Monday 8 August 2011

माँ,चाँद और रोटी



आज दूर हूँ घर से पर जब चाँद रु-बरू होता है,
माँ का चेहरा , हाथ की रोटी एक ही जैसा दिखता है,
ये आजादी जश्न सभी अब एक हवा मैं मनाते है,
हमतो कर्म अधीन दूर से "वन्दे मातरम्" ही गाते हैं,

माँ का प्यार और गोल सी रोटी, वो पल बहुत अमोल अभी,
सारा जीवन इसके पीछे, इस सवाल पर सब फिरते,
कुछ भी खा लो, कुछ भी पे लो, स्वाद ना पाओगे ऐसा,
चाँद देखकर जीभ फिराया, सूखे होंठ पे जल तिरता,

कहते हैं ना चाँद पे जीवन ना पानी ना आबो हवा,
फिर ये बूँदें ओस की चमकें सबमें चाँद का अक्स भरा,
बचपन ,यौवन और बुढापा,कोई नहीं फर्क इसमें,
प्यार है माँ का ऐसे शाश्वत, जैसे चाँद का रूप गढा

तारतम्य सब जोड़ो कितना, रोटी चाँद तो एक ही है,
जहां से देखो, एक ही दिखता, मन ही मन है नाप लिया,
इसको देखककर बहुत सुनायी माँ ने कई कहानी थी,
बचपन सबका संचित अब भी,बातें हुयी सयानी सी,




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