Thursday 9 February 2012

पागल मन


पागल मन

by Suman Mishra on Sunday, 8 January 2012 at 02:02 ·


पागल मन क्यों बौराया सा, खोज रहा जो पास नहीं है,
दूर दूर तक  आहट सुनना , कहरों को एहसास नहीं है,

बादल बरसे, नयन हैं भीगे, नयनो की सीमा से आगे,
एक रेत की नदी है बहती , सूख गए सब नयन के धागे,

बहती हवा उड़ा कर लाई खुशबू उसकी मुझे पता है,
पर क्या पागल मन ये माने , ये सच्चा या मन झूठा है
rr


शब्दों में उसकी ही आकृति, उसे लिखूं या लिखकर सोचूँ,
कहीं छुपी है सीमा रेखा, गति में या शिथिल मैं आकूं


एक बारगी बेचारा मन ,यहाँ वहाँ फिरता पछी सा,
कह लो कुछ भी श्ब्ब्द विकृत सा, सुनता ये बस खुद के मन का,

मैं पागल मन की शाखा हूँ , और डालियाँ झूम रही हूँ,
टूट गयी जो सिरे से अपने, हो प्रवाहमय मै खोजूं उसको.

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