप्न -स्वप्न भी ना

उस पार से इस पार तक तुम ....लौट आओ अब ,,,(पुकार)


उस पार से इस पार तक तुम ....लौट आओ अब ,,,(पुकार)

by Suman Mishra on Wednesday, 09 November 2011 at 00:32

एक नज़र जो मुझपर ठहरी , दिल और वजूद तुम्हारा हो गया,
फूल सूख कर उडे पंख से, मन रंगों के साथ ठहर गया,
गए तो तुम परदेश ही कहकर , इंतजार जन्मों में बदल गया,
हम हैं तुम्हारे कहा था  तुमने, अब परदेशी बात मुकर गया.

बही हवा पुरवैया सी थी, महक गयी चन्दन की डाली,
मन भुजंग सा लिपट रहा है, यादों की बदली मतवाली,
बरस गयी है मेरे आँगन , महक में मिटटी बने सवाली,
क्या परदेस में सब भूले हो, याद नहीं अंखियों की आली ?
पार करो मन के भंवरों को, बीच समंदर घूम रहे हो,
इधर दिया भी नहीं जला है , वहाँ पे सूरज माप रहे हो,
नैनन में जल भरे भरे से, बूँद ठहर कर बाट जोहते,
दिल की बात अब करू में किससे, लहर पे नौका राह रोकते,
बहुत हुआ परदेश तुम्हारा, लौट के आओ पार यहाँ पर,
एक एक पल सब नाम तुम्हारे, मन है बसा उस पार वहाँ पर,
कौन दिलासा ,किसकी आशा , रुकता नहीं अब पंछी है ये,
पर मन का पिंजरा है यहाँ पर, फर्ज की बेडी बंधी पाँव पर.

Monday 7 November 2011

कृष्ण की बांकी चितवन न्यारी ,राधे हार गयी मन को


कृष्ण की बांकी चितवन न्यारी ,राधे हार गयी मन को

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कृष्ण की बांकी चितवन न्यारी , राधे हार गयी मन को,
स्वर्ण रंग अब श्याम भयो है, राधे भूल गयी तन को ,
नाचत झूमत ,गावत ,निकसत भई बावरी मानत ना,
सबहिन को अब श्याम बतावत, राधे एक  सुहावत ना.

हे कान्हा अब तोरी बांसुरी , जबसे सुनी मन भ्रमित भयो,
तृष्णा भरी है मन में मेरे, एकौ छन मन विछरत ना,
देत दिलासा विहरत इत-उत, नैन थकत अब सोवत ना,
एकै चितवन धन्य भयो मन, मन यो पहेली बूझत ना.

कृपा दृष्टि औ मन है साछी , प्रेम सफल भयो जीवन को,
कृष्ण की बंसी रहेयो पुकारत हरदम नाम यो राधे को,
आवत जात सबैं में बस्यो है श्याम ही श्याम निहारत है,
नाद नाद अब शंख चक्र धरी , राधे कृष्ण विराजत है,,,

प्यार और नफरत दोनों ही जरूरी है.....


 


कोई काँटों से खेला है, कोई फूलों की खुशबू से
मगर ये प्यार का मतलब क्यों नफरत शुरू करता,
ये अंधा प्रेम आँखें बंद, मगर सारा जहां पागल,
जब आँखें बंद हो जिसकी, क्यों देते जान सब इस पर ,

कली बागों मैं खिलती हैं, टंके हैं उसके बालों पर,
कभी पैरों  के नीचे हैं कुचलते दिल बनाकर वो,
यहाँ नुक्सान किसका दिल का दरिया सूखता क्यं है,
येही तो बात नफरत की, मुहब्बत पे ही काबिज है.



बड़ी खामोश नज़रों से , थी देखी राह उसकी जब,
ना आया वो बुलाने पर, लिखी तहरीर उस ख़त में,
कोई शिकवा नहीं करना, मिलन ये हो नहीं सकता,
मोहब्बत ना सही अपनी, मगर तुम दोस्त ना खोना,

येही दफना दो बातों को, शुरू हो नयी तहरीरें,
मगर ये छल कहाँ रखूँ, नफरतों के बगीचे मैं ?
उगेंगे पेड़ अब इनसे , फ़ैल कर बेल लिपटेगी
बड़ी प्यारी सी एक दास्ताँ मोहब्बत की सुनाएगी,


कहीं तो अंत हो इसका, ना नफरत प्यार का हिस्सा,
ये सौदा कर मोहब्बत से , वफ़ा से मिल के कायम कर ,
बड़ी उम्मीद रिश्तों से, नहीं करना मना फिर तुम,
ये जज्बा सांस की थिरकन से जुड़ता जन्मों जन्मों से,

Saturday 5 November 2011

अभी अभी एक लम्हा गुजरा


अभी अभी एक लम्हा गुजरा

by Suman Mishra on Sunday, 06 November 2011 at 01:08

अभी अभी एक लम्हा गुजरा ,जाने कितने रंग उकेरे,(आरम्भ ..इस भाषा से//बाकी सब श्याम रंग)
एक कहे भई श्याम की राधा, एक रुक्मिणी के पग फेरे,
एक देत मीरा को दुहाई , एक गोपियन के रंग बिखेरे,
कोऊ कहे सब श्यामल श्यामल, जित देखो तित श्याम घनेरे

प्रीत की रीती ना जानत कोऊ, एक रंग आंवत, दूजो छावत,
श्याम की राधा सब जग जानत, काहे प्रीती को झूठ बतावत,
मधुर अधर लय बांसुरी बाजत, स्वर लहरी पै नाच नचावत,
वाकी मर्जी राधा को संग, अगले ही छन कोऊ और रिझावत,

नेह लगाय लियो कान्हा से, मुरली मनोहर नाम  बतावत,
द्वार खडे है सुदामा को गेह भरे भरे अश्रु बहावत,
प्रेम की मदिरा श्याम नैन में, जान सको कछु भेद जनावत,
जगत में रूप को राशी कहो जन, ऐसन रूप तो नाही बनावत

Thursday 3 November 2011


कभी कभी मन खुद को भी ठुकरा देता है,,,

by Suman Mishra on Tuesday, 01 November 2011 at 12:06

हाँ कुछ ऐसा ही होता है, क्या ये सच है बोलो तो ?
मन ही मन का दुश्मन बनता -क्या ये सच है बोलो तो ?
मन ही  मन से द्वन्द है करता -क्या ये सच है बोलो तो ?
उसके दुःख में  खुद को पाता -क्या ये सच है बोलो तो ?

कभी कभी  मन पत्थर बन खुद को ठुकरा देता है यूँ,
चलो हटो अब परे ही रहना , बात ना करना मुझसे तुम,
मन ही मन को समझाता है , क्या कहते हो सोचो तो,
मन ही मन को डांट लगाता , कहता मन को रोको तो,

कभी कभी मन चलता पीछे उन अतीत के आज को मान
नहीं भूलता बीते पल को ,मन को ठगता सच को जान,
क्या लौटेंगे बीते पल या , चला गया वो आयेगा ?
क्या मन को मन देके दिलासा सच को समझा पायेगा ?


कोई नहीं समझ पाया मन ये तिलस्म में बंटता है

इश्वर को दे धोखा मानव खुद को हरदम छलता है,

मन से प्यार बढ़ा कर फिर वो प्यार अधूरा रखता है,

नहीं पूर्ण वो कर सकता मन ,खुद ही मन से डरता है


 

हमने तो इतना जाना है बस खुद से ही प्यार करो,

स्नेह दुलार के भागी बनकर, मन का खुद सत्कार करो.
जो है दूर उसे तुम खींचो , प्रेम डोर ना छोटी हो,
मन के तारों से झंकृत मन, मन ही मन सरगोशी हो.
ऐसा भी क्या जीवन में हरदम यूँ बंध कर रहना है,
मीत नहीं पर , गीत बहुत हैं सुर लहरी में बहना है,
ये बहाव जो प्रबल मधुर सब इसी मोह में आयेंगे,,,
पर कुछ बाकी खाली पन्ने कभी नहीं भर पायेंगे,,