Thursday 3 March 2016

एक प्यारी सी मुस्कान

सुबह की गहमागहमी  और रास्ते जाम , बड़ी ही  मुश्किल  हो रही थी अपनी दो पहिया को  चलाने में,  नयी  नयी नौकरी  और  उसपर  जिम्मेदारी का एहसास , रास्ते  में  रुक  रुक  कर  जाने कितने  फ़ोन  को  रिप्लाई  दिया  ,   काम  ही कुछ  ऐसा  था, , किसी को  धन्यबाद  से  अंत  किया तो  किसी  को  बहस  से,  सबको  अपने  काम  को  समय से पूरा  होने  की  जल्दी थी , मगर  हमारे  यहाँ  लेबर  प्रॉब्लम  होने  से काम  की  गति  कुछ  धीमी  क्या बिलकुल  बंद  ही  हो  गयी थी,  माथे  पर  बल  पड रहे थे.

अचानक मेरे बगल  से  एक  कार  गुजरी   और  उसके  विंडस्क्रीन  पर  एक छोटे से बच्चे ने मुझे देखा,  वो और  हम एक दूसरे को  देखते  रहे,  और  वो  मुस्करा  दिया...सच्ची  बोलूँ ,,,एक  मिनट में मेरी  सारी  तकलीफ  दूर  हो  गयी.  हालांकि  वो  कार  तुरंत आगे  जाकर  मुड गयी , मगर उस बच्चे  की  मुस्कान मेरा  पीछा  बहुत  दूर तक  करती  गयी.....

Sunday 28 December 2014

एक विहान और आगे.....? अस्त के बाद उदय

बचपन में जब कभी  Drawing Competition होता था हम बडे जोश से शामिल होते थे ,  उनमे कुछ विषय में एक विषय मेरा मनचाहा विषय होता था,,,,scenery ..किन्ही खूबसूरत दृश्य के रंगों को अपनी तूलिका के चंद रेशों में समेट कर दिए गए drawing पेपर पर विखेरना ,,,और फिर क्या जहां शोर शराबे लडाई झगडे के बिना हमारा गुजारा होना मुश्किल होता था वही शांति छा जाती थी,,,हर बच्चे के चेहरे पर छाई मशगूल पने को देखते ही बनता था,,,,और अधिकतर पन्नो पर उगते ढलते सूरज को दिखाना एक परंपरा के तेहत होना ही होना होता था. ये श्रंखला हर वर्ष निभाई जाती है . सूर्य अस्त और सूर्य उदय ,,,सूरज तो वही है !

मगर हमारी नयी आशाएं, नया विश्वास  फिर से जन्म लेता है, एक वर्ष नहीं एक युग का अंत समझकर हम फिर से पुरानी राहों पर चलना शुरू करते हैं ,, इश्वर भी मुस्करा कर मान लेते हैं ...चलो येही सही ..कुछ अच्छी सोच के साथ बदलो तो सही.... :-) 



Saturday 25 October 2014

मुड़ा तुड़ा सा ख़त सही


वो मुड़ा तुड़ा सा ख़त सही
कुछ यादें इसमें कैद है
ये रहेगी अंतिम सांस तक
इसे खुलने से परहेज है

कभी मन हुआ तो सोचकर
कभी मन हुआ तो देखकर
क्या लिखा है इसमें यादकर
जह्नो में बस अवशेष है

कभी उड़ गया परिंदे सा
कभी खो गया हेर फेर में
मेरे दिल का टुकडा छुपा हुआ
मेरी जिन्दगी का भेद है

कभी अक्स आता उभर उभर
चाहे दिन हो या हो दोपहर
कभी रात के अँधेरे में
शब्दों से मिल मुझपर असर

मैं रहूँ अगर इस शहर में
ये रहेगा मेरे इर्दगिर्द
ये मुड़ा तुड़ा सा ही ख़त सही
मेरे मन के बहुत करीब है 

Friday 18 July 2014

किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,

कुछ तो मर्यादा होती गर 
मानव जीवन के रिश्तों में 
हर लम्हा है विद्रूप सा यहाँ 
कर्मों से गंध निकलती है 

वो आदिम युग तो बीत गया 
ये हैवानो का युग आया 
क्या इसीलिये तुमने खुद को 
सभ्यता का जामा पहनाया 

हर बार पुरुष ? ये पुरुष ही क्यों ?
मेरे भी शब्द अब दोषी हैं 
नारी है शर्मसार तुमसे 
तुमसे ही धरती दूषित है 

अब क्या रक्षा सीमा की हो 
जब माँ की लाज नहीं बचती 
छोटी मुनिया को रौंद रौंद 
ये पौरुष धर्म ही विकृत है 

धिक्कार तुम्हें ओ ! जननायक ( जिन्हें सत्ता मिली है ) 
किस पर अधिकार चलाओगे 
जब लाज शर्म ही रही नहीं 
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,

फिर वही सपनो की भाषा

फिर वही सपनो की भाषा 
आस में डूबी थी आँखें 
था पता वो दूर है अब 
दूर हो रही पदचापें 

भेजना पाती पहुंचकर 
या संदेसा कुशलता का 
हम यहाँ अछे रहेंगे 
बात बस घर में निवाले 

कितनी मजबूरी विरह मन 
अश्रु सूखे हैं कभी के 
प्राण हाथों में लिए वो 
दीप यादों के जलाए 

मौन है बचपन अभी तो 
प्रश्न जाने कितने पाले 
खोज लेगा खुद ही से वो 
माँ का दुःख क्यों वो बढाए 

एक दिन वो लौट आये 
बाँध कर खुशियों के थाले 
फिर परागित सुरभि खिलकर 
गीत में रंग बसंत वाले

अब पत्थरों से खेलना मुमकिन नहीं रहा

 

14 July 2014 at 14:00
अब पत्थरों से खेलना
मुमकिन नहीं रहा 
बचपन का लौटना 
अब ख्वाब रह गया 

गलियाँ थी गुंजार पहले
शोर से बहुत
खामोशी  इतनी हो गयी 
मन बेजार हो गया 


वो चश्मई तालाब
तितली , फूल , और जुगनू 
पत्थर से यारियां 
पलक, मोलू  और माहताब 

पानी में कोई नुस्ख नहीं
दोआबे सी थी चमक 
सपनो में डूबी नीद
गुल्लक में थी खनक  

अब तो नजर उठती नहीं 
सरे आबरू की खैर
मुस्कान लपेटे रहे
खुद से ही खुद को बैर 

कुछ मामले ऐसे की
जन्नत या जहानत 
बस नाम ही सुनकर 
फना इंसानियत का दौर 

वो चौकड़ी भरती है
आँगनो के दायरे
अब  पत्थर नहीं रहे
जिनसे खेलना मुमकिन 

भाई नहीं रहा
बस नाम ही रहा  
राहों में खडा शख्स
अब बदनाम हो गया  

मैं पथ से विचलित नहीं

मैं पथ से विचलित नहीं 
खोज में हूँ अलग रास्ते की 
एक नहीं कई रास्ते 
जो इन्हीं चारों दिशाओं के 
चौराहों से होकर जाती हों 

हम गुमराह नहीं है 
बस कुछ समय के लिए 
भूलना चाहते हैं वो रास्ते 
जिनपर चलकर कदम लडखडाये 
मगर उनकी गिरफ्त से 
हम ना छूट पाए 

हम गुमशुदा नहीं है 
बस कुछ समय के लिए 
अलग हुआ हूँ अपनों से 
कुछ नयी मंजिल जो मेरी अपनी है 
मिलते ही वापस आकर 
सबसे मिल जाऊंगा