Sunday 30 September 2012

मैंने कुछ कहा क्या

मैंने कुछ कहा क्या 
नहीं तो 
बस पन्ने के खाली पन को देखा है 
शब्द उभरेंगे अभी 
सुन लेना मुझे फिर

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा (PART 1) "बचपन"

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा (PART 1) "बचपन"

by Suman Mishra on Friday, 28 September 2012 at 00:31 ·



सपनो का क्या है रोज ही आते हैं
सपनों  को भी उम्र का लिहाज है
अपनी उम्र के हिसाब से ही दीखते है
फिल्मों की तरह बिना टिकट जाने कितने देखे हैं


किसी बात पर जिद्द तगड़ी थी
जिद्द की एक पगड़ी पहनी थी
नहीं उतारूं जिद्द थी मेरी
अरमानों की लिस्ट बड़ी थी


लक्छ्य स्वप्न में आकर ठहरा
आ आ कर बातें करता था
मैं खुद को महसूस करू जो
वस्त्र पहन वो आ मिलता था



स्वप्न और मेरी मन आँखें
एक बंद एक खुली हुयी थीं
एक धरा पर  बंधी हुयी सी
एक गगन में विचर रही थी


भेद भेद कर चाँद की दूरी
प्रश्नों सी बौछार चांदनी
शब्दों के ये जाल नहीं है
ये सच उलझे बात अधूरी


सुबह सुहानी गीत राग सी
मन झंकृत स्वप्नों की थाह से
क्या है नया आज जो मिलना
या फिर बुने कुछ अलग माप से



मेरे स्वप्न आज तुम जागो

खुली आँख और पग धरती पर

सच कर ही सोयेंगे अब तो
 स्वप्न चाँद सूरज के घर पर.

इक चिंगारी मानव की पैदाइश (विचार श्री प्रतुल मिश्र जी के )

इक चिंगारी मानव की पैदाइश (विचार श्री प्रतुल मिश्र जी के )

by Suman Mishra on Monday, 24 September 2012 at 00:55 ·


इक चिंगारी मानव की पैदाइश ,
विस्फोट ही नहीं हुआ और क्या बाकी रहा
मानव अपने शरीर से ऊर्जा प्रवाहित कर सकता है
सूना है देखा है रोशनी को पैदा करते हुए

दूर दूर तक मानव विहीन धरा एक जंगल सी
कुछ जानवर और खर पतवार
मगर क्या जीवन की सम्रिध्हता झलकी
नहीं क्योंकि मानव नहीं था वहाँ
मगर जानवरों के शोर के बीच भी शांति थी ,,,

एक मानव , दो मानव ,असंख्य मानव,
नारी और पुरुष के दल बनते मानव
कई तरह के रूप रंग वाले मानव
मगर रक्त युक्त वाले मानव

इस जमी को बांटते मानव, काटते मानव
खुद केलिए अन्य को जांचते मानव
प्रकृति की आभा को काटते छांटते मानव
हरीतिमा को जलाते हुए राख बनाते मानव...

कहीं एक पत्थर सा कही ठूठ सा मानव
कहीं रुका सा कही भागता मानव
धरा से परे अम्बर पर  दौड़ता मानव
पाताल की गहराई या नभ की ऊंचाई को मापता मानव

मगर है तो ये भी एक शाख के पत्ते की तरह
आखिर टूटेगा ही अंत में फिर वही हश्र ?
दोहराएगा फिर से जीवन की क्रियाये
अभी तो विभक्त होने की दौड़ में शामिल
बस लगा हुआ है दिन रात,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,अंतहीन......मगर......है तो मानव.....

सलाखें =जेल ..

सलाखें =जेल ..

by Suman Mishra on Thursday, 20 September 2012 at 21:34 ·



सलाखों की तपिश महसूस होती है
बचपन में खिड़की की सलाखों तक का सफ़र
युवा मन दायरे से नापता हुआ
मगर उम्र की अंतिम दहलीज जो इसके भीतर
जज्ब हो कर रह गयी है
सलाखों ने रोक रखा है,


समय की सलाखें  मजबूत होती  जाती है
मन की शक्ति जैसे इनमे समाहित होती जाती है
रोक लेती है उस पार जाने को ये सलाखें
बस येही रहो , हम हैं ना तुम्हारे साथ

प्रेम के कैदी सलाखों के पीछे
क्या मिला उन्हें प्रेम में खुद को डुबाकर
एक मिलन के लिए कितनो की जुदाई
जब सलाखों को मुट्ठी में जकड़ा
तभी अपनों से दूरी का एहसास हो गया

एक हद है इन सलाखों की जिसे जेल कहते है
मगर खुले रास्तों पर भी आसामा की ऊंचाई में भी
सलाखों का जाल बिछा हुआ है
इन्हें लांघना होगा अपने मेहनत के सिक्कों से
नहीं लांघ सके तो फिर सलाखों के पीछे


बड़ी मोटी मोटी सलाखें लगी थी
सभी तरह के इंसानों को बांधती हुयी
उनकी आँखें शरीर से बाहर निकलती हुयी
सबको माप लेने को आतुर थीं

कैसे आजादी मिलेगी इन्हें
रोशनी होकर भी मन में अन्धकार था
वो अन्धकार था उसके परिवार के कमरों सा
बूँद बूँद तेल या एक एक UNIT बिजली की बचत

इन मजबूरियों ने भले इंसान को दोषी बना डाला
और स्वेद और आवेग ने अपराधी घोषित कर दिया
कितनी कोशिश की थी की वो बच कर निकल जाएगा
मगर सूत्रों ने उसे सलाखों के पीछे कर दिया

ऐसे ही आवेग का ज्वार रोज ही इंसान झेलता है
बद्द-दुआओं को परिभाषित करता हुआ लोगों पर
मगर हिम्मत है की वहीं की वहीं उसे कुछ करने नहीं देती
उसे रोक देती है बस शब्द के साथ रहो कुछ मत करना
वरना तुम भी इन सलाखों के पीछे आ जाओगे ,,,,

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·


मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित
एक दावानल सा विखरूं मैं
सोने की लंका तार तार
बस रूप विश्व का बदलूँ मैं

नव वस्त्र पहन कोपल फूटे
हम  स्वप्न से जागे हों जैसे
पहली ही नजर में रूप अलग
जल थल के माने अलग थलग


उल्का पातों की बारिश में
मानव अग्नि सा दहक उठे
हर कदम बढे ललकारों से
हुंकारती ध्वनि सा बहक उठे

कण कण धरती दहला दे
बस अग्नि शिखा बन भास्मित हो
सब ताप राख नव निर्मित हो
जीवन का नया स्वरुप सजे


अब अग्नि फूल बन धरती पर
स्वर्णित आभा मदमाती हो
जलना होगा सबको पहले
जीवन की चाह से आप्लावित 


मैं बिखर विखर जाऊं जग में
माना ये ताप का उद्द्बोधन
मैं अग्नि की वीणा से झंकृत
दूं बदल विश्व हो आह्लादित ,

चिंतन कुसुम

चिंतन कुसुम

by Suman Mishra on Sunday, 16 September 2012 at 16:32 ·



चिंतन कुसुम कुम्हला गया था
कल उसे देखा था खिलता हुआ
सूरज को निहार रहा था
अपनी कोमल पंखुरित आँखों से

माना की सूरज प्रबल था
हल्का सा लाल पर सबल था
खुमार था आँखों का वो
वो पुष्प भी तो अटल था


वो झड़ गया था ताप से
उफ़ ! तक नहीं, चुपचाप से   
अपनी दिलेरी में रहा
ना अंत पश्चाताप से


चिंतन कुसुम कुसुमित करू
मानव परिधि में ही रहूँ
कूंची कलम में छिपा है
शतदल से कर्जों को भरू

सूखे हुए बदरंग से
खुशबू उडी सब छोड़ कर
लाऊँ कहाँ से वो सबा
सिल पंखुरी जीवित करू



कभी ना देखा था मैंने
उनकी तरुनाई सुबह सुबह
लाल सूरज के सामने इठलाना
निमीलित आँखें ,खुमारी से तंग


खिड़की से वो मुझे बुलाते थे
मेरी तुलिका की सोच से आगे
उनके रंग जो सूरज भी आत्मसात करले
मेरे चिंतन कुसुम मैं आ रही हूँ

पतिता

पतिता

by Suman Mishra on Saturday, 15 September 2012 at 00:23 ·



आह ! फिर "धिया"  जन्मी क्या  ब्यथा थी?
एक अंतराल के जन्मों की कथा थी वो ?
बस येही ना की जन्म तक अज्ञात थे सभी
एक पतिता का भाग्य या श्रधा से जनी थी

कुछ दिन माँ का आचल छुपा लेगी चेहरा
समय प्रवाह मय फिर वो बांधेगा सेहरा
कदम उल्लास मय , पिया की आस मय
लांघ देहरी गयी , पाकर चौखट नयी

खुशबू की बात हुयी, नया दिन रात नयी
तितली भौरे भूले, मन में बरसात हुयी
आज फागुन का रंग , कल था दीपों का संग
भूल बाबुल का घर, बात कुछ ख़ास हुयी

समय ने मात दिया, उसने ना साथ दिया
अब तो दीवारें हैं , पलकों ने बात कही
दूर तक भेदती हैं , रस्तों से पूछती है
डोली से लाया जो , क्या उससे मुलाक़ात हुयी ?


मन तम को वरन , रस्ता दुर्गम
अब चल दे तू, गह उसकी शरण
सब पार  , ये आँचल तार हुआ
हर स्वप्न ख़तम , नहीं सार हुआ

एक आस बची, हल्की हल्की
कितने पथिकों की ,पदचाप सूनी
पति की "पतिता" ये  नारी नहीं
लेखन विधना , सब उसकी कमी


वो रमता है , सब रूप लिए
पतिता अंजलि में अश्रु भरे
अब उसकी खोज पग छाले पड़े
बदली ना ज़रा , मन आस लिए..

आकांछा अपेक्छाओं के रेतीले पाषाण हैं (श्री प्रतुल मिश्र जी का विचार)

आकांछा अपेक्छाओं के रेतीले पाषाण हैं (श्री प्रतुल मिश्र जी का विचार)

by Suman Mishra on Tuesday, 11 September 2012 at 11:37 ·



आकांछा , अपेक्छा , रेतीले पाषाण
बिना जमीनी माप के महल
बनते ही चले जाते हैं
अट्टालिकाओं की तरह
ऊंचाई को छूते हुए ,
कभी कभी तो "वो" जिसने ...

आकान्छाओं को गढ़ने की शक्ति दी है
वो भी सोचता होगा ...अरे !
मानव की आकांछा , अपेक्छा
तुम मेरे पास तक आगये ?
चलो अब रेतीले पाषाण की तरह
ढेह जाओ और फिर मानव का उच्छ्वास
कमजोर सा, अशक्त सा , हार जाता है
वो उसके आगे,,,,,,,,,,मगर फिर

इतना भी कमजोर नहीं है मानव

जमा दिए हैं पैर धरा पर
आकान्छाओं के बल बूते पर
रोक सको तो रोक ले मुझको
खाली ना लौटूंगा मैं अब

बड़ी वेवफा साँसें हैं ये ,
इसे वफ़ा सिखलाना है अब
तुमने मुझे बनाया है गर
रेत का प्रस्तर नहीं समझना



तिनकों सा मैं उड़ जाऊंगा
गर मैं रेत के महल बनाऊँ
पर जिसका तल , नीव तुम्हारी 
शायद तुम तक पहुँच भी जाऊं


कब तक मानव मैं मानव सा
मेरी आकान्छाएं ढेह्ती सी
चलो ज़रा ढेह कर ही देखें
वही मिलेगा ढ़हने पर भी

चलो बे-खयाली में ही सही उसका ख्याल करें

चलो बे-खयाली में ही सही उसका ख्याल करें

by Suman Mishra on Monday, 10 September 2012 at 00:49 ·



चलो बे-खयाली में ही सही ,
उनका ख्याल करें
आज शायद सूरज देर से निकले 
खुद ही समय से आगाज करें

इन्तजार ही तो है ये जिन्दगी
पलों को बुहार कर आगे बढ़ा दें 
अब ये चादरें जो बिछी ही नहीं
आज मन के आँगन में करीने से डाल दें

ख्यालों की हिलोरें कहीं शांत हो गयी
उन्हें किसी वजूद का मैं नाम जरा दूं
जामा सिला दूं उन्हें पहनाकर नया नया
उस दोस्ती को मैं दोस्तों में शुमार करू


चलचित्र की तरह यादों का वो कुनबा
निकला हुआ है आज अपने रास्ते पे जो
कुछ याद आ गया जो आज कल में था गुजरा
उसको भी मैं इस कारवां में उतार दूं

कहते है समय भरता रहता है हर जख्म
पर उसकी भी डिग्री इलाज . ला-इलाज है
उस समय से ही पूछ लेंगे सांस कितनी है
अब हर समय मुझे सेहत का ख़याल है


एक दौर था की वो मेरे रु-बरू से थे
एक दौर है ये आज ख्यालों की बात है
कब जेहन मेरा रूठ कर ये कहेगा
अब मैं नहीं इसे ख्यालों से निकाल दो

इस याद की गठरी को कितना बढाओगे
कोई किराए का घर वही रख के आओगे
अब याद आगया वो आज बे-ख्याली में
अपना ही घर बड़ा है उसे लेके आओगे,,,,,?????

चलो अभी बस मौन धरें हम, मन का कोलाहल शांत करें हम

चलो अभी बस मौन धरें हम, मन का कोलाहल शांत करें हम

by Suman Mishra on Friday, 7 September 2012 at 00:56 ·



चलो अभी बस मौन धरें हम
मन कोलाहल शांत करें हम
बहुत विकल मन गरल पान सा
अमिय अधर पर आज धरें हम


कोई अनुकृति नहीं तुम्हारी ,
कोई रूप रूबरू  कैसा
कैसे मन ये आकृति खींचे
रंग तूलिका मन को झांसा




मन की एक तरंग को रोकें
भाव नहीं यूँ बहने पाए
कोई लहर पास आ  छू ले
मन महीन सा विखर ना जाए


गाँठ लगा कर इसे रोक लूं
अधर सिले हों, नयन मूँद लूं
कुछ मौनीत शब्दों के गान से
उसके स्वर में खुद को रोप दूं



मौन है संचित कितना मन में
कितनी बातें जज्ब हो गयी
मगर एक लय उस पंछी की
मेरी आँखें सब्ज कर गयी

अन्धकार से लड़ता मानव
कितने  दिवस निभा पायेगा
एक मधुर स्वर या हो क्रंदन
क्या उपहार वो ले जाएगा,
              ****

उस अनंत विन्दु की पहचान दो कहाँ है वो

उस अनंत विन्दु की पहचान दो कहाँ है वो

by Suman Mishra on Wednesday, 5 September 2012 at 00:42 ·


बहुत सुना उस युग गायक को
जिसके स्वर से मेघ थे बरसे 
बहुत सुना उन रागों को भी
इश्वर भी रो पडा था दुःख से

कहाँ आज वो स्वर ऐसा
जो धरती का सीना सिल दे
कहाँ आज वो शब्द मंजिरी
विरानो में पुष्प बिखेरे

उस अनंत विन्दु का परिचय
हमें बता दो हम खोजेंगे
वही रूप उस युग का लायें
जिसके रत्न नहीं मिलते हैं

वेद कौन सा पढ़कर जो
बन जाता है त्रिभुवन दाता सा
किस श्लोक से सांस है मिलती
लौट आता जो छोड़ के  जाता

किस ग्यानी का कहा मैं मानू
जो बतला दे कल क्या होगा
या वो समय रोक कर पूछे
समय आज तक क्यों ना बदला

वो अनंत की सूई कैसी
टिकी कहाँ पे किस मसले पे
कब ये धरती स्थिर होगी
सूर्य की किरने भटकेंगी फिर

प्रश्नों का है एक पुलिंदा
मन मथता है मन को हर दिन
सुदिन कौन सा पल निश्चित है
किसकी बातें लगती दुर्दिन

वो जो प्रश्नों की बौछारें
करता था हर दिन हर पल छिन
मुस्कानों के पीछे छिपकर
दे देता हर उत्तर हर दिन

आज पुष्प है रखा मैंने
ना कुम्हलाये तब ये  कहना
स्याही सूख रही है अब तो
शब्द अनंत विन्दु है लिखना  ,,,,,

पंखुरी से झर गए दल , खुशबू ने क्यों दिशा बदली

पंखुरी से झर गए दल , खुशबू ने क्यों दिशा बदली

by Suman Mishra on Sunday, 2 September 2012 at 15:39 ·

पंखुरी से झर गए दल,
खुशबू ने क्यों दिशा बदली
मन पथ पथिक सा येही है
सब देखता सुनता रहा ...

कभी पथराई सी आँखें
कभी झर झर नीर धारा
कभी कोपल नवलिका सी,
कभी टूटी शाख बाहें



मन सजग है , मन है विह्वल
मन हताशा ठौर ढूढें
कौन सा वो थल है प्रिय वर
मन खुशी के साथ घूमे

रंग दो उसको दल जो टूटा
शाख से निर्जीव होकर
नए रंगों से मिला जो
बन गया वो अलग सा पल



इस धरा से तोड़ नाता
चल दिया जो इस जहां से
अलग सा कोई जहां क्या
बना है जो उसे भाता ?

लौट कर आयेगा वापस
मन तरंगें खींच लेंगी
रास्ता भूला है कुछ दिन
घर का रास्ता ढूढ़ लेंगी 

लोग कहते हैं यथार्थ से परे का धरातल......येही धरती और जीवन है या जीवन से परे के धरातल का क्या रूप होगा,,,,शायद जीवन की अंतिम सोपानो के साथ उस धरातल पर अपनी पैठ बनाने के लिए इंसान जद्दो जेहद में कुछ कुछ समझने लगता होगा मगर वो प्रतिबंधित जिसे दैविक प्रतिबन्ध कहते हैं ,,,,खुलासा नहीं कर पाता होगा,,,,,,,

परी कथाओं सी यादें , शूलों सी बन जाती हैं

परी कथाओं सी यादें , शूलों सी बन जाती हैं

by Suman Mishra on Sunday, 2 September 2012 at 12:04 ·

 

परी कथाओं सी यादें ,
क्यों शूलों सी बन जाती हैं ,
कुछ हलके फुल्के छन जैसे
संधानित सी हो जाती हैं

बस एक याद और शूल समीर
यूँ रोम रोम में बस जाए
हर सांस का आना दुर्लभ हो
जाने पर भी पाबंदी हो .

 हर दिवस सूर्य का कुछ पल ही
रक्तिम स्पर्श दिखाती है
कुछ छन को जो गर भूलो तुम
फिर दिवस ज्वलित कर जाती है


कोई सौन्दर्य नहीं सुंदर
इसके पीछे ये काया है
वस्त्रों से आच्छादित कर देखो

या फिर बिन पोषण ये माया

कैसा होगा उसका हर दिन
जो समझ गया था उस पल को
कर विदा सभी को जाना था
शब्दों से  हर मंथन  उसका !!

स्पन्दन शब्दों में ढला हुआ

मैं उसको गढ़ कर देखूं  जो 
आकृति बनती बिगडती है
यादों के शूल से विन्धा  हुआ,,,

मुझे फूलों से मत तोलो,मगर पत्थर भी मत मारो (असमय अंत का दर्द )

मुझे फूलों से मत तोलो,मगर पत्थर भी मत मारो (असमय अंत का दर्द )

by Suman Mishra on Friday, 31 August 2012 at 00:41 ·


मैं एक जरिया हूँ शब्दों का
मुझे वो बात कहने दो
सत्य हैजो मगर कटु है
आइना साफ़ दिखने दो

मैं वो आवाज हूँ जिसको
हवा ने भी रोका रास्ता
कोई ध्वनि ही नहीं आयी
मेरी कोशिश है बाबस्ता



महकता था मैं गुलशन में
लाल सयाही ना बनना था
खिलने की बात सुनते ही
मुझे बरबस ही तोड़ा था

मगर अब मेरे आंसू से
लिखे जो शब्द मेरे हैं
रहा घुट घुट के जीवन भर
ख़तम पन्नो का रोड़ा है

ख़तम होकर हूँ मैं जन्मा
शब्द को कितना मारोगे
ये वो शय है की जीतोगे
मगर हिम्मत से हारोगे

शब्द में शब्द जुड़कर मैं
नयी आकृति तराशूंगा
मुझे ना देख पाओगे
मैं सबको खुद में लाऊँगा,

मेरी अंतिम इबादत ये ,
कोई भी अलग मत करना
मुझे मत फूल से आंको
मगर पत्थर भी मत कहना ,,,,,

मन का शिलालेख

मन का शिलालेख

by Suman Mishra on Thursday, 30 August 2012 at 18:10 ·



होंगे प्रस्तर के शिलालेख ,
पर मन का लेख कहाँ लिक्खा
सदीयों से बाँट रहा मानव ,
खुद की बातें बस शब्दों में

कितने पन्नो पर लिखा गया
जीवन का हर पल अंकित सा
कुछ बात रही मन की मन में
कुछ शब्द हवा में बिखर गया..

कुछ बने वेदना स्वर मंडित
कुछ सुर लहरी की तान बने
कुछ रास रंग की गाथा से
ऊंचे लोगों की शान बने

गाथा उसकी जो अमर हुआ
इतिहास वही जो बीत गया
पर सांस की बातें करनी है
हो शिलालेख लेख बस जीवन का


जीवन के बाद पहचान कहाँ
वो पकड़ नहीं सकता सांसें
स्वर के आलाप तो ऊचे थे
पर तार नहीं थे  साजों में

अब तहरीरों की गाथा में
हमने बांधा है संयम को
कुछ नया नहीं बस पल ढलते
बन जाते हैं वो शिलालेख

वेदना के पुष्प हैं ये,,,,सूख कर कांटे बनेगे,,,(आदरनीय श्री रविन्द्र सर की याद में )

वेदना के पुष्प हैं ये,,,,सूख कर कांटे बनेगे,,,(आदरनीय श्री रविन्द्र सर की याद में )

by Suman Mishra on Sunday, 26 August 2012 at 13:57 ·



वेदना के पुष्प हैं ये , सूख कर कांटे बनेगे
पंखुरी का रंग छूटा, नेह मन से रहा रीता
अब कहां खुशबू बसेगी, टूटते दल सा दिखेगी
नीद की चिर अवधि सा ही, ये भी मुर्झा के गिरेंगे


सारे  रिश्ते रेत से थे, निकले हाथों से फिसल के
डूबना है सोचकर ही साथ छोडा तिनके ने भी
डोर उसकी दिशा अपनी, खेल सारे उसके न्यारे
पाले में हम कहाँ ठहरे , हर विधा का वो खिलाड़ी

हर दिशा बादल से ढक दो , ग्रहों को भी मात दे दो
खेल खेले शर्त अपनी , जीत अपनी वो ही हारे
क्यों बनायी देह उसने , पांच तत्व और कुछ अंगारे
ये क्रिया अब सीखनी है गए को वापस बुला ले (हम)

मैं ने बोला मैं ना जाऊं, क्यों धरा नश्वर बनाऊं
उसकी बातें थी तिलस्मी, आज ये क्यों गीत गाऊँ
था व्यथित जीवन को लेके, मर्म मैं ना समझ पाऊँ
अब मिले हैं पंख मुझको, मत बुलाओ मैं ना आऊँ

मैं लड़ा था जाने कितना , तब मिला किश्तों में जीवन
सांस कम थी , विरहिणी सी जोहती थी बाट उसकी
शब्द में बस ह्रास ही था, अंत का एहसास भी  था
क्या करेंगे पुष्प खिलकर, काँटों का संताप जो था


इस कथा का अंत कर दो , कंटकों को भी कुचल दो
माना की ये दर्द देंगे , फिर भी थोड़ा भ्रम ही भर दो
धरा है गर अचल रहती , मैं छितिज सा फिर जुड़ूगा
वेदना के पुष्प सूखे , कंटकों में मैं खिलूँगा,..

दरकते चेहरों को जोड़ने की कोशिश

दरकते चेहरों को जोड़ने की कोशिश

by Suman Mishra on Wednesday, 22 August 2012 at 00:39 ·



खेले होगे साथ साथ मगर
बातें भी होंगी जाने कितनी मगर
हालातों के नयन नक्श बदले अगर
दरक गए चेहरे जाने कितने हिस्सों में

बड़ी खूबसूरत बयानी की थी पहली बार
जाने कितने फूलों को समेटा था लब्जों में
मगर मौसम ने रुख बदला तो ये क्या
तवारुफ़ भी नहीं सामने से गुजर गए

कभी शब्दों के तीर चल गए अनजाने में गर
मैंने टांक दिया जो पैबंद बन गए
कितनी भी दूरियों का रस्ता बना दिल में
हम ने वही छोटे रस्ते का था रुख किया


तनहा तो ये जहां कहे वो कहे जो  कहे
हमने तो जख्म पे कई मलहम लगा लिए
कितनी भी सरगोशियों जो तीर सी लगी
एक हंसी की वो ढाल ने परदे गिरा दिए..


एक मर्ज है इंसान यूँ ही खुद को बांचता
आवाज मगर घुट के अन्दर ही जमी है
कितनी ही चीख गूँज कर देती है दुहाई
या खुद की  ही तस्वीर वो  रस्तों पे पडी हो

क्या मिल गया वो अक्स ?जो उसने था बनाया
या  धुल बवंडर से मिली खेल कर गयी
लहरों की वजह  मिट गए सारे ही निशाँ यूँ
बस दिल से बनाया था साहिल पे बैठके

ये आखिरी निशाँ बचा जो खून का ही था
अब बोलो की कहेगा वो अपनी दास्ताँ
कितने उबाल आये थे जब जिस्म में बहा
अब रह गया दागों की तरह मौन छाप सा

कहते हैं लोग क्या कहा है मैंने यहाँ पर
अखबार पढ़ के देख लो हर दिशा की खबर
ये भी उसी के रंग में रंगी तहरीर सी
एक तरफ टुकड़े जिस्म के एक तरफ है परी