Saturday 17 December 2011

फूल जो सपनो में बिखर जाते हैं

 

by Suman Mishra on Saturday, 17 December 2011 at 16:25
 
फूल जो सहेजे थे कॉपी के पन्नो में ,
एक अलग सा निशा ,यूँ ही  महकता है ,
अभी भी पंखुरियां जुडी हुयी टहनी से,
रंग पर उसका ज़रा सा मटमैला है,

किसी ने पूछ लिया ये किसकी यादों का,
किसकी निशानी ये , किसका ये तोहफा है,
अरे नहीं !कुछ भी नहीं ,ये तो बस फूल ही है,
ऐसे कहीं गिरा मिला, दे दिया घरौंदा है.


सपनो से बात शुरू, पहुंचे हम जाने कहाँ,
ओर नहीं  ,छोर नहीं, स्वप्नों का अजब जहां,
पन्नो में पंखुड़िया दब कर सुरछित हैं
स्वप्नों का खुला जहां इधर उधर उडती हैं,

कितना समेटो इसे कहाँ मन ये रुकता है,
इस जहां से परे परे जाने ये विचरता है,
बन्धनों से मुक्त है ये , सारा जहा अपना है,
पर ना इसे बाँध सकूं, छन में ही बिखरता है


स्वप्न से ना कोई रिश्ता, बिखरने का शौक नहीं,
चिड़ियों के कलरव से आँख खुले बोझ नहीं,
जितनी भी फूल यहाँ स्वप्न ने बिखेर दिए,
चुनना है फिर से उन्हें, फिर से सहेज लिए,

हर किसी के साथ ऐसे जिन्दगी भी जुडती है,
तोड़ा किसी ने और , जुड़ना विधा लिखती है,
होते पैबंद यहाँ , मगर नहीं दीखते कही,
ये जोड़ जीवन का , रिश्तों से महकता है,
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Friday 16 December 2011

सर्दी और जमाना


by Suman Mishra on Friday, 16 December 2011 at 17:43


ये सर्दी भी ना , गर्मी की तपिश में हम इन्तजार करते हैं सर्दी के ठंडक की क्यों ?

क्योंकि....

लाल हरे और नीले  पीले स्वेटर के फैशन में भूले,
क्या  सर्दी और शीत के लहरी, खाते खाते गाल ये फूले,
दिन भर मुंह बस चलता रहता, कितना कुछ सब पेट के अन्दर,
गए पुराने दिन तपते (अलाव) के, अब तो जलता दिन भर हीटर

माँ के हाथ के गरम सिंघाड़े ,आलू, मटर, गोभी के पराठे,
ठंडी हो या , बर्फ गिरे अब, गरम गरम काफी मग प्यारे
माँ के हाथो स्वेटर बुनना, छोटी सी जेबों की मस्ती,
टॉफी बिस्किट भरे हुए सब, कुतर कुतर हम खाते दिन भर,


 
मगर रूप ये भी जीवन का ,बड़ा दुखद सा दृश्य यहाँ पर,
जाने कितने जीवन भूले ,येही गरीबी ब्यथित यहाँ पर,
क्यों जीवन के दुःख सारे कितना कष्ट ये भोग रहे हैं,
येही प्रकृति जो सुंदर दिखती, उसके रूप से  दुखी हुए हैं,

ये तो तयं है जीवन के हर पहलू में अच्छा या बुरा है,
एक तरफ तो मरीचिका सा सुंदर रूप लिए तिरता है,
पर ये दूसरा पहलू  कैसा, जिसे देख हम सब कुछ भूले,
उनके दुःख से परिचित हम सब, पर सब अपने रंग में झूले
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लम्हा लम्हा यूँ पिघलती जिंदगी


by Suman Mishra on Thursday, 15 December 2011 at 15:13


लम्हा लम्हा यूँ पिघलती जिन्दगी ,
एक कम और एक बढ़ती जिदगी,
एक पल खुशियों की बारिश हो गयी,
एक पल में बह गयी ये जिन्दगी,

आज पल ठहरा हुआ है जाने क्यूँ,
हम वही बिलकुल ना बदली जिदगी,
ये सभी घड़ियाँ अलग सी चलती हैं,
हर तरफ अनजान शकले जिन्दगी,


जाने कितने रंग बदले चेहरे ये,
रंग को परवान चढ़ती जिदगी,
उसके गोरे रंग से कालों का दिल,
करती बदगुमान फिर से जिन्दगी,

चेहरे माना कृति है कुछ अलहदा,
दिल बदलकर चल रही ये जिदगी,
कैसे ना हम अलग रस्ते यूँ चले ,
बीच में अनगढ़ सी रेखा जिदगी.
              *****

खुशियों की वारदातों में मुझे शामिल कर लो....


by Suman Mishra on Thursday, 15 December 2011 at 14:27



खुशियों की बरसात जब हो, हाथों में फुहार समेटना,
फूलों को धरती से उठा , हाथों में खुशबू भर लेना,
मूंगफली के दानो को अपनी  स्वेटर के जेबों में भरना
गर्म गर्म कम्बल में दुबककर, ठंडी सी रातों में सिहरना

अब तो वारदात से पन्ने भरे हुए हैं सब काफ़िर हो,
इनकी जगह भरें खुशियों से,मुस्कानों से सब गाफिल हो,
एक बार हो काश ये ऐसा, दुनिया की हर शय हंसती हो,
सबकी हंसी गूजे नभ मंडल, प्रभा कुसुम सपने बुनती हो.


पंख हों भीगे ,उड़ना मुश्किल, बर्फ झरे झर-झर करके,
उन्हें उठा कर रखना उनके गर्म घोंसले भाप के जैसे,
कैसा होगा ये जीवन भी, एक एक पग कठिन परीछा,
दुनिया की नज़रें बस भांपे, इनकी रक्तिम सी सुन्दरता,

हर कोना जीवन का सुंदर, कहीं कमी हो उसको भर दो,
खोज खोज कर दुखी जनों को, खुशियों की सौगाते दे दो,
कदम एक गर बढे अगर तो सह-यात्री बन दे दो रस्ता,
चलो करें प्रण बदलें दख को वारदात खुशियों का बस्ता.                          
                        *****

स्वप्न में श्रींगार कर लूं, दिवस तो बीता है यूँ ही..`



by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 23:50

स्वप्न में श्रींगार कर लूं ,दिवस तो बीता है यूँ ही,
उपमाओं से मन भरा है, अनकहे से प्यार कर लूं,
रात की रानी महकती, सर्प चन्दन से लिपटते,
ये धरा रीति है फिर भी, गगन बिन बादल बरस ले,

उड़ता है मन जाने पंख सा हल्का हुआ यूँ उस गली में,
खेलना और रूठना होता था सखियों की चुहल में,
ये ना जाने की प्रथा में बाँध कर मुझको हैं लाये,
घूंघटों से उड़ता बादल, ना को बरसात भाये.


एक प्रहरी घर की हूँ, पर ना कोई पहरा है मन पर,
सारे बंधन खुल गए हैं, सोचती हूँ आँख बंद कर,
उसकी खुशबू मन बसा लूं, खुद को आत्मसात कर लूं ,
एक चुटकी भर खुशी का अब ज़रा एहसास कर लूं.


ओ रे मन तू बावला है, नियति का है खेल ऐसा,

नारी का मन समझ पहले, हर तरफ रिश्तों का रेला,

ये नहीं तो वो सही जीवन नहीं रस्म जीती,
स्वप्न के श्रींगार से , वो खुश हुयी बस येही रीति.


                      

खुशनुमा शाम और शाम की परछाइयां (दूर जाती रोशनी और याद है तन्हाईयाँ)


 by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 17:34


रात रानी की खुशबू से तरबतर वो पतली डालियाँ,
चाँद से टकरा के चांदनी  का बिखरना यहाँ,
दिन के उजाले में पत्तों के रंग हरे हरे ,
शाम के धुधलके में ये रंग बदलते हुए,

मन के भावों को ठहराव देता भावुक मन,
इन्तजार के लम्हे कहीं कहीं शोर शराबा सा,
कोई सूनी आँखों से राह से बाते करती है,
कोई उसके आने की तैयारी में मशगूल है.


अजीब से परिदृश्य, शाम के पंछी और उनके नीड़
शाखों का भारीपन, हर शाख पर एक शोर सा,
कुछ कठिन सा रास्ता, जिस रास्ते से वो गया,
रोशनी से पूर्ण हो जब आ रहा वो लौट के.


बिछ गया मन रास्तों पे, जिस तरफ गुजरा है वो,
साथ उसके ही रहा मन ,मुड़ के वो जब गया,
ये अगाध प्रेम है , अदृश्य इसके धागे पर,
हर तरफ पीछा किया , तन्हाइयों के साथ बस.

नियति दूरी, मन की है पर मन कहाँ अब अलग है,
जुड़ गया एक डोर से, प्रवाह इसका प्रबल है,
नदी की धारे, ज्यों ज्यों मुड़ के रहती साथ में,
साथ में संवेग से हम शेष या आवेग हो.


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मैं हूँ अभी



by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 16:41

वर्षों से निशानिया कितनी , कितनी शह और मात मिली,
आज अगर हाथों की ताकत कम है फिर भी दाद मिली,
ये हाथों की रेखाएं देखो क्या ये बोलो नकली हैं ?
कभी ना कोई बेच सका इनको क्या ये इतनी महगी है?

हर तन का सौदा करता ये जहां बड़ा बाजार बना,
आज तलक मेरे खुद के अरमानो का पहचान बना,
अब जीवन के बाजारों में हाथ उठा कर फिरता हूँ,
देता हूँ मैं खुद की गवाही, खुद ही हामी भरता हूँ.

जर्जर तन ,निरीह सी आंखे, क्या ये लौटेगा फिर से,
बचपन के देहरी पर जिद कर , प्रश्न करेगा ये सबसे,
वो जिसने खींची ये रेखा, क्या रवानगी लिखी यहाँ,
कोई तस्मे खोल रहा है, वापस आकर घर पे यहाँ.


इन्तजार है मुझे सफ़र का, बैसाखी तुम मत  देना,
चल दूंगा खुद से ही मन के पंख लगा मैं रुके बिना ,
मैं तो अभी  हूँ ये प्रमाण मेरे हाथों को लहराना,
रेखाओं के रस्ते ,गलियाँ घूम लिए अब था जितना,
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ओट के आंसू --जिसमे कोई आवाज नहीं


 Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 16:38


चुपके से रोया था मन जब उसकी बात पे आयी हंसी,
चुपके  से दो आंसू टपके, जब रुमाल से पोंछे थे,
चुपके से दो शब्दों ने फिर आकर थपकी दी धीरे से,
कोई देख ले ना इनको ये, गिर मगर आवाज ना हो.


इनके रस्ते आँखों से ये बिना कहे आ जाते हैं,
आये तो आया ही करे पर याद किसी की लाते हैं,
कुछ भी ना भूला है अब तक, ये तो बस बहने के लिए
कह दो आंसू की बूंदों को, यादों को भी ले जाए.


ये दिल बहुत  बड़ा है लेकिन याद का कोना छोटा है,
उस छोटे कोने में जाने यादों का एक जखीरा है,
इनके आने जाने की मैंने ना की पाबंदी है,
बस आंसू की बूँद में शामिल अक्सों की रजामंदी है,


लगता है अब याद नहीं तो चुपके से सहना कैसा ,

कुछ दिल के टुकड़े हैं रखे, बाँट इन्हीं में रख देंगे,
नहीं वफ़ा के ओहदे होंगे ,बस इनको एक घर दे दूं,
मेरे दिल का कोना जख्मी , यादों को घायल कर दूं?

प्रेम की लहरे ऊंची नीची, धरती और आकाश यहाँ.


by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 12:23



प्रेम की लहरें ऊंची नीची, धरती और आकाश यहाँ,
कहीं छितिज़ सा मिलन यहाँ पर, कहीं वेदना विरह बना,
कुछ फूलों की पंखुरियों सा, महक महक ये मन में बसे,
कहीं गुलाबी ,हलके से रंग. धीरे से कुछ रंग चढे ,

कुछ बातूनी मन होता है, जाने कितनी बात करे,
एक बार भी ये ना ठहरे, थका कभी ना पथिक चले,
एक तरंगित मन की भाषा, मन के शब्द मन में ही रहे,
पढने वाले पढ़ कर जाने कितने किस्से    कहे सुने ,


एक कली बस आशाओं की कली हमेशा कली रहे,
कभी प्रस्फुटित खुशबू से हो, कभी अश्रु की बूँद बने,
क्यों समाज की ये परिपाटी , बंदिश ,प्रेम के साथ रहे,
क्या मन  मर्यादा के स्वर, लोगों तक ये ना पहुंचे ,


क्या जीवन जब प्रेम नहीं है, प्रेम बिना ये पतझड़ है,

कभी पात धरती पर गिरते, मन बिह्वल बस होते ही,
कभी प्रेममय होकर ये मन छूता है अम्बर को यूँ,
क्या धरती क्या गगन को मापे, प्रेम पथिक जब एक बने .
                      *****

पैबंद ...टुकड़े होती जिंदगी, तार सांस के बाकी हैं



by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 01:12

टुकड़े टुकड़े जीवन से कुछ कतरे हैं जो जोड़ना है.,
लम्हे  जो अब रूठ गए , वापस उनसे मिलना है,
जाने कब इस जीवन की संध्या हो विदा हो लें,
कह दो उनसे पथिक खडा है,इन्तजार चौराहे पर

कम्पित तारों की गति अब ,एक सरगम सी सुर कहती है,
शब्दों के अनसुलझे ब्योरे, अपनों से साझा करती है,
कोई उसको गुनता है, कोई  सुनकर हंस देता  है,
अब तो जीवन का अंतिम , मन निर्भय सा ही रमता है.


मन गाथा तो बहुत बड़ी है,ये सप्तक सुर के है करीब,
अवरोही सा लौटा हूँ मैं , आरोहन कर जीवन के नसीब,
बचपन के स्नेह से वंचित सब गंतव्य पे निकल गए
मैं टुकड़ों को जोड़ रहा हूँ, टूट टूट जो बिखर गए.


जर्जर वस्त्रों को पहना अब, फटे हुए को सीना क्या,

हुआ पुराना जाने कबसे, अब तन ये बदलेगा क्या,

इसकी आभा रंगों से है, जो मैंने ही बनाए हैं.
एक गमन जो अब निश्चित है , अभी तलक भरमाये क्यों.

 

पंख लगेगे तब उड़ लेना , अभी सहारा धरती का है....


by Suman Mishra on Monday, 12 December 2011 at 11:36



पंखों का आकार , प्रकार ,कहाँ कहाँ  पर मिलते हैं,
कीमत कितनी, कैसे रंगों से लबरेज हैं ये,
मुलायम,कठोर, खुरदुरे,या मखमली से,
या मन के परवाज जो अदृश्य से रहते हैं .


ये मिले तो मन उड़ान भर ही लेगा हर जगह,
ये मिले तो कल्पना को सार्थक कर ही लेगा,
सपनो की दुनिया से बाहर रंग-बिरंगे पंख,
मुझे बता दो कहाँ कहा पर मिलते हैं ये पंख.

 
मन मयूर के नृत्य के  घुँघरू कौन सा ताल बजाते हैं,
जीवन के रंगों में ऐसा रंग कौन सा रंग दिखाते हैं
अंतिम और प्रारंभ रूप का रंग कौन सा रंग भरे,
इन्द्रधनुष के सात रंग भी मिलके एक हो जाते हैं.

पंख लगेगे तब उड़ लेना अभी सहारा धरती का,
इसी धरातल पर मिलते हैं ,पंखों के उद्गम आसार
मन की शक्ति ,धरातल से लो,पैरों को ही पंख बना ,
अभी सहारा धरती का है, जीवन को तू विहग बना,

 
इधर उधर मन भटक भटक कर क्यों उड़ने की सोचे तू,
कल्पित को आकार बना कर , कुछ स्वरुप तो भर ले तू,
दीपशिखा की कम्पित लौ ,यूँ थर थर करती बायु में,
हाथों के ओटों से रोक लो, ना बुझने दो इसको तुम.

दृढ शक्ति और मन के कपाट ये खुला कहा सा दृश्य  यहाँ,
ज्ञान मार्ग और मन आकांछा दोनों के रस्ते का जहां

पहले इस धरती के कर्जे, पूरे कर के फिर उड़ना,
पंख लगेगें तब उड़ लेना ,अभी सहारा धरती का.


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कल्पना के रंग खुली आँखों से या बंद हों तब ?(नेत्र अगर नहीं तो कैसे..और जिनके हैं ?) by Suman Mishra on Sunday, 11 December 2011 at 19:59 एक गीत सूना था ...आँखें खुली हो या हो बंद दीदार उसका होता है.,,,, अब दीदार होगा तो रंगीन ही होगा, कुछ रंग भर लेंगे , मन की तुलिका से, या यथार्थ की कूंची से जो स्वतः है, कोई बैराग के रंग से रंगना चाहता है खुद को, कोई एहसासों के जीवंत रंगों की परत दर परत चदा रहा है, चलो एहसास तो हो की रंगों के हम कितने करीब हैं, इन आखों के परदे के पीछे , हम कितने जहीन हैं, आँखों को बंद कर चलने की आदत डाल तो ले पहले, या बस ख्याली रंगों की फेहरस्त से ही हम रंगीन हैं ? वैसे खयाली पुलाव और ख्याली रंगों में क्या अंतर है.. शायद शगूफों में खुद को शामिल करने जैसा,जो अपना नहीं अपने घर का बताने जैसा, फिर भी लोग इस ख्याली पुलाव को पकाते और खाते जरूर हैं, अकेले नहीं कई लोगों के साथ मिलकर ,इसमें समय की बर्बादी का इंधन जो लगता है, और एक अकेले का ही नहीं कई लोगों के साथ बराबर से लगता है.... ज़रा कुछ देर जबरन बंद कर आँखों से जहां देखो, कदम दर कदमो पे रोड़े, क्या हटते हैं जरा सोचो, येही एक अलग दुनिया है जहां काला अन्धेरा बस, करो कुछ ऐसा अपनी तुलिका,पहुंचे ज़रा उन तक चलो अब फिर से कुछ रंग को हम भी बना डालें , जिन्हें ना पता हो ये रंग, हम उनकी आँखों में ये डाले, ये वो संसार है ऐसा,जिन्हें ना आँख न प्रकाश, ना जाने क्या वो देखंगे , या बस अनुभूति का आकाश. ये जन्नत और दोजख क्या पता उनको यहाँ आकर, येही स्वीकार है जीवन,थोड़ी हिम्मत,थोड़ी मेहनत, अगर कुछ नाम रंग दे दो, कहाँ अंतर करेंगे वो , क्योंकि सपनो के रंग भी तो खुली आंखो से हैं दिखते खुली आँखें उन्हीं की हैं जिनकी आँखें नहीं होती, पतंगों की तरह विचरण ,डोर उसके ही हाथों में, हमारी क्या विसात जो आँख के रहेते हैं धोखे में, बड़ी कल्पित सी ये दुनिया, आँख को बंद कर सोचें. ******


 by Suman Mishra on Sunday, 11 December 2011 at 19:59




एक गीत सूना था ...आँखें खुली हो या हो बंद दीदार उसका होता है.,,,,

अब दीदार होगा तो रंगीन ही होगा, कुछ रंग भर लेंगे ,
मन की तुलिका से, या यथार्थ की कूंची से जो स्वतः है,
कोई बैराग के रंग से रंगना चाहता है खुद को,
कोई एहसासों के जीवंत रंगों की परत दर परत चदा रहा है,

चलो एहसास तो हो की रंगों के हम कितने करीब हैं,
इन आखों के परदे के पीछे , हम कितने जहीन हैं,
आँखों को बंद कर चलने की आदत डाल तो ले पहले,
या बस ख्याली रंगों की फेहरस्त से ही हम रंगीन हैं ?

वैसे खयाली पुलाव और ख्याली रंगों में क्या अंतर है..


शायद शगूफों में खुद को शामिल करने जैसा,जो अपना नहीं अपने घर का बताने जैसा,
फिर भी लोग इस ख्याली पुलाव को पकाते और खाते जरूर हैं, अकेले नहीं कई लोगों
के साथ मिलकर ,इसमें समय की बर्बादी का इंधन जो लगता है, और एक अकेले का ही
नहीं कई लोगों के साथ बराबर से लगता है....

ज़रा कुछ देर जबरन बंद कर आँखों से जहां देखो,
कदम दर कदमो पे रोड़े, क्या हटते हैं जरा सोचो,
येही एक अलग दुनिया है जहां काला अन्धेरा बस,
करो कुछ ऐसा अपनी तुलिका,पहुंचे ज़रा उन तक

चलो अब फिर से कुछ रंग को हम भी बना डालें ,
जिन्हें ना पता हो ये रंग, हम उनकी आँखों में ये डाले,
ये वो संसार है ऐसा,जिन्हें ना आँख न प्रकाश,
ना जाने क्या वो देखंगे , या बस अनुभूति का आकाश.

ये जन्नत और दोजख क्या पता उनको यहाँ आकर,
येही स्वीकार है जीवन,थोड़ी हिम्मत,थोड़ी मेहनत,
अगर कुछ नाम रंग दे दो, कहाँ अंतर करेंगे वो ,
क्योंकि  सपनो के रंग भी तो खुली आंखो से हैं दिखते


 
खुली आँखें उन्हीं की हैं जिनकी आँखें नहीं होती,
पतंगों की तरह विचरण ,डोर उसके ही हाथों में,
हमारी क्या विसात जो आँख के रहेते हैं धोखे में,
बड़ी कल्पित सी ये दुनिया, आँख को बंद कर सोचें.
                   ******

सीमा के उस पार खिले उस फूल को तुम बस लेते आना


by Suman Mishra on Friday, 9 December 2011 at 13:03



सीमा शब्द ..रणभूमि से तात्पर्य है कठिन शब्द है , बलिदान से सम्बध्ह है ..लेकिन रणभूमि के साथ
जीवन भी रणभूमि है,,,,शायद,,,,

सीमा के उस पार खिले उस फूल को तुम बस तेते आना,
मन मयूर अब पूछ रहा है क्या बादल की दौड़ वहाँ भी ?
चाँद  वहाँ भी ऐसा ही क्या, आधा पूरा, कभी नदारद,
मन सीमा के बढे दायरे , बोलो तो आ जाऊं मैं भी.

हो सकता है दूर बहुत मैं, तुम रन में मैं भूमि के संग में,
येही चलूँ कुछ दूर तलक मैं, रंग जाती ये भूमि रक्त में ,
तुम रक्तों को कम ही बहाना, कोशिश करना,जीत के आना ,
सीमा के उस पार खिले  उस फूल को तुम बस लेते आना,



कभी कभी अग्नि जलती है,कभी कभी हैं बर्फ की बूँदें,
तुम कैसे सह लेते हो सब, मैं परिलछित इन सब से हूँ,
सब कुछ भान मुझे होता है, आस तुम्हारी सह लेती हूँ,
इन्तजार के पल सीमा से, एक एक पल मैं गिन लेती हूँ.

हथियारों की बात ना करना, ये समाज के पहरे जैसे,
इस तृष्णा को बढ़ने देना, अविरल बहते आंसू जैसे,
जीत हार ये शब्द ना लिखना, बस ह्रदय में मुझको रखना,
सीमा के उस पार खिले उस फूल को तुम बस लेते आना



हम जब पुकारेंगे वो मुड़कर आयेगा यह


by Suman Mishra on Friday, 9 December 2011 at 12:15



कागजी कार्रवाइयों में उलझा हुआ है मन
पर शब्द के पन्ने को उड़ा ले गयी हवा,
उड़ने दो हो स्वतंत्र , वो भी खुश ज़रा हो ले,
हम जब पुकारेंगे वो मुड़कर आयेगा यहाँ

बडे रंगीन हैं ये शब्द ,रंगीन पत्तों की तरह,
उड़ते पांखी से इधर उधर रुख हवाओं के,
बदल के मिलते हैं मुझे,अपने रूप रंग में,
मुझे भी पहचानने की कहाँ ख्वाहिश है.


ये तन है शाख और मेरा मन है हवा,
ये मेरे शब्द को ले जाती है ये जाने कहाँ,
नहीं मिलते मुझे वापस जो मेरे अपने थे,
दूरियां हो गयी हैं इनसे इनके भावों से.

कभी मिला कोई पांखी तो पूछ लेंगे पता,
कहीं मिले थे मेरे शब्द , यहाँ उड़ते हुए,
नहीं है शाख पर पत्ते, क्या साथ उनके गए,
नयी कोपल को देख , शायद शाख छोड़ गए,

चलो हम भी तलाश में हैं  काबिल,
एक ही शब्द से औरों का पता पूछेंगे,
हवा का रुख ,महक से मेरा सामना होगा,
पुकार मेरी और वो मेरे सामने होगा.

कहीं सुबह और कहीं शाम की है सरगोशी,
मगर ये दिल कहाँ सुनता है सुबहो शामो की,
इसकी तो जिद्द है की बस मन की बात सुनता रहे,
अन्धेरा रोशनी पे फिर कहीं  ना काबिज हो.                                *****

Thursday 8 December 2011

रहेगा तुम्हारा इन्तजार रहेगा, साँसों के इस पार से उस पार रहेगा..(श्री उभान जी की पंक्तियाँ)

 

by Suman Mishra on Wednesday, 7 December 2011 at 01:30


ये उपरोक्त पंक्तियाँ उभान जी की कविता से ली है मैंने,,,,इसमें जिस इन्तजार शब्द को जिस सुंदर
भाव से लिखा गया है मैंने ये पंक्ति उभान जी से मांग कर  ले ली ...इन्तजार...शब्द अकेला नहीं होता,
इस शब्द के साथ किसी ना किसी का साथ जुड़ा होता है, ये शब्द इतना आसान भी नहीं - इसमें इंसान
के संयम ,धैर्य के इम्तहान लेने की ताकत होती है...इंसान इंतज़ार तो करता है लेकिन परिणाम उसके
हाथ में, आशा, निराशा, मिलन,विछोह ,खुशी ,गम सब इस "इन्तजार" शब्द से जुड़े हैं...फिर भी
इन्तजार में एक खूबी है...जब तक ये ख़तम नहीं होता आशा और संयम साथ नहीं छोड़ते......



इन्तजार -रहेगा तुम्हारा रहेगा ,साँसों के इस पार से उस पार तक रहेगा,
जितनी दूर तक निगाहें रोशनी का साथ दें,
चाहे कितने भी घने तम में अपना हाथ दें,
ढूंढ  लेगा तुमको ये मन ,पास हो या दूर हो,
सांस के इस पार हो या कितने भी मजबूर हो.

बांसुरी की धुन तरंगित ,स्वास से आह्वान हो,
एक शब्द ही पगी है ये ,एक राधा नाम हो,
मोह ,आशा और संयम येही तो रचता है भाव,
युग युगों से एक ही मोहन से राधा नाम हो.


रूप ना बदला युगों से , मैं खडा जडवत यथा ,
हे प्रिये तुम पार कर लो, मेरे जन्मों की ब्यथा,
हस्त की रेखाएं दम्भित, बदलती हैं रास्ते,
तुम चली आना पुकारे मन मेरा  मन द्वार से.

क्या लिखे विधि कथा अपनी, विरह और विछोह के,
शब्द और मन जब मिले हों, नहीं कोई छोर है,
क्या छितिज़ तुम देखते हो, हम नहीं तुमसे अलग,
रात दिन और धरा अम्बर, बाटते अपने सबर (सब्र)

हम लिखेंगे खुद से अपनी प्रेम की परिभाषा यूँ,
प्रेम हमसे शुरू होगा ,अंत की अभिलाषा क्यों ?
मैं एहीं ना डिगा पल भर ,मैं ही अब विस्तार हूँ,
तुम जहां तक देखना, मैं ही तुम्हें स्वीकार हूँ,
                   ******

Monday 5 December 2011

बटुवे की दाल और गोल गोल रोटी

 by Suman Mishra on Monday, 5 December 2011 at 16:17



ये पेंटिंग मेरी सबसे पसंदीदा चित्रों में से है, और शब्दों में श्री रविन्द्र सर द्वारा कहा गया शब्द
माँ की बनायी बटुवे की दाल....क्या खूबसूरती है इन शब्दों में,,जीवन की सारी  बातें इन्हीं दोनों
के आस पास घूमती रहती है,,,आप कहीं भी रहिये, कुछ भी खाइए , कोई भी काम करिए ,,,क्या
रोटी और दाल से छुटकारा है आपको नहीं ना और उसपर माँ के हाथों ....वाह,,,,मैंने ये चित्र अपनी
कई रचनाओं में add किया है ,,,फिर भी जितनी बार देखती हूँ पता नहीं क्यों अजीब सा आकर्षण महसूस
करती हूँ...खूबसूरती, प्रेम, जीवन और जेवण सब तो है इस चित्र में,,,

रात रात भर चाँद को देखा , भूख लगी तो भाग लिए,
क्या कविता क्या भाव यहाँ पर, माँ की रोटी चाँद नहीं.

उसके हाथों की थप थप से दिल की धड़कन प्यार भरी,
माँ ने नहीं खिलाया जब तक, भूख की यूँ हड़ताल रहे,

बटुवे में जो दाल उछलती ,खुशबू मुझे ना भूली है,
गैस और ओवन के दौर में , मन की बात अधूरी है,

अभी कहाँ वो प्यार है मिलता दूरी पे दूरी ही बढे,
माँ तो वहीं उन्हीं पलकों पे रखती हमें ये मन ही पढ़े .
पीली खुशबू दाल की हो या बस एक पुकार हो माँ
दौड़ लगा कर आ जाऊं मैं, दूरी कितने हजार बढे.

                    *****
जाने कब ऐसे दृश्य से रु-बरू हुए थी लेकिन इन दृश्यों में जो
आत्मीयता है वो आज इस आधुनिकता के दौर में कहाँ है,
लोग अपने परिवार में मशगूल , अपनी जिम्मेदारियों में मशगूल,
लेकिन क्या ये स्पर्श जिसमे स्वार्थ का नामों निशाँ नहीं बस उन्हें
हमारे स्वास्थ्य की चिंता, और जाने क्या सपने हमारे लिए,,,
शायद ये मेरी बात आप सबकी बात हो,,,,शुक्रिया...

प्रेम क़ुरबानी का दूसरा रूप है....?

 

by Suman Mishra on Saturday, 3 December 2011 at 12:42

प्रेम और कुर्बानी....किसने किसको दी ?
किसने प्रेम किया , कौन भूल गया  ?
कौन खडा है राहों में, किसी के इन्तजार में,
कुर्बानी और कुर्बान...दोनों ही साथ साथ हैं,

कुर्बानी देकर क्या प्रेम ख़तम हो जाता है,
नहीं ,,,शायद...ये उस कुर्बान होने वाले से पूछिए,,,
किसीसे से सूना था,,,,
घायल की गति घायल जाने....

खैर...प्रेम रक्त के प्रवाह में,साँसों के ठहराव में,
जीवन बस मर्यादित हो, कुछ भी अभाव हो,
चलो दे दिया उसे, सारी खुशी उपहार में
मेरे पास क्या रहा , उसकी यादों के सिवा,


ये भी एक रूप है, प्रेम तो सर्वज्ञ है,
वो जहां मैं भी वहीं, सभी से अनभिज्ञ हूँ,
बात मेरे साथ है, साथ में ही  रहेगी,
बूझना तो बूझ लो, एक पहेली सी है,

एक दर्द एक टीस, एक ही स्वरुप बस,
मन में ही छुपा है वो, मन ही मन अधीर है,
है परे सभी से ये, कच्ची सी बस एक डोर है,
प्रेम में जो हार है, अगले जनम की जीत है....

ये जख्म जिन्दगी की यादों से, हर कदम साथ साथ चलते हैं,

 

by Suman Mishra on Saturday, 3 December 2011 at 00:51

सुना है शब्दों से चोट बहुत लगती है,
वैसे तो विष से बुझे तीरों की दवा बनती है,

एक ख़ामोशी और द्वन्द के आयामों में ,
कुछ ना कहना कभी बस आह ! ही निकलती है

ये बेजुबान है दिल कोई गिला शिकवा नहीं,
इसकी रस्मे भी बड़ी वेवफा निकलती हैं,,,

ये जख्म जिंदगी की यादों से,
एक दूरी से मगर साथ साथ चलते हैं,,

मगर परवाह  किसे, हम तो खुद आवारा से,
सारे जख्मो की फटी पोटली भी सिलते हैं,,,

ओस की बूँद को छुआ मैंने, बड़ी ठंडी सी एक तपिश इसमें

 

by Suman Mishra on Friday, 2 December 2011 at 11:38

सुबह जब ओस की बूंदों  को यूँ ही छुआ था  मैंने ,
बड़ी ठंडी सी तपिश ने मुझे इस तरह जलाया था,
उसकी आहों से निकल कर  अनगिनत लपटें,
उसके जीवन को एक पल मैं ही सुखाया था,

ये क्यों आती है हर रात एक रंग लिए,
हर एक शब् में खुद ही से ढल जाती है,
इतनी खामोशी से आकर ये क्या कहती है,
कोई आवाज नहीं, यूँ ही बिखर जाती है.


मुझे पसंद है तेज गर्मी के सर्द से एहसास,
ये तो रूतबा है जो यूँ ही दिया जाता है,
अपने द्वंदों के नए आयामों को ,
एक सुलझा हुआ रस्ता ही  दिखा जाता है,


कभी कभी  जब कदम  सही पड़ते नहीं,
सीधे रस्तों पे भी ये ऐसे डगमगाते हैं,
कोई तो दर्द जिसे पीने की कोशिश होगी
एक भी घूँट गले से ना उतर पाती है,



कभी इस चाँद से पूछेंगे किस्सा  क्या है,
ज़रा सी बूँद और तपिश से रिश्ता तो कहो,
रात को चाँद की निगरानी में बिखरी रहती,
सुबह सूरज की अगवानी का माजरा तो कहो,

एक आधा कभी पूरा मगर बे-आवाज शहर,(रात)
एक की रोशनी में शोर हैं जज्बातों के,(दिन)
निशा के धुंधलके में दबे पांवों से आती है ये
रोशनी पहलू में ले ,,मगर>>> ये दूर चली जाती है,,,
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जिंदगी सुबह शाम में बंटी क्यों है?

 

by Suman Mishra on Friday, 2 December 2011 at 11:38

रोज आना , रोज जाना और नतीज़ा क्या है,
आँख मैं नीद , रात के ख्वाब का मतलब क्या है,
ये जो जीवन , एक हकीकी बस बयान सा है,
निशा के तम में निश्चल सा पडा रहता है.

जाने कितने सन्देश मन के रास्ते होकर,
ह्रदय की धमनियों को निसतेज किया करते हैं,
वही बयार में उडती हुयी चिठ्ठी की महक
आँख की रोशनी को भेद दिया करती है,


कोई एक बूँद जिसमें रंग नहीं रूप नहीं,
हर एक आकार और रंग में घाल जाती है,
हम एक जिद्द में अड़े  खड़े यूँ ही रहते हैं,
कभी पतझड़ में भी बहार चली आती है,,,

हमें बहना है खुद  अनगिनत प्रवाहों में,
एक भाषा नहीं मन के असंख्य भावों में,
नहीं बंटना मुझे इन रोशनी के रंगों में,
ये तो शागिर्द सारे सुबह की निशाओं के,


एक राही सा ये जीवन जो पथिक नाम मिला,
बस चले जा रहे हम रोशनी के घेरों में,
रोज ही सुबह और शाम यूँ ही गिनते हैं,
कभी गिनती के दिन भी गलत गिने जाते हैं,

बंटे हैं हम, बंटा जहां , बंटा हर लम्हा है,
सबका हिस्सा नहीं दिखता ये एक जूमला है,
कहीं रिहाएशी नहीं जिसे अपना कह ले,

जिन्दगी सुबह और शाम -किस्से दरियाफ्त करे,
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चलो एक बार रोशनी के पार देखें

चलो एक बार रोशनी के पार देखें

by Suman Mishra on Thursday, 1 December 2011 at 11:35

उम्र के लिहाज से रोशनी के मायने बदल रहे हैं,
बचपन मैं देखा तो लौ पर ही नज़र रहती थी,
अब जो देखते हैं तो उस पार नज़र आता है
पतंगों के जले पंखों का मंजर भी दिल दुखाता है,


दीवाली के दिए जले जब एक कतार से पांती में,

दूर दूर तक ज्वाला फटती, मस्ती के धूम धडाकों में,
रोशन मन और राही जब इन राहों पर हंस के चलता है,
अब तो सड़क पे एक खिलौना छूते ही फट पड़ता है,,

सूरज को देखने की चाह में आँखें बंद हो जाती हैं,
अन्धकार में फ़ैल के आँखें बड़ी बड़ी हो जाती हैं,
ये प्रकाश क्या मन के "तम" को हरने में सछम होगा ?
आँख बंद और बुझी रोशनी मन का अंतर्द्वंद होगा.


जहां ये जीवन औना पौना बिका हुआ सौदा जैसा ,
हाथो की रेखाओं पर धड़कन का जाल बिछा कैसा,
मुट्ठी की ताकत से पिसकर, जिन्न चिराग से निकलेगा,
कर देगा उस पार रोशनी, अन्धकार को वेधेगा,
                   *****