Tuesday 23 August 2011

जीवन की जकड़न

 

 
कोई विरह रसों मैं डूबा, खुले आम हो प्रणय सन्देश,
कोई मधु रस पान कर रहा, जीवन गति को जाता भूल,
निर्मम जीवन जीकर मानव, कोशिश है खुश रहने की,
लड़ता रहता प्रति पल इससे, जकड़न कितनी है मन की,

...
इश्वर ने बाँधा इसको है, कुछ भी करने को आतुर,
नियमों को सब ताख पे रखा, बना खुद ही ये भस्मासुर,
लडने की कोशिश करता है, नियति से टक्कर लेता है,
फिर भी मानव मानव ही है,क्योंकर ये दंभ भरता है,

रस्म रिवाजें बंधन इसके, रहा नकार कुतर्कों से,
अपना स्वार्थ बना सर्वोपरि, बाके सब अंगूठे से,
लोग बाग़ कुछ भी कह ले पर, बहुत बड़ी मनमानी हैं,
शर्म ,हया, सब भूल गया क्या, क्या जीवन नादानी है ?

Monday 22 August 2011

कृष्ण जनम

जनम भयो श्री कृष्ण को आज , बजावत आपन बांस बांसुरी,
टेर दियो सुर मध्यम से, तान और ताल पगन थापन की,
काहे ना आवत रोज रोज जब सब ब्याकुल गति हाय धरा की,
हम तो रोज पुकार रहे हैं, लेत न सुधि जन मन के हिया की.

...
देखत बात सभै दृग थक गया , तलफत मीन है जान जिया की,
विरह को प्रेम है कृष्ण जनम को, छोटन बड़कन और धिया की,
प्रभु तुम कान्हा और कन्हैया, नाम पुकारत जागत रतिया,
आय के देखो दशा दीनन की, सबै सुनावत हाल विधा की.

बाजत ढोल मजीरा आवत आज है कान्हा जाना भयो है,
दिन भर को उपवास कियो तब म्हारो जनम अब सफल भयो है,
कौनो विधा अब शरण मैं लै लेयो, देखत नैना तृप्त भयो है,
बाजत नाद बांसुरी नादित, दीप की लौ अब तेज भयो है,

Friday 19 August 2011

जाने वो कौन सा है एक शख्श


वो एक शख्श जो मेरे बहुत करीब सा है,
मगर कुछ बात है की दूरियों की साजिश है,
वो एक फूल सजा है शाखों पे जैसे,
मगर उसको ज़रा सा छूने की खवाहिश है,

...पता है मुझको भी ये दूरियां नहीं मन की,
पता है दूर होके पास का अंदाज मुझे,
मगर कुछ बात है की सोचना भी पड़ता है,
वो शख्श कोई नहीं सोच का हमसाया है.

कहीं गुजरते हुए उसके जैसा कोई भी,
आज तक क्यों नहीं मुझको कहीं नज़र आया,
उसकी बातों के जाल हैं बहुत ही उलझे हुए से,
मैंने चाहा नहीं ना मन कभी सुलझा पाया,

एक बस फूल की खुशबू जो सबा मैं घुलती,
ऐसी खुशबू है की देख कर महसूस किया,
लोगों की भीड़ मैं वो जाने कहाँ गुम सुम है,
बहुत खोजा मगर वो साया मेरे साथ खोया,

Wednesday 17 August 2011

भावनाओं का बसेरा


खूबसूरती जेहनी तौर पर शब्दों का चेहरे पर तिरना,
जाने क्यों इनको जगह चेहरे ही मिल जाती है,
दस बात सोचता है मन, दस दिशा घूमता है मन,
जाने किस किस से मिलता है, कई बार सोचता है मन,

...
सबकी बातें चेहरे पर एक जाल बनाती जाती हैं,
आवाजें उनकी शकल नहीं आकार सजाती जाती हैं,
कब दर्पित हुआ कभी ये, कब व्यथित रूप सा दिखता,
कुछ रूहानी यादों को, पलकों मैं सजा कर झुकता.

कुछ प्रश्न भी हैं लिक्खे से, कुछ हल भी छप सा जाता,
कुछ शांत सी मुद्रा होकर, पर मन को मथ है जाता,
कुछ बडे बवंडर फैले ,चेहरा उड़ता पंखों सा,,
मन के भावों को लेकर ये चेहरा कैनवास लगता.

अब जो भी हो ये पन्ना ,ये चेहरा इसका दर्पण,
बस नज़र की स्याही लिखती, किस्से इस मन दर्पण के,
पढते हैं जो अपने हैं, कुछ हेर-फेर भी करते,
चेहरे के भाव तिरोहित, गर वो जो अपना मिलता .


Tuesday 16 August 2011

अन्ना


कल राजघाट पर देखा था,कुछ शांत दिखे कुछ मौन दिखे,
चेहरे के भावो से परखा, कुछ चिंतित से धुन के पक्के,
मन का संयम सचित करते, कुछ दृढ शक्ति ग्रंथित करते,
साधारण सा एक झोला था, कुछ चमक दमक से दूर दिखे

बस शांति दूत की तरह सत्य और असत्य की एक कहानी ,
हर बच्चा अन्ना बोल रहा,हर युवा अन्ना की जुबानी.
थी भीड़ जुटी,आवाहन था, हर ब्यक्ति अन्ना का साछी था,
सबकी आँखें अन्ना की थीं, जो सत्य विजय पर अंकित थी,

कल देखा एक विचार दिखा,क्या गजब का आत्मविश्वास दिखा
ये सबल ,प्रबल चेहरे पे लिखा.आँखों मैं अजब प्रकाश दिखा,
विश्वास मुझे इस शक्ति का, करते हैं नमन इस भक्ति का,
सब छोड़ो अब बस देश धर्म, नव निर्मित से नव क्रांति जनम.

अब सबक मिला कुछ आत्मशक्ति, जो निहित हमारे अन्दर है,
बाहर लाओ और क्रांति करो, जन जन जिसका अब ध्योत्तक है,
कितनी सच्चाई चेहरे पर इनके अब साफ़ झलकती है,
मैं नमन करूँ ये महापुरुष, माँ भारती दर्पित होती है,

Sunday 14 August 2011

??क्या हम आजाद है ??






नारी पुरुष का भेद बहुत है, ना आना इस देश मैं लाडो,
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजे,
बंधन ही जकड़े रहता है,रीति रिवाजों की भरपाई,
सब नारी का कर्म निहित है,जीवन पथ पर  बड़ा कठिन है,
क्या करना है आगे बढ़कर,अब तो नारी खुद ही बढ़ती,
जीवन को खुद ही संवारती,फिर भी बंधन बहुत यहाँ हैं,
आजादी किस बात की बोलो ?पुत्र प्रेम भी बहुत प्रबल है,
सब कुछ उसपर ही न्योछावर,सारे बंधन आप्लावित हैं,
 नारी अबला येही कहावत.सारी  रूढ़िया,दकियानूसी,
नारी ही नारी की दुश्मन,फिर समाज का साथ क्यों मागे ,
खुद का ही परिवार है दुश्मन,
"कहाँ आजादी मुझको बोलो, बंधन कहाँ खुला है बोलो "



हंसी आ रही आज मुझे फिर, किन किन बातों  को रखूँ मैं,
अर्थ समझ आता आजादी, पर कैसे ये सच मानूं मैं ?
दृश्य नहीं ये गावों का ही , शहरों का कोना कोना भी,
जल बिन मछली तरस रहा है, गंगा, यमुना जहां सरस्वती,



सूखा सा मानव का जमीर है,कोई तराजू नहीं जो तौले,
नेहरु, गांधी नाम बडे हैं,हम आजाद अभी ना समझे,
सभी सियासत हम पर करते, हालातो के मारे ठेले,
बस्ती,नगर ,शहर सब घूमे,वोट के मंगते हैं ये संपेले,

इनकी जान है इनको प्यारी,भरे कमांडो आगे,पीछे,
पग पग इनका लाल कारपेट, ऊंची बातें,ऊंची सोचें,
काम इन का ना धेले का हो, पहले अपनी जेबें भरलें,
नाम काम सब मिटटी इनका, सच्चाई से मुंह ये फेरें.

इन काँटों से जकडे हैं हम, हमने आजादी है पायी,
ताशकंद मैं शाश्त्री जी की मौत न दुनिया जानने पायी,
 
अब सुभाष का नाम पडा अज्ञात संत ये जान लो भाई,
जाने कितनी जानें लेंगे ,सत्ता  के लोभी सौदाई,

देश का नक्शा प्रश्न चिन्ह और कहाँ तिरंगा फेहराये हम,
हर हिन्दू अब हिन्दुस्तानी पूछ रहा ओ ! नेता बोलो ?
क्यों ये रूप बनाया इसका, जिसको क्रांति वीर ने पोषा,
खुद को फांसी, हमको आजादी ,फिर क्यों नक्शा हुआ पराया,



हिन्दुस्तान हमारा है ये आजादी का हक हमारा है,
सत्ता का मद भूल के देखो, इसे संवारो देश तुम्हारा,
कुछ चित्रों से देश ना बनता, देश है बनता मुस्कानों से

माँ की ममता,प्यार पिता का और उन्नत संतानों से, आजादी और भाषण कोरे, कुछ पंछी और आजादी क्या?
आज नहीं ये आजादी है,ये तो बस कोरी सी पाती.
अंत मैं बस इतना ही, अधिकार हमारा अपना है,
हक है हमको सब जानने का,मताधिकार हमारा अपना है,
हम सब आवाज उठाएंगे ,नेता के सुर क्यों गायें हम,
हम बेजुबान ना बने कभी, सुर  एक हमारे जतला दें,
ये देश ना देंगे हम उसको,जो सत्ता से खिलवाड़ करे,
हम देश धर्म की बात करें, वो कोकटेल से प्यार करे,
हम दाल भात को तरस रहे,वो बर्गर,पिज्जा भोग करे,
आंटा,चावल,पेट्रोल रेट,सब टैक्स भरे,वो जेब भरे,
जनसंख्या है तो वोट बढ़ा, पर पेट की कीमत जीरो है
ये देश लूटकर साहू बने, हम आजादी के गीत गाये.
        जय हिंद,

Saturday 13 August 2011

" नगर वधु "

 छनक छनक ज्यों झालर झांझर,
रुन-झुन रुन-झुन ध्वनि झंकृत है,
मन वीड़ा के तार बजावत ,
आवत है हिय जारि जरावत ,
...
टिप टिप टप टप बूँद पडत है,
ताल बजावत ज्यों मृदंग के,
आत्मित ब्यथित तरुण सी करुणित,
दिग दिगंत अब तनिक रिझावत,

आँख अश्रु अब बहत ना निर्झर,
ज्यों ज्यों दिवस है बीत बितावत ,
मनन है चितन मुख मुद्रा क्यों,
नाम और कुछ नाम बतावत,

चलत चलत,मद गज गामिनी सी,
नारी ह्रदय मन है कुम्ह्लावत,
आवत है राजा और परजा,
सब कै संपदा बधू कहावत.

जगत सौप कै काह काज है,
काहे जनम ई धिया ई पावत,
जगत बन्यो जब नारी जननी भई
दुःख ,भय ,नारी हिय सबै सतावत.

जीवन का सांझ सवेरा


कैसा है ये जीवन बोलो ,
दो ही गतियों मैं चलता है,
कभी शाम को जीवन ढलता है,
और सुबह को जीवन पलता है,
मन दुखित यहाँ अंधियारे मैं,
सूरज की किरने जागृत हैं,
कुछ शक्ति मिले , फिर हमजुट हों,
फिर चाँद पे सब क्यों आश्रित हों,

पर चाँद न हो तो फिर कैसे,
स्वप्नीली नीद मिलेगी हमें,
सूरज तो कर्म का ध्योत्तक है,
चांदनी इसकी पोषक है,
माना की सूर्या रश्मि से भरा,
मन रोज उजाला भर लाता,
फिर भी चांदनी मन ही मन,
उसके मन को है बहलाता,
नव ऊर्जा को संचित करके,
जब सुबह काम पर निकला वो,
जो भी अर्जन जो मिला उसे,
सब कुछ बांटा सबको उसने,
पर उसे मिला क्या, प्रश्न बड़ा
.

क्या है ये, कौन है ये.






बड़ा ही विचित्र संयोग है,ये योग है या वियोग है,
इनका ही नाम प्रयोग है, चेहरा है या कुछ और है,
कुछ और देश के प्रमुख भी, ये सोचते हैं ध्यान से,
इनसे विमुख हो जाएँ तो , क्या देश का अनुमान ये,
खुद पे कभी सोचा नहीं, खुद स्वच्छ जीवन के धनी,
फिर भी ये खुद अज्ञात हैं, ना नारी ना पुरुष बनी,
अब देश भी मोहताज है, इनके भरोसे है पडा,
खुद पर ही इनको नाज है, गुरु गोविन्द का पहने कडा,
सरदार बलिष्ठ हो देश का, फिर देश के कहने ही क्या,
हमको तो बस आभास है, सरदार है इस देश का
.

Friday 12 August 2011

ना वो अलग ना मैं विलग




यमुना कै नीर हरा, श्याम रंग भया हरा,
डुबकी लागाय जब राधे के नियरे गए,

डूबत उतरात छवि श्याम की जो देख राधा,
अंखियन के द्वार श्याम राधे के नैन बस्यो,
देखत हूँ रूप जदी, कौन नाम ,कौन श्याम,
बांसुरी है अधरन पे ,श्याम ने पहेचान लियो,
बाकी तो रूप एक राधे और श्याम एक,
नाही अलग नाहीं विलग,एकै है जान लियो,

बारिश और मैं


इन्तजार उसका ख्यालों मैं बहुत सा,
बारिश की बूंदों सा एक एक पल गिरना,
पलकों का मन से बातें करना,
आँखों की सलाह की वो नहीं आएगा,
कुछ तो है उसमें जो औरों मैं नहीं है,
कुछ तो है उसमें जितना मुझे भी यकीन है,
कुछ तो है उसमें ,मैं उसे ही जानती हूँ,
कुछ तो है उसमें , बस उसे ही मानती हूँ,
दूर जाकर वापस वो वहीं मिल है जाता,
खोया हुआ मन फिर से खिल है जाता,
कैसा भी मन हो वो साथ मेरे रहता,
दूर बहुत होकर भी पास मेरे रहता,
हूँ बहुत मजबूर, उसकी याद बहुत आती,
आसमा से बातें , और शगल उसका होता,
है बहुत शिकायत मैं बहुत ही गलत हूँ,
नज़र बोलती है , जो है बस सही है,
रिश्ते कभी भी जीवन के संग ही चलेंगे,
नदियों के दो किनारे पर साथ ही बहेंगे,

Wednesday 10 August 2011


बचपन मैं झुरमुट मैं खेले मेहँदी की शाखें थी कटीली,
सिलबट्टे पर पीस पीस कर हरे रंग की बात रंगीली,
बड़ा अचम्भा होता था जब हाथों पर बनता था सूरज,
रोज देख कर खुश होते थे चढी ये मेहँदी अब चटकीली,

विदा रस्म पर मेहंदी रचती, बाबुल का घर छोड़ दिया था,
हाथों की मेहँदी है जरूरी , रंग ने नाता जोड़ दिया है,
हर श्रींगार के फूलों सा रंग हल्का सा भी जब चढ़ जाए,
भीनी सी खुशबू है इसमें, मन मैं ये बस रच-बस जाए,

है श्रींगार बड़ा ही सुंदर, श्याम श्याम कह मुख को छुपाती,
राधे हाथ रची जो मेहंदी, कृष्ण को बरबस मुख है चिढाती,
श्याम श्याम मुख चढी ना जब तक, लाल भाई तब राधे जैसी,
सुंदर राधे ,हाथ सुकोमल , राधे श्याम पर रंग चढ़ाती .

और तो और अब केश का रंग भी मेहंदी ही रंगती है भाई,
उम्र दराज जवान हुए है, रंग कर निकले बीच बजारे,
अब कोई पूछे जो उम्र तो अभी सफ़ेद कहाँ है चूलें,
hair कट से पहले रंग कर , देख ना ले कोई भी रंग ले.



Tuesday 9 August 2011

अनमोल बूँद

एक बचपन की बारिश इस अंजाम था
हम फ़िदा थे वो पानी के मंजर पे यूँ,
घंटों कागज़ की कश्ती पे होके सवार,
हम उड़ा करते थे भीगे पंखों से यूँ,

आज भी याद है सारा मंजर हमें,
अब भी यादें वहीं जाके रुक जाती हैं,
ढूढते हैं हम बच्चों मैं खुद को कहीं,
उनके संग संग ज़रा हम भी हो आते है,

पर कठिन है ये शहरों की बारिश बड़ी,
कितने गढ़हे बने इनमें पानी भरा,
बारिशों ने है रोका जहां का तहां,
घर पहुँचने की जल्दी इंसा बेबस खडा,

कितनी आसे जुडी हैं किसानों की ही,
हमको मालूम हुआ धान कैसे लगे,
साल भर का तकाजा पूरा है नहीं,
आज बच्चों का पेट बोलो कैसे भरे,

बूँद की मार है, कोई भीगा मदमस्त,
बूँद की मार से टूटा छप्पर भी ध्वस्त,
बूँद की मार से पूरी बिल्डिंग गिरी,
बूँद खेतों मैं अब एक भी ना गिरी,

ओ विधाता कहर क्यों तेरा है कहो,
ये धरा की फ़रियाद थोड़ी तुम तो सुनो,
इंसान वैसे ही लाखो सितम कर रहा,
तुम ना बरसाओगे ,धरती वो तोड़ेगा,


बारिश की बूँद गुलाब पर

बारिशों के इस मौसम की क्या बात है,
बूँद की मार से ये भी यूँ झुक गया,
फिर भी आसरा दिया इसने बूदों को ही,
दिल से हारा बेचारा करे क्या भला

ना ये सूरज से डरता तनिक भी कहीं
और सर इसका उठता था मगरूरियत
अब तो बूदों की टप टप से झुकता है ये,
वो पवन के झकोरे भी कमजोर थे.

खुशबू बूदों मैं बस के हवा हो गयी,
आज खुशबू से महकी सबा हो गयी,
हमने हाथों से छूकर जो सीधा किया,
एक ताज़ी सी खुशबू बयां हो गयी,

आज बारिश की बूंदों का मंजर सुनो,
अरबी के पात भी दास्ताँ कह रहे,
उनपे ठहरी सी बूदें गवाही सी हैं ,
सुबह सूखी थी धरती ,अब दवा मिल गयी,,


Monday 8 August 2011

माँ,चाँद और रोटी



आज दूर हूँ घर से पर जब चाँद रु-बरू होता है,
माँ का चेहरा , हाथ की रोटी एक ही जैसा दिखता है,
ये आजादी जश्न सभी अब एक हवा मैं मनाते है,
हमतो कर्म अधीन दूर से "वन्दे मातरम्" ही गाते हैं,

माँ का प्यार और गोल सी रोटी, वो पल बहुत अमोल अभी,
सारा जीवन इसके पीछे, इस सवाल पर सब फिरते,
कुछ भी खा लो, कुछ भी पे लो, स्वाद ना पाओगे ऐसा,
चाँद देखकर जीभ फिराया, सूखे होंठ पे जल तिरता,

कहते हैं ना चाँद पे जीवन ना पानी ना आबो हवा,
फिर ये बूँदें ओस की चमकें सबमें चाँद का अक्स भरा,
बचपन ,यौवन और बुढापा,कोई नहीं फर्क इसमें,
प्यार है माँ का ऐसे शाश्वत, जैसे चाँद का रूप गढा

तारतम्य सब जोड़ो कितना, रोटी चाँद तो एक ही है,
जहां से देखो, एक ही दिखता, मन ही मन है नाप लिया,
इसको देखककर बहुत सुनायी माँ ने कई कहानी थी,
बचपन सबका संचित अब भी,बातें हुयी सयानी सी,




इबारत नयी, पुरानी


कभी इबारतों पे कुछ भी लिखना
इबारतों पे चल रहे कितने,
जाने कितनी बनायी राहें मगर,
हाशिये पर ही रुक गए कितने,

कितना लेखा यहाँ है होता मगर,
कोई तो बात जो कल की लिखता,
सब हैं डूबे यहाँ अतीत से ही,
कल का अंजाम कोई कौन कहे,

हम तो यहाँ वक्त पढने आये हैं,
उसका अंदेशा है जूनून मेरा,
मैने समझा मिजाज उसका भी,
बडे तेवर दिखाता कभी कभी,

ये अतीत बड़ा जान लेवा है यारो ,
इसके ख़्वाबों मैं जागना कैसा होता है,
उसे भुलाना बहुत दर्द देता है सबको,
सामने आज खडा खुशी का पैगाम लिए

Sunday 7 August 2011


ये चरण ही याद मुझको, रूप तो अनगिनत हैं प्रभु,
आँखों की गर पलक्क झपकी, रूप बदले पल मैं तेरे,
भाग्य का लेखा लिखा है, उसी के अनुरूप मानव,
रूप भी दिखता है ढल कर, सोचता मन तेरे जानिब,

पुष्प है तुमको समर्पित, और क्या जो नहीं तेरा,
किस विधा को अपना मानू, क्या कहूं ये अब है मेरा,
तुमको ही माना है अपना, ये ही बस स्वीकार कर लो,
मैं ना मीरा ,ना ही राधा, बस ह्रदय मैं वास कर लो,

हे जगत के सर्व पालक, स्वार्थी मन तुमलो पूजें,
तुम ना इसको ध्यान देना, अपना जानो हम अबूझे,
हम हैं मानव जाती के अब क्या करेंगे तुम नहीं तो.
शाख से उड़ जा मिलेंगे.,धरा के कण कण मैं हर सै.

गुलदस्ता.


फूल की खुशबू कहाँ कहाँ तक फैलेगी...>>>>>>>>>>
इसके लिए डाकिये की जरूरत नहीं होती,>>>>>>>
हवा इसकी संवाहक है, वो खुद ब खुद अपना काम करती है..>>>>>

कौन है जो रोक सकता सुरभि के प्रवाह को,
मृदु,मधुर,शीतल समीर खुद सुवासित हो रहा,
हम तो जाकर पास छूकर सोचते हैं भाव को,
प्रकृति की ये सम्पदा उपहार मानव जन जन को,

मुस्करा कर खिलता नित दिन, खुशबू में ही रमित है,
हर पथिक से प्यार करता, ना कभी प्रतिकार करता,
फूल की सु- मृदुल आभा, हर जनित स्वीकार करता,
कौन है वो प्रेम ना हो, पुष्प से इनकार करता,

प्रभू का ये हार बनता, चरणों में हरदम ये चढ़ता,
उम्र की परवाह नहीं है, सब पलों में पलता रहता,
क्यों ना मानव पुष्प जैसा, क्यों सदा प्रहार करता,
टूट कर बिखरेगा मानव ,टूटता है गर गुलदस्ता.

नियति

हे नियति तेरे रूप कितने, कितने रूपों में समाहित,
पाँव में पायल नहीं क्या,,धीरे से आकर यूँ मिलना,
सब है उलटा खेल चलता,मिलना हो कोई और मिलता,
एक पल हम हंस के बोले ,दूसरे पल मौन मिलता,

ओ ! नियति तू सखी बन जा, बाँट लेंगे हम सुखों को,
जान कर तेरे इरादे, ना करेंगे हम फरियादें,
तू जो रूठी मना लेंगे, बस बता देना कहानी,
क्या नियति है वो जो ऊपर ,कर रहा अपनी मनमानी,

पूछ लेना मेरा ब्योरा, क्या है सोचा क्या करेगा,
हम भी लेंगे नाम तेरा, जगत में जो होगी हानि,
जान कर हम बदल लेंगे, कुछ तो होगा तब निवारण
सब चलेंगे नेक रस्ते, कम करेंगे बे-इमानी,

Friday 5 August 2011

नजरिया




कभी देखा जो ये तस्वीर हकीकत ही मुझे दिखती,
इधर नज़रें घुमा कर हम खुद से नज़रें चुराते हैं,
कहीं मासूम के दो हाथ बाद ना जाए मेरे आगे,
येही सब सोच कर हम कार कर शीशे चढाते है,

कभी सोचा था मैंने भी जहां का रुख बदल देंगे,
ये सारी कायनातो को खुद की मुट्ठी मैं रख लेंगे ,
जो होगा हम करेंगे फैसला सबका वही होगा,
हमारी ही जमी होगी, सरहदों का नाम ना होगा,

बदल कर अपनी नज़रों को जरा सोचो क ये क्या है,
वही आँखें, वही चेहरा, वही पलकें सजीली है,
ज़रा कपडे बदल कर कह दो देखे ये जरा शीशा,
कमी तो धुल गयी पानी बहा ,अब क्यों हो धोखे मैं,

कोई अंतर नहीं इसमें ये बस ख़ास वजहें हैं,
नजर और मन से सोचो क्या इन्हें मिलना जरूरी है,
ज़रा सा प्यार से इनको दिला दो कुछ किताबें ही,
मुकम्मल हो जहां इनका, ख़ुशी के ये भी हो आदी,

हमेशा बदल कर नजरें इनायत हो तो अच्छा हो.
वो जो है ,हटो उससे करो कुछ तुम अलहदा सा,
बहुत सुंदर मुझे लगती, जो सोचूँ है तो ये अपनी,
ज़रा कपडे से तन धक् दें तो बने ये भी शेह्जादी
 

मीरा और श्याम

कोऊ कहे मीरा दुखियारी, सारी सुध बुध खोय चुकी है,,
कोऊ कहे है प्रेम दीवानी, श्याम विरह मन बोय चुकेयो है,
कोऊ कहे हे सुन री मीरा, क्यों तन्ने ऐसो रोग लग्यो है,
कोऊ कहे ई भई बावरी, श्याम श्याम अब श्याम भयो है.

कोऊ कहे जल बिन ज्यों मछरी, तलफत हिय दुःख रोय रह्यो है,
कोऊ कहे ई भ्रम की मारी , सारी मतिन अब सोय चुक्यो है,
कोऊ कहे अब के करनो है,मोतिन मन अब खोय चुक्यो है,
कोऊ कहे मीरा की गति अब , कस्तूरी सन जोह करयो है.

अब ये कैसे कहे श्याम तो मीरा के हैं हुए दीवाने,
हर पल साथ रहे हैं उसके, मीरा नाम श्याम के माने,
क्या करना है मति भ्रम होगा, बस ये भाषा प्रेम ही जाने,
प्रेम राम और कृष्ण मैं बसत़ा जो करता है वो हैं दीवाने ,

रोम रोम बस श्याम हुआ है, मीरा तो बस नाम ,नाम का,
एक बार प्रभु रूप तुम्हारा देख हुआ बस श्याम श्याम का,
आत्मसात है प्रेम की मला, सुध-बुध क्या ये प्रभु ही जाने,
विष प्याला भी अमृत जैसा, कृष्ण सुधा मीरा ये माने.

Wednesday 3 August 2011

विष कन्या

दो बूँद आंसू बस ढलक गए,
और शब्द चुभते हैं तीरों से,
कोई विषकन्या , देवदासी
और नगरवधू के डंके बजते हैं
 

तहरीरों पर तकदीर लिखा
नाम और कर्म की बात करें
ये शब्द और नारी जोड़ दिया,
विधना से लड़ी इन नामों पर,
ऩा जीती तब तन जोड़ लिया.

इश्वर का रूप समझ ओ! मानव तू, 
अर्धनारीश्वर रूप किस काज हुआ ,
फिर भी जग खूब विहँसता है
नारी रूपों ने इतिहास रचा ,
 

ये  ह्रदय एक है दोनों मैं
पर पुरुष ह्रदय विहीन हुआ,
शक्ति रूप दुनिया को विदित यहाँ,
     विधि पे ही सबकुछ छोड़ दिया,
     वो लड़े यहाँ, वो मरे यहाँ,

      वो आंसू पीकर सोती  है,
      इन नामों के तमगे लेकर ,

      पुतली है रक्त की जीती है

अब शब्द नहीं तुम प्रहार करो?
अब नारी का प्रतिकार करो?
ये उसकी मीमांसा होगी,
उससे ही जनम हर बार करो,
वो कैसे सब सह लेती है,
फिर मुस्काती दुःख सह सह कर,
उसको चिंता सबकी रहती,
पर उसकी चिंता एहसां कर कर,
क्यों पुरुष जगत निर्मम इतना
,क्यों  शब्द कोशिका है खाली,
क्या स्त्री शब्द नहीं अच्छा ?
जो विष कन्या बन संग हो ली,

हे ! विश्व सुनो,चीत्कार सुनो,
तुम नारी की शक्ति जानो,
शिव शंकर हैं जब नील कंठ,
उनका ही विष संचित मानो,
अब गरल वमन ही होगा तब,
जब लोग लांछना ही देंगे,
सदियों से माँ की जनम भूमि
कैसे नारी श्रद्ध्नावित ना हो ????






दुशाला


एक दुशाला राम नाम का ग्यानी जन धारण करते,
एक दुशाला माँ के तन पे, कापते हाथ है सिहरते,
एक दुशाला पहन के घूमें जग मैं कर्म निवृति को वो,
एक दुशाला ओढ़ा उसने , जब मन प्राण सब एक हुए,
अंतिम वस्त्र कहो या कुछ भी शब्द नहीं कुछ परिणित है,
सांस नहीं पर ओढ़ दुशाला विदा हुआ वो इस जग से,
जाने तन पर कौन रमा है, तन को छुपा वो जग घूमा,
मन को ढांप ना पाया फिर भी कर्म ही उसका यहाँ रमा,
उसकी चादर ओढी हमने जब तक जीवन चला यहाँ,
साफ़ किया मन के आँचल से, बाकी सब जो रहा यहाँ,
एक फूंक और एक स्वांस से येही दुशाला उडता है,
मन वायु की गति हो जैसे, मन को कभीं ना ढंकता है
जाने कितने छोड़ चले जग, नहीं दुशाला मिला उन्हें,
ठिठुरन है हर पल जीवन मैं डर,भय , संचित स्वप्न यहाँ.

Tuesday 2 August 2011

कान्हा

कोऊ कहे कारो कारो,कोऊ मतवारे कहे,
कोऊ माखन चोर, मुख dadhi लपटाए है,
कोऊ कहे मोहन और कोऊ को हो बनवारी,
कोई श्याम वर्ण छवि मन मैं समायो है,

श्याम को जो आभा नील भयो आज अम्बर है,
चाँद को है टीका, सूर्य तिलक लगायो है,
कान्हा से कन्हैया और गिरधारी बनके जो,
एके अंगुली पे सारो जगत थिरायो है,

काहे नाहीं आवत हो, मथुरा तो एहीं ठाड़ी,
यमुना का नीर श्याम रंग मैं समायो है,
मोहन की बांसुरी बजावत सारो ब्रिन्दजन,
छम छम नूपुर ध्वनि वृन्दाबन मैं फैलायों है,

आओ हे मुरारी तोहे करुण पुकार करू
ई तो एक गीत बस रचित बनायो है,
सारे बलिहारी ,सारे श्याम श्याम कहत थकें,
त्रस्त है मानव जाती,काहे भरमाय हो,,

रेखा **** LINES

आडी, तिरछी, सीधी रेखा, लम्बी छोटी पतली रेखा,
इन रेखाओं मैं पलता जीवन , इनको की पकड़ चलता जीवन,
सब सीधी रेखा पर पग हैं, जब मोड़ आया तब विचलित है,
इन रेखाओं की विद्या का, हर ज्योतिष भविष्य है बांच रहा,
सूरज है कर्क में या सीधे ,उत्तर दछिन मैं झाँक रहा ,

रेखाओं का क्या ये कुछ भी कहें, कॉपी की लाइन ही तो है,
उस पर जाने क्या खींच खींच, हमने है उकेरा एक सत्य,
कुछ यादों की फुलवारी है, कुछ अमराई की बगिया सी,
इनको ही देख हम उड़ते हैं पछी बन कर तरुनाई में,

इन रेखाओं से पढते हैं जीवन की गति की उछल फांद,
कभी ऊपर हो कभी नीचे हो, कभी समतल कह देती है बाय ,
अब सरल पंक्ति या लाइन ही कह कर देखो या कहो छंद,
सब रेखाए बन जाती है, दिग -दिगंत तक कवि का ही द्वन्द 

दिल की तिजारत


उसकी यादों मैं सुबह की शाम हुयी,
ऐसे खोये की उम्र तमाम हुयी,
तिजारतें सारी बंद यहाँ, लिखा था कुछ ,
समझ अपनी जरा सी यूँ बदनाम हुयी,
हमारी बात तो ऐसे की हम नहीं समझे,
...
उसने समझा उसीकी शान हुयी,

करीबी मुख़्तसर की इतनी सी,
कोई खुशबू ही इंतजाम हुयी,
उसका आना और जाना क्या कहें ,
ऐसे ही बातें जो सरे-आम हुयी,

चलो मजलूम ही समझ कर समझो तो कभी,
मिली शिकश्त अगर दे दी,येही एहसान कई,
हम तो यूँ ही तराश बैठे हैं उसका चेहरा,
हमारा दिल कहीं और उसकी जान कहीं.

यादों की वीथिका

 
एक तिजोरी यादों की , कुछ झूठे सच्चे वादों की,
कुछ मन की तृप्ति यादों मैं, कुछ सुदर सपने आँखों मैं,
हम विषय चुने हम भाव गढ़ें, उन भावों मैं खुद भी बह लें,
इन यादों के दरिया से निकल , अब वर्तमान,फरियादों की,

किसकी बातें हैं सत्य कहो, क्या मन वंचित इससे होता,
होता है सत्य सामने फिर भी मन कहीं और फिरता,
हम भाग रहे विह्वल होकर, जाने क्या कौन नहीं है पता,
बस एक निशाँ ही छोड़ा था , उसको ही इंगित मन तिरता,

एक टूटे डाल के पत्ते सा, कभी इधर उड़ा,कभी उधर उड़ा,
बहती है हवा , लेकर जाती, जिस तरफ पथिक का मन ठहरा,
मन की तृष्णा , मन की यादें स्थायी जगह बन गयी एहीं,
हम त्रिश्नित मन को संचित कर, यादों की हवा मैं बहते हैं.