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सूनी सूनी आँखें हैं आस से भरी हुयी,
सूखी रोटी बांध ली है रात की बची हुयी,
धुप हो या गहन तम पेट का जुगाड़ है,
 रोज  रोज जिंदगी बस काम की तलाश है
ठौर कहीं और है, घर कहीं पे था कभी,
माँ का दूध कर्ज है, फर्ज से लदा हुआ.
आज का है  कठिन,कुछ नहीं मिला कहीं,

कल के चंद नोट से बंधी है कल की आस है.        


आसरा है काम का,
खाली हाथ<Photo 3>
खुद को है भूली हुयी


"सहमा हुआ बचपन "
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माँ गयी है काम पर, मुझको काम सौप कर,
घर को है संभालना, साफ़ कर बुहारना,
उसका इंतज़ार है, कल से कुछ बुखार है,
दवा नहीं है खा सके, चूल्हा भी ना जला  सके,
रोज की जरूरतें रोज पर निसार है,,
आज का पता नहीं, कल का इंतज़ार है,
रोज की ये जिंदगी, बड़ों की जैसे मार है,
हाड तोड़ कर जुटे , मन मैं बस गुबार है.
मजबूर बचपन
ऐसे ही सँवरता है जीवन
बहुत सारे प्रश्न


सड़कों पर भागती दौडती जिंदगी.
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धुप मैं थका है तन, बोझ लिए चल रहे,
चीज़ कुछ बिकी नहीं, सपने पंख झल रहे,
आज हैं खडे यहाँ ,यूँ ही इंतज़ार मैं,
चलना है बहुत ही दूर, घर है एहीं पास मैं,
लोग कैसे कुर्सियों पे वक्त हैं समेटते,
पर यहाँ नसीब मैं कितने धक्के झेलते,
चप्पलें हैं फट गयी, एडियाँ हैं जल रही,
प्यार से हैं बेचते पर लोग कितने सख्त हैं,
कितनी आस थे लिए, छोड़ अपना घर चले,
रोज का सवाल लिए, कदम कदम हैं चल दिए,
 



"दिहाड़ी कलाकार "
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सुबह स्वप्न से शुरू, रात को दिवा स्वप्न,
चित्र से नपे तुले कहदे हैं एक पंक्ति मैं,
कोई सूत्राधार है, और सब शिकार हैं,
तेज बहुत रोशनी, चमक है पर बुझी हुयी,
तितलियों सा उड़ रही, पर हैं सब बंधी हुयी,
सुबह से खाली पेट मैं ना भूख  है ना प्यास है
.रंगे हुए परिधान हैं, बस येही अरमान हैं,
काम के लिए जुटें,अब कहाँ आराम है.
बहुत सी बात मन मैं है, मन की ब्यथा अथाह है,
ये दर्द रिस रहा सदा, खुद से ही अब मलाल है,
मुट्ठियाँ भिंची हुयी, रास्ता दिखा गयी,
आज यहाँ काम ख़तम, कल कहाँ बेजार है,


आँख घर है लगी , गयी है वो काम पर,
कुछ तो आज मिलेगा, नाम ना बदनाम हो,
रोज रोज जी रहे, रोज मर के सोचते,
कब तलक जीवन चले,ये समय कब आसान हो.