Friday 19 October 2012

मैं और मेरा सांध्य गीत


मैं और मेरा सांध्य गीत

by Suman Mishra on Friday, 19 October 2012 at 00:06 ·
 

सुबह सूरज बड़ा शांत सा था ,हल्का सा गेंद की तरह उछला , जैसे किसी ने झील के अन्दर से उसे बाहर उछाल दिया था
पानी में भीग कर ठण्ड से लाल हो गया था मगर अम्बर के  करीब आते ही वो अपने रंग में आ गया, चेहरे की ललाई ख़तम
और कर्तव्य बोध होते ही प्रखरता की चादर में लिपट कर भौहें चढ़ा ली और खुद को गतिमान करता गया......आगे.......


सोचती हूँ सांध्य गीत , प्रेम का परिदृश्य लिखूं
लौटती चिड़ियों के थके पंख के कुछ कृत्य लिखूं
झील का वो हरा पानी, लाल रंग वरन हुआ
फूल के झुकते पटल से रंग का भविष्य लिखूं


नीड़ जो खाली पड़े थे , आहटों से भर गए वो
हर तरफ से लौट कदम , द्वार पर ठहर गया वो
दिन भर की थकन ज़रा, टूटती सी आस लिखूं
जुडी नहीं जोड़ लेंगे, खुद पर उपहास लिखूं


किसी ने उसको पुकारा एक नजर प्यार लिखूं
दिन की सांझ बदल गयी एक इन्तजार लिखूं
ना ! नहीं ! स्वीकार नहीं ,प्यार में मनुहार लिखूं
रास्ते मेरे अलग हैं , प्यार में इनकार  लिखूं


एक सांस अलग सी है, कुछ ज़रा निःश्वास सी ही
जीवन की अलग पारी , मगर ये विश्वास भी है
सांझ और सुबह में क्या ख़ास सी एक बात लिखूं
जहां पे दो मन मिले थे वही एक एहसास लिखूं



एक  अंजुरी से  प्यार , छलक गया बूँद बूँद ,
कम हुआ तो भान हुआ, नैन शब्द भाव मूँद
कोई भी आवाज नहीं , मन की बात जैसे शून्य
सांध्य गीत येही मेरा , कितने ही अरमा अबूझ


लोग चाँद चांदनी में चातकों को लिए साथ
फिर रहे हैं दंश लिए , मन विरह से भ्रमित पाथ,
मेरे सारे खेल मेरे , मेरी शह और उसकी मात
येही मेरा सांध्य गीत , कल सुबह हो नयी बात

मेरे घर का रास्ता


मेरे घर का रास्ता

by Suman Mishra on Thursday, 18 October 2012 at 17:36 ·


बहुत लम्बी दूरी , बहुत लंबा रास्ता, एक उम्र का फासला,एक मुकाम बिलकुल अलग सा
वहाँ माँ की गोद थी, यहाँ कड़ी धुप है.  कितना बदला हुआ जीवन दूरियों के बीच,
सूरज और धरती का रुख भी अलग अलग सा, जीवन का रहन सहन बदल सा गया है, मैं मैं नहीं हूँ , हम क्या बदल गए हैं ?

वो सूरज था लाल सुनहरा ,
थोड़ा थोड़ा अलसाया सा
जाने कितनी थीं मनुहारें
फिर उठना दिल बह्लाबा सा

वो धरती थी कच्ची पक्की
सोंधी मिटटी की खुशबू सी
चुपके से चख मुंह धो लेना
बचपन गलियाँ तंग हठीली



हिलते डुलते  पुल नहरों के
चम् चम् मछली उछल उछल कर
हम चढ़ कर अपनी धुन में ही
आ जाते खुद को टहलाकर

सांझ की गहरी काली बदली
मन के अन्दर आँख मिचौली
कौन रुकेगा घर के अन्दर
भाग निकल भर बूँद से झोली



ये जो शहर है नहीं है मेरा
मैं स्वतंत्र पर बंधा है साया
मेरे मन को खींच रहा है
जकड़ा तन थोड़ी सी माया

अभी बेड़ियाँ पडी है मेरे
खुल जायेंगी धीरे धीरे
मेरे नाम का अर्थ बदलेगा

अभी नहीं ,,,घर आ जाने दो,,,,,,

स्वप्न निमीलित आँखों से क्या सच का कोई भान हुआ


स्वप्न निमीलित आँखों से क्या सच का कोई भान हुआ

by Suman Mishra on Sunday, 14 October 2012 at 19:43 ·
 

मन के कच्चे धागों को जब जोड़ा था तब सोचा था
जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी ये खुद ही पक्के हो जायेंगे
रंगों की भरपाई आँखें कर देंगी खुद से खुद  भरकर
सतरंगी सपनीले धागे गहराते मन में रच बस कर

कुछ धागों में लाल थे डोरे, जाग जाग कर बोझिल सा कुछ
कुछ सपनो की खातिर सच का ताना बाना मन से मथ कर
कुछ करने की आशा में ये धवलित डोरे लाल हो गए
कुछ पल मेरी आँख लगी तो जगते ही ये स्वप्न हो गए 



कहाँ कहाँ मन भरमाता है , क्या होगा आगे के पल में
क्या सपनो की सीढ़ी होगी या सच में उड़ना अम्बर पर
कठिन समय मन की कमजोरी , मन विह्वल थोड़ा अशक्त हूँ
रिसता है कुछ रंग कहीं से  आँखों से मन तक पहुंचे जो


वही तो था जो पल गुजरा था  हल्की एक हंसी थी जिसमे

वही तो थी वो सुबह सुहानी , चिड़िया कुछ तिनके ले बैठी

वही शाम गुनगुन सी करती, लौट रही थी धुल फांकती

रात वही थी तारों के संग , चाँद सी रोटी माँ थी सेंकती


 

आज अभी  धीरे धीरे  मन संयत हो आँखें खोलेगा,
देखेगा उस बाल सूर्य को , मन के धागों को धो लेगा
फिर पलकों में भर के रोशनी सूरज के संग आँख मिलेगी
दिन और दिल दोनों का संगम, सपनो वाली रात धुलेगी

आज निमीलित नहीं नहीं आज मैं प्रखर सूर्य की रेनू बनी हूँ
बज्र किरण की शश्त्र शलाका अरि आँखों में शूल बनी हूँ
रुको अगर तो देख ही लोगे मैं जागृत अब निशा नहीं मन
वो पल जो भी पथ पीछे था , आगे मैं और सूर्य शिखा तक

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 4 ) - जर्जर हाथों की ताकत सदियों से ये पहचान बनी (वृध्हा अवस्था)


पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 4 ) - जर्जर हाथों की ताकत सदियों से ये पहचान बनी (वृध्हा अवस्था)

by Suman Mishra on Wednesday, 3 October 2012 at 00:05 ·
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इतिहास नहीं पढ़ पाए तो , मेरी आँखों में देखो तुम
सारा चलचित्र दिखेगा यूँ, जा पहुचोगे उस युग में तुम
इन जज्जर हाथों की ताकत, तुम आज कहाँ पहचानोगे
जाकर बांधो मुठी को तुम , कुछ स्वेद से भीग तो जाने दो !!


बूढी आँखों के सपने थे या आज तलक वो आँखों में
बस एक रूप शिल्पी सा ही, छैनी की खनक जज्बातों में
कोई दे सहारा मैं उठकर  चल दूं फिर से अपने पथ पर
मैं शिलालेख ना बन जाऊं , गतिमान रहूँ  हर पल में मैं




मैं जागा हूँ कितनी रातें, सपनो की भरपाई  ना हुयी
फूलों के बाग़ की सैर नहीं, सूरज की किरण पीछे ही जगी
हर दिन के कर्म की सूची में , खातों की दावेदारी अपनी
हर बूँद रक्त की एक कथा, मैं नहीं वृध्ह मैं युग गाथा


आओ  मिलकर लौटा लायें यंत्रों तंत्रों का दौर नया
तुम  समझ सको गर जो मुझको , समझा दूं अपनी आज व्यथा
मेरे सपने जो छितिज पार, आकर धरती को छूते हैं
तुम इंद्र धनुष इतने रंग के ,कुछ पल ही भ्रम के फीते हैं



इन बूढी आँखों की आशा का मर्म,  एक प्रथा आज अपनानी है
कुछ दूर रोशनी के धागे, कुछ तुमको राह दिखानी है
वो स्वाभिमान से जिया मगर, हाथों का सहारा फिर भी दो
उसकी छवि खुद में आत्मसात, उसके ही नाम से जी ने दो

कुछ बूँद अगर आंसू के गर आकर वापस जो चले गए
मन दुखी नहीं चीत्कार करे, कैसे वो अश्रु मन सींच गए 
हम भी इस अंक से पले बढे , कैसे इनको भरमायें हम
हम इनसे हैं ये हमसे नहीं , सपने पूरा कर पायें हम 

Monday 1 October 2012

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 3 ) "गृहस्थ/बयस्क मन"

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 3 ) "गृहस्थ/बयस्क मन"

by Suman Mishra on Tuesday, 2 October 2012 at 00:17 ·


स्वप्न ही तो था जहां एक छोर से तुमको पुकारा
स्वप्न ही तो था एक आकार बना तुमको था ढाला 
साछी है चाँद सूरज , तारों की महफ़िल सजी थी
बस येही कुछ ख़ास ना था स्वप्न में आँखें मुदी थी


एक सपना ठहर कर कुछ दिन रुका था पलक पीछे
दिवस से डरता हुआ , छुपता हुआ अलकों के पीछे
बांच ना दूं मैं उसे अपनी कही एक पंक्ति सा ही
भूलना था विवशता में , रहता था अंखियों को मींचे


आज जब गुजरे वहाँ से युग युगों की बात लगती
एक तुम्हारा साथ है , झूठी ये कायनात लगती
खुशियों के फूलों की खुशबू आगे कुछ भी याद ना कर
येही तो शुरुआत जीवन , दुखों से अब बात मत क



स्वप्न से उठकर अभी हम सूर्य से आँखें मिलाएं
किरणों की अठखेलियाँ जल में तरंगे छु के आयें
स्वप्न से आकार लेकर वो गया है सपने लेने
राह में नैनो को रखकर , आले में दीपक जलाएं


चूड़ियों की खनखनाहट, चिड़ियों के स्वर से मिली है
एक हंसी गुंजार में ही , बह हवा के संग चली है
वो बटोही बन गया अब, मेरे सपने सच करेगा
मैं दिवा स्वप्नों में खोयी , आके आँखे बंद करेगा



है बहुत रंगीन दुनिया, स्वप्न में बस श्याम सी है
रंगों के मझदार से बहती हुयी एक नाव सी है
कुछ कदम धरती पे रखकर सोचती हूँ आज जब मैं
ये नहीं वो अलग दुनिया , ये तो बस अनजान सी है 

खुद के नीचे की धरा को जकड कर रखा है मैंने
छूट ना जाए ये मुझसे , कसमों से कुछ कहा मैंने
स्वप्न सारे भूलकर अब हाथ से सपने बुनेगे
पहनकर वो अंगरखे सा ,मन के अम्बर पर उड़ेंगे .

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 2 ) "युवा मन"

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 2 ) "युवा मन"

by Suman Mishra on Monday, 1 October 2012 at 01:45 ·



कहीं अरमानो की कश्ती
मल्लाहों ने चलाई है
वो गुमसुम सा जहां अपना,
जहां लौ बुझ ना पायी है

ना जाने आँधियों का रुख
हमेशा इस तरफ ही क्यों
मगर हम भी कहा कम थे, 
ना आंसू ना  दुहाई है


अभी तो हम ने जाना है

ये दुनिया कैसे चलती है
कभी रातें भी दिन जैसी 
निशा में धुप ढलती है


सभी मर्जी के सौदे हैं  ,
तिजारत में हिकारत है
कोई सच्चा भी कितना
नहीं उसकी इबादत है

यहाँ हर्फों में सब मसले
नहीं उसकी मियादें कम
कहा कुछ उसने ऐसे ही
ख़तम सब एक वादे में


कोई गठरी बड़ी सी है
सूखे पत्तों  के बोझे सी
मगर सपनो की ख्वाहिश में
येही बन जाए सोने की

बढे क़दमों को मत रोको
यकीं है रात भी होगी
कटेगा बाकी का रास्ता
खुद से कुछ बात भी होगी

कही पे लौटते से कुछ
निशाँ दीखेंगे मत रुकना
तुम्हारे पाँव आगे हैं
पीछे छूटेगा हर रस्ता

Sunday 30 September 2012

मैंने कुछ कहा क्या

मैंने कुछ कहा क्या 
नहीं तो 
बस पन्ने के खाली पन को देखा है 
शब्द उभरेंगे अभी 
सुन लेना मुझे फिर

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा (PART 1) "बचपन"

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा (PART 1) "बचपन"

by Suman Mishra on Friday, 28 September 2012 at 00:31 ·



सपनो का क्या है रोज ही आते हैं
सपनों  को भी उम्र का लिहाज है
अपनी उम्र के हिसाब से ही दीखते है
फिल्मों की तरह बिना टिकट जाने कितने देखे हैं


किसी बात पर जिद्द तगड़ी थी
जिद्द की एक पगड़ी पहनी थी
नहीं उतारूं जिद्द थी मेरी
अरमानों की लिस्ट बड़ी थी


लक्छ्य स्वप्न में आकर ठहरा
आ आ कर बातें करता था
मैं खुद को महसूस करू जो
वस्त्र पहन वो आ मिलता था



स्वप्न और मेरी मन आँखें
एक बंद एक खुली हुयी थीं
एक धरा पर  बंधी हुयी सी
एक गगन में विचर रही थी


भेद भेद कर चाँद की दूरी
प्रश्नों सी बौछार चांदनी
शब्दों के ये जाल नहीं है
ये सच उलझे बात अधूरी


सुबह सुहानी गीत राग सी
मन झंकृत स्वप्नों की थाह से
क्या है नया आज जो मिलना
या फिर बुने कुछ अलग माप से



मेरे स्वप्न आज तुम जागो

खुली आँख और पग धरती पर

सच कर ही सोयेंगे अब तो
 स्वप्न चाँद सूरज के घर पर.

इक चिंगारी मानव की पैदाइश (विचार श्री प्रतुल मिश्र जी के )

इक चिंगारी मानव की पैदाइश (विचार श्री प्रतुल मिश्र जी के )

by Suman Mishra on Monday, 24 September 2012 at 00:55 ·


इक चिंगारी मानव की पैदाइश ,
विस्फोट ही नहीं हुआ और क्या बाकी रहा
मानव अपने शरीर से ऊर्जा प्रवाहित कर सकता है
सूना है देखा है रोशनी को पैदा करते हुए

दूर दूर तक मानव विहीन धरा एक जंगल सी
कुछ जानवर और खर पतवार
मगर क्या जीवन की सम्रिध्हता झलकी
नहीं क्योंकि मानव नहीं था वहाँ
मगर जानवरों के शोर के बीच भी शांति थी ,,,

एक मानव , दो मानव ,असंख्य मानव,
नारी और पुरुष के दल बनते मानव
कई तरह के रूप रंग वाले मानव
मगर रक्त युक्त वाले मानव

इस जमी को बांटते मानव, काटते मानव
खुद केलिए अन्य को जांचते मानव
प्रकृति की आभा को काटते छांटते मानव
हरीतिमा को जलाते हुए राख बनाते मानव...

कहीं एक पत्थर सा कही ठूठ सा मानव
कहीं रुका सा कही भागता मानव
धरा से परे अम्बर पर  दौड़ता मानव
पाताल की गहराई या नभ की ऊंचाई को मापता मानव

मगर है तो ये भी एक शाख के पत्ते की तरह
आखिर टूटेगा ही अंत में फिर वही हश्र ?
दोहराएगा फिर से जीवन की क्रियाये
अभी तो विभक्त होने की दौड़ में शामिल
बस लगा हुआ है दिन रात,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,अंतहीन......मगर......है तो मानव.....

सलाखें =जेल ..

सलाखें =जेल ..

by Suman Mishra on Thursday, 20 September 2012 at 21:34 ·



सलाखों की तपिश महसूस होती है
बचपन में खिड़की की सलाखों तक का सफ़र
युवा मन दायरे से नापता हुआ
मगर उम्र की अंतिम दहलीज जो इसके भीतर
जज्ब हो कर रह गयी है
सलाखों ने रोक रखा है,


समय की सलाखें  मजबूत होती  जाती है
मन की शक्ति जैसे इनमे समाहित होती जाती है
रोक लेती है उस पार जाने को ये सलाखें
बस येही रहो , हम हैं ना तुम्हारे साथ

प्रेम के कैदी सलाखों के पीछे
क्या मिला उन्हें प्रेम में खुद को डुबाकर
एक मिलन के लिए कितनो की जुदाई
जब सलाखों को मुट्ठी में जकड़ा
तभी अपनों से दूरी का एहसास हो गया

एक हद है इन सलाखों की जिसे जेल कहते है
मगर खुले रास्तों पर भी आसामा की ऊंचाई में भी
सलाखों का जाल बिछा हुआ है
इन्हें लांघना होगा अपने मेहनत के सिक्कों से
नहीं लांघ सके तो फिर सलाखों के पीछे


बड़ी मोटी मोटी सलाखें लगी थी
सभी तरह के इंसानों को बांधती हुयी
उनकी आँखें शरीर से बाहर निकलती हुयी
सबको माप लेने को आतुर थीं

कैसे आजादी मिलेगी इन्हें
रोशनी होकर भी मन में अन्धकार था
वो अन्धकार था उसके परिवार के कमरों सा
बूँद बूँद तेल या एक एक UNIT बिजली की बचत

इन मजबूरियों ने भले इंसान को दोषी बना डाला
और स्वेद और आवेग ने अपराधी घोषित कर दिया
कितनी कोशिश की थी की वो बच कर निकल जाएगा
मगर सूत्रों ने उसे सलाखों के पीछे कर दिया

ऐसे ही आवेग का ज्वार रोज ही इंसान झेलता है
बद्द-दुआओं को परिभाषित करता हुआ लोगों पर
मगर हिम्मत है की वहीं की वहीं उसे कुछ करने नहीं देती
उसे रोक देती है बस शब्द के साथ रहो कुछ मत करना
वरना तुम भी इन सलाखों के पीछे आ जाओगे ,,,,

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·


मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित
एक दावानल सा विखरूं मैं
सोने की लंका तार तार
बस रूप विश्व का बदलूँ मैं

नव वस्त्र पहन कोपल फूटे
हम  स्वप्न से जागे हों जैसे
पहली ही नजर में रूप अलग
जल थल के माने अलग थलग


उल्का पातों की बारिश में
मानव अग्नि सा दहक उठे
हर कदम बढे ललकारों से
हुंकारती ध्वनि सा बहक उठे

कण कण धरती दहला दे
बस अग्नि शिखा बन भास्मित हो
सब ताप राख नव निर्मित हो
जीवन का नया स्वरुप सजे


अब अग्नि फूल बन धरती पर
स्वर्णित आभा मदमाती हो
जलना होगा सबको पहले
जीवन की चाह से आप्लावित 


मैं बिखर विखर जाऊं जग में
माना ये ताप का उद्द्बोधन
मैं अग्नि की वीणा से झंकृत
दूं बदल विश्व हो आह्लादित ,

चिंतन कुसुम

चिंतन कुसुम

by Suman Mishra on Sunday, 16 September 2012 at 16:32 ·



चिंतन कुसुम कुम्हला गया था
कल उसे देखा था खिलता हुआ
सूरज को निहार रहा था
अपनी कोमल पंखुरित आँखों से

माना की सूरज प्रबल था
हल्का सा लाल पर सबल था
खुमार था आँखों का वो
वो पुष्प भी तो अटल था


वो झड़ गया था ताप से
उफ़ ! तक नहीं, चुपचाप से   
अपनी दिलेरी में रहा
ना अंत पश्चाताप से


चिंतन कुसुम कुसुमित करू
मानव परिधि में ही रहूँ
कूंची कलम में छिपा है
शतदल से कर्जों को भरू

सूखे हुए बदरंग से
खुशबू उडी सब छोड़ कर
लाऊँ कहाँ से वो सबा
सिल पंखुरी जीवित करू



कभी ना देखा था मैंने
उनकी तरुनाई सुबह सुबह
लाल सूरज के सामने इठलाना
निमीलित आँखें ,खुमारी से तंग


खिड़की से वो मुझे बुलाते थे
मेरी तुलिका की सोच से आगे
उनके रंग जो सूरज भी आत्मसात करले
मेरे चिंतन कुसुम मैं आ रही हूँ

पतिता

पतिता

by Suman Mishra on Saturday, 15 September 2012 at 00:23 ·



आह ! फिर "धिया"  जन्मी क्या  ब्यथा थी?
एक अंतराल के जन्मों की कथा थी वो ?
बस येही ना की जन्म तक अज्ञात थे सभी
एक पतिता का भाग्य या श्रधा से जनी थी

कुछ दिन माँ का आचल छुपा लेगी चेहरा
समय प्रवाह मय फिर वो बांधेगा सेहरा
कदम उल्लास मय , पिया की आस मय
लांघ देहरी गयी , पाकर चौखट नयी

खुशबू की बात हुयी, नया दिन रात नयी
तितली भौरे भूले, मन में बरसात हुयी
आज फागुन का रंग , कल था दीपों का संग
भूल बाबुल का घर, बात कुछ ख़ास हुयी

समय ने मात दिया, उसने ना साथ दिया
अब तो दीवारें हैं , पलकों ने बात कही
दूर तक भेदती हैं , रस्तों से पूछती है
डोली से लाया जो , क्या उससे मुलाक़ात हुयी ?


मन तम को वरन , रस्ता दुर्गम
अब चल दे तू, गह उसकी शरण
सब पार  , ये आँचल तार हुआ
हर स्वप्न ख़तम , नहीं सार हुआ

एक आस बची, हल्की हल्की
कितने पथिकों की ,पदचाप सूनी
पति की "पतिता" ये  नारी नहीं
लेखन विधना , सब उसकी कमी


वो रमता है , सब रूप लिए
पतिता अंजलि में अश्रु भरे
अब उसकी खोज पग छाले पड़े
बदली ना ज़रा , मन आस लिए..

आकांछा अपेक्छाओं के रेतीले पाषाण हैं (श्री प्रतुल मिश्र जी का विचार)

आकांछा अपेक्छाओं के रेतीले पाषाण हैं (श्री प्रतुल मिश्र जी का विचार)

by Suman Mishra on Tuesday, 11 September 2012 at 11:37 ·



आकांछा , अपेक्छा , रेतीले पाषाण
बिना जमीनी माप के महल
बनते ही चले जाते हैं
अट्टालिकाओं की तरह
ऊंचाई को छूते हुए ,
कभी कभी तो "वो" जिसने ...

आकान्छाओं को गढ़ने की शक्ति दी है
वो भी सोचता होगा ...अरे !
मानव की आकांछा , अपेक्छा
तुम मेरे पास तक आगये ?
चलो अब रेतीले पाषाण की तरह
ढेह जाओ और फिर मानव का उच्छ्वास
कमजोर सा, अशक्त सा , हार जाता है
वो उसके आगे,,,,,,,,,,मगर फिर

इतना भी कमजोर नहीं है मानव

जमा दिए हैं पैर धरा पर
आकान्छाओं के बल बूते पर
रोक सको तो रोक ले मुझको
खाली ना लौटूंगा मैं अब

बड़ी वेवफा साँसें हैं ये ,
इसे वफ़ा सिखलाना है अब
तुमने मुझे बनाया है गर
रेत का प्रस्तर नहीं समझना



तिनकों सा मैं उड़ जाऊंगा
गर मैं रेत के महल बनाऊँ
पर जिसका तल , नीव तुम्हारी 
शायद तुम तक पहुँच भी जाऊं


कब तक मानव मैं मानव सा
मेरी आकान्छाएं ढेह्ती सी
चलो ज़रा ढेह कर ही देखें
वही मिलेगा ढ़हने पर भी

चलो बे-खयाली में ही सही उसका ख्याल करें

चलो बे-खयाली में ही सही उसका ख्याल करें

by Suman Mishra on Monday, 10 September 2012 at 00:49 ·



चलो बे-खयाली में ही सही ,
उनका ख्याल करें
आज शायद सूरज देर से निकले 
खुद ही समय से आगाज करें

इन्तजार ही तो है ये जिन्दगी
पलों को बुहार कर आगे बढ़ा दें 
अब ये चादरें जो बिछी ही नहीं
आज मन के आँगन में करीने से डाल दें

ख्यालों की हिलोरें कहीं शांत हो गयी
उन्हें किसी वजूद का मैं नाम जरा दूं
जामा सिला दूं उन्हें पहनाकर नया नया
उस दोस्ती को मैं दोस्तों में शुमार करू


चलचित्र की तरह यादों का वो कुनबा
निकला हुआ है आज अपने रास्ते पे जो
कुछ याद आ गया जो आज कल में था गुजरा
उसको भी मैं इस कारवां में उतार दूं

कहते है समय भरता रहता है हर जख्म
पर उसकी भी डिग्री इलाज . ला-इलाज है
उस समय से ही पूछ लेंगे सांस कितनी है
अब हर समय मुझे सेहत का ख़याल है


एक दौर था की वो मेरे रु-बरू से थे
एक दौर है ये आज ख्यालों की बात है
कब जेहन मेरा रूठ कर ये कहेगा
अब मैं नहीं इसे ख्यालों से निकाल दो

इस याद की गठरी को कितना बढाओगे
कोई किराए का घर वही रख के आओगे
अब याद आगया वो आज बे-ख्याली में
अपना ही घर बड़ा है उसे लेके आओगे,,,,,?????

चलो अभी बस मौन धरें हम, मन का कोलाहल शांत करें हम

चलो अभी बस मौन धरें हम, मन का कोलाहल शांत करें हम

by Suman Mishra on Friday, 7 September 2012 at 00:56 ·



चलो अभी बस मौन धरें हम
मन कोलाहल शांत करें हम
बहुत विकल मन गरल पान सा
अमिय अधर पर आज धरें हम


कोई अनुकृति नहीं तुम्हारी ,
कोई रूप रूबरू  कैसा
कैसे मन ये आकृति खींचे
रंग तूलिका मन को झांसा




मन की एक तरंग को रोकें
भाव नहीं यूँ बहने पाए
कोई लहर पास आ  छू ले
मन महीन सा विखर ना जाए


गाँठ लगा कर इसे रोक लूं
अधर सिले हों, नयन मूँद लूं
कुछ मौनीत शब्दों के गान से
उसके स्वर में खुद को रोप दूं



मौन है संचित कितना मन में
कितनी बातें जज्ब हो गयी
मगर एक लय उस पंछी की
मेरी आँखें सब्ज कर गयी

अन्धकार से लड़ता मानव
कितने  दिवस निभा पायेगा
एक मधुर स्वर या हो क्रंदन
क्या उपहार वो ले जाएगा,
              ****

उस अनंत विन्दु की पहचान दो कहाँ है वो

उस अनंत विन्दु की पहचान दो कहाँ है वो

by Suman Mishra on Wednesday, 5 September 2012 at 00:42 ·


बहुत सुना उस युग गायक को
जिसके स्वर से मेघ थे बरसे 
बहुत सुना उन रागों को भी
इश्वर भी रो पडा था दुःख से

कहाँ आज वो स्वर ऐसा
जो धरती का सीना सिल दे
कहाँ आज वो शब्द मंजिरी
विरानो में पुष्प बिखेरे

उस अनंत विन्दु का परिचय
हमें बता दो हम खोजेंगे
वही रूप उस युग का लायें
जिसके रत्न नहीं मिलते हैं

वेद कौन सा पढ़कर जो
बन जाता है त्रिभुवन दाता सा
किस श्लोक से सांस है मिलती
लौट आता जो छोड़ के  जाता

किस ग्यानी का कहा मैं मानू
जो बतला दे कल क्या होगा
या वो समय रोक कर पूछे
समय आज तक क्यों ना बदला

वो अनंत की सूई कैसी
टिकी कहाँ पे किस मसले पे
कब ये धरती स्थिर होगी
सूर्य की किरने भटकेंगी फिर

प्रश्नों का है एक पुलिंदा
मन मथता है मन को हर दिन
सुदिन कौन सा पल निश्चित है
किसकी बातें लगती दुर्दिन

वो जो प्रश्नों की बौछारें
करता था हर दिन हर पल छिन
मुस्कानों के पीछे छिपकर
दे देता हर उत्तर हर दिन

आज पुष्प है रखा मैंने
ना कुम्हलाये तब ये  कहना
स्याही सूख रही है अब तो
शब्द अनंत विन्दु है लिखना  ,,,,,

पंखुरी से झर गए दल , खुशबू ने क्यों दिशा बदली

पंखुरी से झर गए दल , खुशबू ने क्यों दिशा बदली

by Suman Mishra on Sunday, 2 September 2012 at 15:39 ·

पंखुरी से झर गए दल,
खुशबू ने क्यों दिशा बदली
मन पथ पथिक सा येही है
सब देखता सुनता रहा ...

कभी पथराई सी आँखें
कभी झर झर नीर धारा
कभी कोपल नवलिका सी,
कभी टूटी शाख बाहें



मन सजग है , मन है विह्वल
मन हताशा ठौर ढूढें
कौन सा वो थल है प्रिय वर
मन खुशी के साथ घूमे

रंग दो उसको दल जो टूटा
शाख से निर्जीव होकर
नए रंगों से मिला जो
बन गया वो अलग सा पल



इस धरा से तोड़ नाता
चल दिया जो इस जहां से
अलग सा कोई जहां क्या
बना है जो उसे भाता ?

लौट कर आयेगा वापस
मन तरंगें खींच लेंगी
रास्ता भूला है कुछ दिन
घर का रास्ता ढूढ़ लेंगी 

लोग कहते हैं यथार्थ से परे का धरातल......येही धरती और जीवन है या जीवन से परे के धरातल का क्या रूप होगा,,,,शायद जीवन की अंतिम सोपानो के साथ उस धरातल पर अपनी पैठ बनाने के लिए इंसान जद्दो जेहद में कुछ कुछ समझने लगता होगा मगर वो प्रतिबंधित जिसे दैविक प्रतिबन्ध कहते हैं ,,,,खुलासा नहीं कर पाता होगा,,,,,,,