Sunday 28 December 2014

एक विहान और आगे.....? अस्त के बाद उदय

बचपन में जब कभी  Drawing Competition होता था हम बडे जोश से शामिल होते थे ,  उनमे कुछ विषय में एक विषय मेरा मनचाहा विषय होता था,,,,scenery ..किन्ही खूबसूरत दृश्य के रंगों को अपनी तूलिका के चंद रेशों में समेट कर दिए गए drawing पेपर पर विखेरना ,,,और फिर क्या जहां शोर शराबे लडाई झगडे के बिना हमारा गुजारा होना मुश्किल होता था वही शांति छा जाती थी,,,हर बच्चे के चेहरे पर छाई मशगूल पने को देखते ही बनता था,,,,और अधिकतर पन्नो पर उगते ढलते सूरज को दिखाना एक परंपरा के तेहत होना ही होना होता था. ये श्रंखला हर वर्ष निभाई जाती है . सूर्य अस्त और सूर्य उदय ,,,सूरज तो वही है !

मगर हमारी नयी आशाएं, नया विश्वास  फिर से जन्म लेता है, एक वर्ष नहीं एक युग का अंत समझकर हम फिर से पुरानी राहों पर चलना शुरू करते हैं ,, इश्वर भी मुस्करा कर मान लेते हैं ...चलो येही सही ..कुछ अच्छी सोच के साथ बदलो तो सही.... :-) 






कल सूर्य ढलान पर था 
मैंने कहा भी ढलान पर मत जाओ 
माना ही नहीं और ढुलक गया
मैंने भी कुछ नहीं कहा...पता था वापस उठेगा 

कुछ समय बीता ही था
वो लौट आया था शायद
छुप कर हरीतिमा ,नीलिमा के पीछे से
हरीतिमा ....पेड़ों के झुरमुट के पीछे से 
नीलिमा ..सागर की चादर के नीचे से 
झाँक रहा था सूरज पूछ रहा था आऊँ ? 
मैंने कहा मुझसे क्यों पूछते हो ..
मुझसे पूछ कर लुढके थे ..? 

चलो अब आ ही गए हो तो ..
अपनी पहचान बताओ...तुम वही हो ?
और सौगंध लो ..पूरे बरस फिर से ,,
धरती के ऊपर प्रकाश देते रहोगे ..
..

सूरज ने हंस कर कहा ,,अरे नहीं कभी नहीं मैं तो शाश्वत हूँ ,,,,हाँ तुम कहीं मत जाना
मेरा इसी तरह हर वर्ष स्वागत करना,,,
मेरी सौगंध मत लो...मेरा आशीर्वाद लो 


मेरी रचना ही इस धरती के लिए हुयी है 

आखिर ये मुझसे दूर हुयी तो तुम मानव के लिए
मैं भी हर शाम सुबह इसके अंक में छुपता हूँ
अपनी सारी गर्मी आसमान में छोड़कर
कुछ लालिमा से लिपट कर 


मेरा अस्त होना और उदय होना शाश्वत है
तुम मानव ,,,,,,दृढ हो अपने पथ पर ,,,
नए वर्ष की शुभकामनाएँ तुम्हें ,,,
मुझे नहीं,,,,मैं ही तुम हूँ ,,,तुम ही मैं हूँ ,,

 

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