Friday 18 July 2014

किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,

कुछ तो मर्यादा होती गर 
मानव जीवन के रिश्तों में 
हर लम्हा है विद्रूप सा यहाँ 
कर्मों से गंध निकलती है 

वो आदिम युग तो बीत गया 
ये हैवानो का युग आया 
क्या इसीलिये तुमने खुद को 
सभ्यता का जामा पहनाया 

हर बार पुरुष ? ये पुरुष ही क्यों ?
मेरे भी शब्द अब दोषी हैं 
नारी है शर्मसार तुमसे 
तुमसे ही धरती दूषित है 

अब क्या रक्षा सीमा की हो 
जब माँ की लाज नहीं बचती 
छोटी मुनिया को रौंद रौंद 
ये पौरुष धर्म ही विकृत है 

धिक्कार तुम्हें ओ ! जननायक ( जिन्हें सत्ता मिली है ) 
किस पर अधिकार चलाओगे 
जब लाज शर्म ही रही नहीं 
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,

फिर वही सपनो की भाषा

फिर वही सपनो की भाषा 
आस में डूबी थी आँखें 
था पता वो दूर है अब 
दूर हो रही पदचापें 

भेजना पाती पहुंचकर 
या संदेसा कुशलता का 
हम यहाँ अछे रहेंगे 
बात बस घर में निवाले 

कितनी मजबूरी विरह मन 
अश्रु सूखे हैं कभी के 
प्राण हाथों में लिए वो 
दीप यादों के जलाए 

मौन है बचपन अभी तो 
प्रश्न जाने कितने पाले 
खोज लेगा खुद ही से वो 
माँ का दुःख क्यों वो बढाए 

एक दिन वो लौट आये 
बाँध कर खुशियों के थाले 
फिर परागित सुरभि खिलकर 
गीत में रंग बसंत वाले

अब पत्थरों से खेलना मुमकिन नहीं रहा

 

14 July 2014 at 14:00
अब पत्थरों से खेलना
मुमकिन नहीं रहा 
बचपन का लौटना 
अब ख्वाब रह गया 

गलियाँ थी गुंजार पहले
शोर से बहुत
खामोशी  इतनी हो गयी 
मन बेजार हो गया 


वो चश्मई तालाब
तितली , फूल , और जुगनू 
पत्थर से यारियां 
पलक, मोलू  और माहताब 

पानी में कोई नुस्ख नहीं
दोआबे सी थी चमक 
सपनो में डूबी नीद
गुल्लक में थी खनक  

अब तो नजर उठती नहीं 
सरे आबरू की खैर
मुस्कान लपेटे रहे
खुद से ही खुद को बैर 

कुछ मामले ऐसे की
जन्नत या जहानत 
बस नाम ही सुनकर 
फना इंसानियत का दौर 

वो चौकड़ी भरती है
आँगनो के दायरे
अब  पत्थर नहीं रहे
जिनसे खेलना मुमकिन 

भाई नहीं रहा
बस नाम ही रहा  
राहों में खडा शख्स
अब बदनाम हो गया  

मैं पथ से विचलित नहीं

मैं पथ से विचलित नहीं 
खोज में हूँ अलग रास्ते की 
एक नहीं कई रास्ते 
जो इन्हीं चारों दिशाओं के 
चौराहों से होकर जाती हों 

हम गुमराह नहीं है 
बस कुछ समय के लिए 
भूलना चाहते हैं वो रास्ते 
जिनपर चलकर कदम लडखडाये 
मगर उनकी गिरफ्त से 
हम ना छूट पाए 

हम गुमशुदा नहीं है 
बस कुछ समय के लिए 
अलग हुआ हूँ अपनों से 
कुछ नयी मंजिल जो मेरी अपनी है 
मिलते ही वापस आकर 
सबसे मिल जाऊंगा

क्यों आता है चाँद एक दूल्हे सा बनकर

क्यों आता है चाँद एक दूल्हे सा बनकर 
ले आता बारात रोज तारों की भरकर 
सूरज क्यों फिर रोज अकेला आ जाता है 
शबनम को किरणों के रथ पे ले जाता है 

दे देता है शब् की सारी बूँदें उसको 
खुदगर्जी है कितनी चाँद के देखो रुतबे 
सुबह ओट की सूरज में छिपता फिरता है 
तारों को लपेटकर खुद के संग रखता है 

इस पर भी नखरे हैं इसके जाने कितने 
कभी तिहाई चौथाई में गाल फुलाए 
आता है एहसान दिखाने इकरारों में 
या फिर गायब नामुराद है बेजारो में 

कोई नहीं गीत गाता है सूरज के फिर 
करता है नक्काशी मन भर चाँद सितारे 
दुनिया भी ऐसी है भैया नखरे सहती 
थकी हुयी सी क्या कर लेगी कुछ ना कहती

कभी पूर्णिमा कभी अमावस्या

कभी पूर्णिमा कभी अमावस्या 
हर दिन कोई तिथि और त्यौहार 
मगर ये इंसानों का सब कारोबार 
अबोध सी वो पर कितना अत्याचार 

कुछ लिखो ना ओ ! ऊंचे तबके वालों 
बहुत लिख चुके अब चुप बैठो 
तुम्हारी लेखनी निकम्मी है 
शब्दों की सरहदों के अन्दर रहा करो 

कौन सुनता है अब नज्मो गजलों को 
उनसे उठाये गए अल्फाजों को 
सब दफना दो कहीं गर्त में 
आंसुओं से भीग कर निकल आयेंगे 

चीख लेना अपने बा-अदब लफ्फाजों से 
फोड़ लेना अपनी हार का ठीकरा 
शब्दों की सत्ता से बाहर निकलो तो ज़रा 
इज्जत और आंसू की नियामत कद्र करो

Wednesday 2 July 2014

रिक्त तिक्त सी


रिक्त तिक्त सी ,
अजब उदासी में लिपटी 
देवालय में दिखी थी मुझको 
अश्रु भरे उसकी आँखों में 

मैंने देखा था जब उसको , 
अजब पहेली लगी थी मुझको
फिर सोचा मैंने भी कुछ क्षण
हर शख्स पहेली ही तो है

राज खोलने में क्या रखा है
सब अपने हैं कर्म के मारे
मन की उलझन, ब्यथा जाल सी
ले आती इश्वर के द्वारे

वो ही माया, वो ही काया
त्रिश्नित , तृप्त वही है करता
फिर हम क्या कर पायेंगे गर वो
याचक बन इश्वर को समर्पित

हे कान्हा तुम कब आओगे


काश कदम्ब की छाँव जो होती 
आस पास धेनु रंभाती 
मलय, समीर का मिश्रण सा ले
बूँद बूँद मुख पर टपकाती 

दूर कहीं कान्हा की बांसुरी 
शहद घोल कर मुझे जगाती
अस्त हुआ सूरज भी अब तो
शब्द कपोलित मुझे उठाती

हे कान्हां तुम कब आओगे
यहाँ सुदामा चरित जीव है
तंदुल बांधे घूम रहा मन
बाट जोह कर धुल धूसरित

अभी प्रथा सब बदल चुकी है
कंस हैं जीवित रावण विचरित
मृग जैसे तन भोग भोग कर
मर्यादा है घर की खंडित

मेरी तंद्रा टूट रही है
वही भ्रमित जीवन है आगे
थकने दो ये तन अब निर्बल
जीवन पा सब हुए अभागे

दृश्य समेटे हैं आँखों में



दृश्य समेटे थे जेबों में 
अरे वही ! मेरी आँखों से 
कुछ गायब है खोज रही हूँ 
शायद कहीं गिरे होंगे वो 

कुछ धुंधला अवशेष है उनका 
अरे वही ! मेरी आँखों में
एक वस्त्र में लिपटी काया
थी अनभिज्ञ गिध्ह नजरों से

एक छवि जो हिलती डूलती
अरे वही ! जो मैं थी विस्मित
था परिधान एक नारी का
मगर पुरुष गज गामिनी बना था

एक ध्वनि जो गूँज रही है
अरे वही ! मेरे कानो में
धूल में लिपटा था अबोध सा
बेच रहा था उज्जवल साबुन

वो पगली जो चीख रही थी
अरे वही ! थोड़ी सी पी कर
सूना वही थी कुछ दिन पहले
दुल्हन बनी किसी एक घर की

एक बड़ा सा चित्र टंगा था
अरे वही ! चलती राहों पर
पेड़ से लटका माला पहने
जेल से निकला कुछ दिन पहले

बाट और मिलन


मैं मिलन की बाट में हूँ 
तुम विरह के गीत गाना 
हर लहर पर नाम लिखकर 
अपनी पाती भेज दूंगा 

सांस भरकर पूछना तुम 
मेरे वाहक से ज़रा तुम
वो पथिक लम्बे सफ़र का
मेरी पाती बांच देगा

पृथा के पग संग मेरे
लगी माटी अंग मेरे
लौट आऊँगा तुरत ही
बात पर तुम आस रखना

मैं निनादित नाद से हूँ
अधरों के परिहास से हूँ
तुम ज़रा होठों से छू कर
इसको अपने पास रखना

कुछ नहीं बस शून्य ही है
प्रेम अब तक मौन ही है
है बड़ी विकराल लहरें
कर्म की पतवार रखना

माया और मैं


माया कहते हैं मिथ्या है 
फिर हम क्यों पापी बनते हैं 
रोज वो गढ़ता नया रूप एक 
हम खुद पर ही मर मिटते हैं 

मिथक और ये मृषा है जीवन 
मगर अहम् के पाले में हम
पग तल की जमीन ना अपनी
स्वप्न जीत लंका लायेंगे

क्या कुछ दीनारों का भोगी
कर्म का राजा बन जाता है ?
या फिर खुद के लिए अंत में
राजमहल संग ले जाता है

क्या कुम्हार जो चाक घुमाता
मिटटी से यारी है निभाता
मगर वही फिर लेना देना
अंतिम साँसों में रह जाता

मैं मेरा और कुछ ना तुम्हारा
तोर मोर का सगा ज़माना
देखेंगे आगे क्या होगा
डोर में सब हैं पृथक कहाँ है