Sunday 18 May 2014

एक ख्वाहिश थी मेरी ,,,,,,"इसे कविता मत कहना "

एक ख्वाहिश थी मेरी ,,,,,,"इसे कविता मत कहना "

31 October 2012 at 09:38

एक ख्वाहिश थी समुद्र से आँखें मिलाऊँ,
उसकी अथाह जल राशि में खुद का अक्स देखूं ,
उसकी तरंगों में खुद को लपेटू ,
उन लहरों को चादर की तरह अपने ऊपर ओढ़ कर देखूं ,
मगर ये मेरी एक ख्वाहिश थी और है "इसे कविता मत कहना "

ख्वाहिशें बहुत सुंदर होती हैं पूरी होने के पहले ,
बाद में तो लम्हों  में तब्दील होकर यादों में बस जाती हैं
समुद्र की लहरें खूबसूरती की मिसाल, शोर करती हुयी , दंभ तो है ही
दंभ क्यों नहीं होगा.,,,समाचारों की सुर्खियाँ चारों तरफ से  महाशक्ति (अमेरिका) को घेरती हुयी
आवागमन को रोकती हुयी,,,क्या प्रलय के दृश्य का छोटा सा उदाहर्हर्ण
उनका अंश , हमारी जमी भी तो इनसे आच्छादित है
हे ! शिव मेरी ख्वाहिश थी अपनी जटाओं से गंगा के प्रवाह को और छोड़ो
पतली धारा को विस्तार दो,,,,और इस खारे समुद्र,,,,को खुद की जटाओं में उलझा कर रख दो,,,,
काश गंगा के निर्मल जल में डूबता मनुष्य तुम्हें देख तो सके,,,अंतिम निर्णय करने वाले को....
" इसे कविता ना कहना "



वो फूट फूट कर रोई थी,,उसे जीवन में संघर्ष करना है
अपने क़दमों पर विश्वास था ,
मन पर नियंत्रण था, कोई डिगा नहीं सकता,
माँ के स्पर्श का अभिमंत्रित आशीर्वाद उसकी शक्ति था
पिता का वात्सल्य स्नेहित भाव उसकी दृढ़ता थी,,,

जीवन के कठोर धरातल पर उसका पहला कदम
इश्वर की नजदीकियों का आभास , कुछ अतरंग सा रिश्ता
जीवन के अलग अलग परिप्रेछ्यों का सामना
समाज में अलग अलग चेहरे, एक आवरण सा लपेटे हुए
कभी देखने की कोशिश भी की मगर वही घिनौना चेहरा
समाज की कुरूपता ,,,,हर इंसान अपनी कुरूपता को छिपाता हुआ सा
कभी ना कभी ये आवरण तो उतरेगा ही,,,साँसों को रुकने दो ,,,,बस
हे ! इसे कविता ना कहना




खूबसूरत सा जहां ,,,एक धरातल के बाद दूसरी जमी
अपनी जमी का एहसास ,,,,हरी दूब की कोमलता का एहसास
कुछ लोग अपने अपने विचारों से इसे समझने की कोशिश में
मगर ये एहसास बहुत ही अलग सा, अपना सा, अलहदा सा
रहस्यों की परतों सा मगर खुले आकाश के पंछी सा

तरस आता है उनपर जो कभी भी खुश नहीं थे और ना रहेंगे
एक पल को खुद का बन कर देखो फिर कहना
येही तो ख्वाहिश थी मेरी कहना ही पडेगा ,,,,
एक विशेष बात " अंत्येष्टि की आग मन में जल रही थी"
और खुद को ब्य्सनो में डुबाता हुआ मनुष्य,,,ये निर्ममता की पराकाष्ठा
ये क्या जीने देगा उसे अपने धरातल पर कभी नहीं,,,,
"हे इसे कविता मत कहना"



और अंततः...उस कठोर धरातल को मेरा संज्ञा शून्य ख्वाहिश सा शुक्रिया
मेरी श्रध्हांजलि उस धरातल को जिस पर ख्वाहिशों के पुल बनते देखे हैं
मगर ढेह्ता हुआ मनुष्य देखा है, अंतर और वाह्य रूप का मानव
जो स्वार्थ सिद्धि का पुतला है ,,,,
मगर ये खुला आकाशा जो मेरा है,,,सूर्या की लाली का अजब एहसास
मेरी ख्वाहिशों में ऊंचाई तो नहीं मगर सच्चाई तो है
क्योंकि मेरी ख्वाहिशों में स्वप्न नहीं , बे-इमानी नहीं ,,,,इमानदारी है,,,,,जय हो,

           "इसे कविता मत कहना "

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