Thursday 12 July 2012

वज्र ढूढो पत्थरों में ,शक्ति का आभास होगा,,,


वज्र ढूढो पत्थरों में ,शक्ति का आभास होगा,,,

by Suman Mishra on Tuesday, 3 July 2012 at 11:53 ·



वज्र ढूढो पत्थरों में .
शक्ति का आभास होगा

क्यों शिथिल मन हो रहा तू ,
कृष्ण का परिहास होगा


वो नहीं आयेंगे अब तो ,
युध्ह लड़ने कौरवों से

सारथि तू खुद ही बनकर ,
जीत के तू पास होगा


चक्र्ब्यूहों सी ये दुनिया ,
हर प्रथा अभिमन्यु जैसी

जाने कितने जाल में हैं ,
तोड़ तम उजास होगा



हार कर तू बैठ जाए ,
रथ के पहिये टूट जाए

सूर्य की रश्मि के धागे ,
चल पकड़ प्रकाश होगा



रक्त की शिराएँ निश्छल
जड़ सा जडवत तन है पत्थर
क्या फर्क था जब था जीवन
और अब क्या थमा सा पल

क्यों ना बदला दृश्य को तब
सूनी आँखों बरसा बादल
कौन था जब मन था विह्वल
साँसों में अनगिनत हलचल




अम्बरों पर जल का तांता
बादलों में खुद को बांटा
रूई के फाहे से उड़ते
पत्थरों पर ये बरसते

मगर क्या पत्थर था पिघला
शक्ति का दामन ना विछ्डा
आपदाएं बरसती हैं
ताप से तन झुलसती है



खेल में पत्थर थे जोड़े
आड़े तिरछे छोटे बड़े
खेल में सम एक रसता
हार हो ये नहीं जंचता

पथ सुगम पथरीला रस्ता
दोस्ती या शत्रु  दस्ता
जब जहां ललकार सुनकर
रेत फिसली वज्र चुनता,

डालियों से झूलने का मन +++मन अभी भी वही ठहरा


 डालियों से झूलने का मन +++मन अभी भी वही ठहरा

by Suman Mishra on Monday, 2 July 2012 at 23:10 ·



पीछे मुड़कर देखते हैं ,मन वही पे जा के ठहरा

मैं बुलाऊँ पास उसको , ना सुने जिद्दी या बहरा


झूलता मन डालियों से , उड़ चला वो पांखियों सा
मार कर पेंगे उड़ा वो , पंखुरी सा विखरा बिखरा

छोड़ कर सपनो का बिस्तर , धरा पर पैरों का रखना
ऊंचे नीचे रास्तों पर, क़दमों का गिर गिर के उठना
बचपने की तंग गलियाँ , यहाँ से बस वहाँ फिरना
पक्के आमो की वो बगिया, कच्चे बेरों पर झगड़ना





ताल के पानी की थर थर , बत्तखों के पंख फ़र फ़र
मैं किनारे दर्शकों सी, घंटों उनके संग में रहना
मन नहीं भरता था फिर भी , उनका ही सपने में दिखना
ये मेरे बचपन की बातें , मेरी भी ये ! तुम ना कहना

पाँव पानी की हिलोरें , मछलियों की वो किलोलें
मस्त सा मन झूमता था, हाथ तंग पर मस्त मौला
चंद सिक्के खनखने से, नोट ना ले वो था मैला
एक अंदाजे बया सा, चल कही ले पकड़ थैला



आज वो सब मेरी यादे ,तैरती हैं स्वप्न में ही
आँखों को बस बंद करके ,दूर बचपन मैं अकेला
कितने दृश्यों को मैं सोचूँ , आँख भरकर अश्रु पोछूं
आज कितनी दूर है वो , हर तरफ मसरूफ खेला


आज वो बातें पुरानी, याद में दादी ना नानी
फिर भी उनकी हर कहानी , याद मुझको है जबानी
तुम कहो तो बोल दूं मैं राज दिल के खोल दूं मैं
मैं नहीं बदली ज़रा सी, तुम भी ना बदलो ज़रा सा,,,,

निशा निमंत्रण.....


निशा निमंत्रण.....

by Suman Mishra on Monday, 2 July 2012 at 01:50 ·


अभिमंत्रित स्वर का प्रछालन
सम्मोहन की चादर लिपटी
कुछ शबनम के  कण टाँके है

खुशबू यूँ तन पे बिखरी है


मन विरक्ति से दूर कहीं पर
खोज रहा है नेह चिरंतन
दिवस बीत कर विदा ले रहा
दे आया मन निशा निमंत्रण



सपनो के उस चाँद से पूछो
आज अधूरा क्यों वो आया
रख आया आधा तन अपना
गिरवी में क्या अपना साया


फूलों के दल श्वेत हो गए
रंगों से  परहेज हो गए
निशा अँधेरी गहरी होकर
अंधियारों में भेद खो गए



चलो आज मैं सैर कराऊँ

नए स्वरों में सुर को सजाऊ
मेरे गीतों के शब्दों में
उसके चेहरे को ले आऊँ 

अनजाने जो बात कही थी
सच  की परतों से लिपटी थी
तम ने घेरे खूब कसे थे

मगर चांदनी के डोरे थे








सूर्या रश्मि अब धरा से मिलकर 
दोनों प्रहर बनाकर रस्ता
ये प्रकिरती के नियम अनूठे
छितिज़ धरा से  जब तब मिलता

दे कर जाता वो हार प्यार के
पहनाने वो इन्द्र धनुष से
बारिश की बूदों में सजकर
निशा निमंत्रण दिवा स्वप्न सा....

फिर भी जीने की अभिलाषा है


फिर भी जीने की अभिलाषा है

by Suman Mishra on Sunday, 1 July 2012 at 01:25 ·



कुछ  गर्वित मन हो जाता पर
जीवन के कठिन धरातल से
हर बार गिरा हर बार उठा 
पर हार ना मानी दम्भित से

धिक्कार दिया खुद से खुद को
रे ! कैसा है जो ना संभला
देखो ये निर्ममता मन की
"फिर  भी जीना अभिलाषा है "




माना वो हरित त्रिन सूख गया
एक बूँद गिरी पर शबनम की
सूरज की तपिश और प्यास बड़ी
स्वर्णिम अग्नी बन लपट चढी

नव ऊर्जित शाख का बौना पन
जो संचित था वो हुआ ख़तम
ये मानव ने इश्वर बनकर

शंखों के नाद से प्राण भरे,,,


"फिर से जीने की अभिलाषा है "

 


करतल ध्वनि से उत्साहित मन
जन जन के मन में समाहित मन
भालों पे तिलक ही विजय की बस
जीवन की अभिलाषा अर्पित

इस धरा पे जीवन सत्य ही है
इसको अर्पित जो कर्ज लिया
हर सांस में आशा मन्त्र लिए
फिर जीने की अभिलाषा है,,,,,,
फिर जीने की अभिलाषा है ,,,,,,

निगाहों के सामने से वो चला गया , ठहरा हुआ मन मेरा वो साथ ले गया


निगाहों के सामने से वो चला गया , ठहरा हुआ मन मेरा वो साथ ले गया

by Suman Mishra on Saturday, 30 June 2012 at 01:19 ·



ऐसा ही होता है कभी "मन" नयन से बोला
तुम रुके हो यहाँ पर देखो ये मैं चला
पहुंचूगा उसके पास कितनी दूरिया तो क्या
आँखों को मूद कर तू अपने स्वप्न को सजा


कहने की बात और है आँखों के रास्ते
जो खुद ही चलके इनमे मुसाफिर यहाँ भटके
कितनी अधूरी चाह इनमे है छुपी हुयी
वो कौन सा जादू जो अश्कों से छलक पडे

>

चंचल मन विहग विहग
पंख जैसे तितर बितर
उड़ता है इधर उधर
नयन से संचित हो सरल


रूप राशि विलग विलग
एक ही स्थल पे ठहर
जांचता ये कौन सुघड़
मन का मयूर विकल




 नयन और मन की बात 
एक भाव एक जात
अंखियन से दूर दूर
जाय के मन में समात

भेजत सन्देश प्रहर
विरह नयन बिलख कहर
आवत ना जात कहूं
प्रियतम से प्रीत जहर,,,,,,( प्रीत कैसी विष के बिना , मीरा ना भायी)

सरहद के पार की माँ


सरहद के पार की माँ

by Suman Mishra on Sunday, 24 June 2012 at 01:55 ·


दो आँखों में आशा की किरण
ना धन की चाह बस ये जीवन
आ जाए वापस बाहों में
धड़कन रुक कर चल देगी फिर

क्या अंतर तेरी माँ में है
मिटटी जो बदल गयी है वहाँ
ये ह्रदय वही अधिकार वही
ये धरती फर्क हुयी तो क्या



तारों की बाड़ ने बांटा है
जबरन ये मन का झांसा है
बस एक पुकार सुने ये मन
फिर पुत्र दिशा ना देखेगा

गर आर्त-नाद इस धरती का
खुद अपने लहू से सींचेगा
वर्दी ने दुश्मन बना दिया
ये कर्म से आहुति दे देगा



लो उठा ली मिटटी उस घर की
जी घर पे नाल बंदूकों की
थी टिकी हुयी जाने कबसे
सरहद के पार की धरती की

सरहद के पार की माँ थी मिली
वो भूल गयी अलहदा हूँ मैं
ममता का सूरज दीप्ति भरा
दी दुआ तभी मैं ज़िंदा हूँ


मिट जाए सरहद एक बार
कुछ मोहलत हो इंसानों की
धरती की छाती चौड़ी हो
खाई ना हो दरमयानो की

खुशबू है एक बिलकुल ऐसी
माँ ने माला पहनाई थी
वो फूल खिले हैं पार उधर
उस धरती पर माँ आयी है

तराशा था सुरों में,,,,तुम्हें मगर रंगों में ढल गए


तराशा था सुरों में,,,,तुम्हें मगर रंगों में ढल गए

by Suman Mishra on Friday, 22 June 2012 at 23:47 ·



सात स्वरों की माला से जो सुर निकले थे
इन्द्रधनुष के रंगों में ही सिमट गए वह
कभी कभी ही दीखते हैं बारिश में वो अब
स्वर के मोती मोम में ढल कर पिघल गए है

आशाओं के पंख से ये मन उड़ता था
घनी छाँव बादल के संग संग डग भरता था
जाने क्या पग ठहर गए हैं किसी मोड़ पर
अब मन पांखी नहीं इन्सां बनता है



कभी कभी किरदारों में जीवन दिखता है
प्रश्नों से मन बंट कर खुद पर ही टिकता है
ये तो मेरे जीवन की गाथा ही लिखी हुयी है .
उस किताब का पन्ना  दर्पण सा दिखता है


बचपन से यौवन की एक कहानी ही तो
हर इंसा लिख सकता एक जुबानी ही तो
मगर कहीं एक रिश्ता जो अनबूझ  पहेली
आ आकर मिलता है मन गुनता रहता है




जाने कितने रंग शोखियों के थे संजोये
हर सीपी के मोती मुक्तक से थे पिरोये
आगे का वो स्वप्न दिवा में धूमिल सा है

इसे देखना पड़ता है आँखों के पीछे




चलो मान लेते हैं एक बार वो सप्तक

पंचम सुर का राग और तालों की धक् धक्
भरे नैन से तुम्हें पुकारा था जब मैंने
रंग बिखर जाते हैं अश्कों की आहट से,
               ****
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लो एक दिवस फिर बीत गया इस मन की आपा धापी में


लो एक दिवस फिर बीत गया इस मन की आपा धापी में

by Suman Mishra on Thursday, 21 June 2012 at 00:45 ·


लो एक दिवस फिर बीत गया
इस मन की आपा धापी में
अब स्वप्नों में श्रृंगार करू ,
लौ बुझी नहीं है बाती में

रोशनी प्रखर मन में घूर्णित
हर पल का सार समायोजित
कल आँखों  के खुलते ही मन
भागेगा मिलने कर विस्मित


खट्टे मीठे तीखे अनुभव ,
मन खुश है कुछ अपना सा लगा
इस लाली के रहस्य ने  ही
इस मन का राज छुपा रखा 

हर रोज मैं इससे मिलता हूँ
कुछ दृश्य की बाबत जान सकूं
पर प्रेम की परिभाषा ऐसी
सम्मोहन मन ना भान सकू



कोई स्पर्श नहीं फिर भी
कुछ गहन बात इस प्रेम में है
जाने कितने कारण इसके
अनबूझ पहेली लगता है

हर बार नया दिन आता है
पर हर दिन सूरज एक सा ही
फिर प्रेम की बात अधूरी क्यों
तरकीब चाँद  दे जाता है



मानव मन चंचल होता है
हर तरफ सुकून की बातें हैं
रोयें रोयें में हुक्म भरा
तामील भरी हर रातें हों

अफ़सोस सुकूनी सरहद पर
आपा धापो उसकी मर्जी
हम चैन से सोकर उठे अभी
वो करवट ले कर हंसता है ,,,,(इश्वर का लेखा  )

पहली बारिश एक बूँद की ...धरा और मानव सब त्रिश्नित


पहली बारिश एक बूँद की ...धरा और मानव सब त्रिश्नित

by Suman Mishra on Wednesday, 20 June 2012 at 01:21 ·


पहली बारिश एक बूँद की , मानव और धरा सब तिश्नित
कमल पंखुरी सूख गयी है, भवरे बंद दलों में भर्मित
धरा ताकती प्यासी आँखे लगा टकटकी देख रही है
कब जल की अब धार गिरेगी, बूँद सूख गयी छन से गिरकर


मडराते बादल क्यों आकर क्या ये जायजा लेने आते
कितना जीवन तड़प रहा है, दूर दूर तक धुल उड़ाते
पग कंटक से लगे तो क्या है जल लाना भी  बहुत जरूरी
एक कारवां निकला घर से, दूजे की जाने की बारी




कुछ शबनम की बूंदों ने शब् को आकर था डेरा जमाया
गीली सी पंखुरियां सुरभित, मीठी सी खुशबू  की माया
जब तक जाल रश्मि का ना हो रुक जायेंगी थके पथिक सी
फिर चल देंगी अपने रस्ते , जहां से आयी नेह निभाया

ओ ! बादल क्यों नभ पर ठहरे ,बरसो अब तो धरा पुकारे
शबनम से आकर ठहरे हो , एक बूँद के  बादल जैसे
जीवन कब तक ब्याकुल होगा, नभ भी तो पूजा स्वीकारे
कैसे आयेगा वो मिलने इन्द्रधनुष की सीढ़ी  बनने



हर पुकार में जल की आशा , पुष्प और पत्तों की भाषा
जन जीवन में जल की परिणित, एक बूँद अधरों की शाखा
आंसू जल के स्वेद चमकते , हर जीवन त्रिश्नित है हर पल
समय से ना बरसे जो बादल ,फिर कैसा ये कर्म का अर्पण


शहर गाँव का धू धू जलना , सूर्या प्रखर किरणों का तपना
अब कुंदन सा कौन बनेगा, जहां राख का जारी झड़ना
किस मकरंद से विहग तृप्त हो, फल की आशा कौन करेगा
एक बूँद स्वाति की जैसे ये विशाल जन कहाँ गिनेगा



"आहटे मौजूद हैं जानी भी है पहचानी भी है...मगर वो आहट नहीं साया कोई >>>>>>


"आहटे मौजूद हैं जानी भी है पहचानी भी है...मगर वो आहट नहीं साया कोई >>>>>>

by Suman Mishra on Monday, 18 June 2012 at 11:56 ·



आहटों का दौर है  हर बात आहट से शुरू है

इन्तजार उसका उसकी आहटों से ख़तम हो
जाने की तो बात क्या वो गया है मुख मोड़ कर
एक पल में ही मुड़ा वो मौन का घर तोड़ कर



आहटों में शब्द का व्यंजन बड़ा ही  अलग है
स्वर की पहचानो में कुछ मध्यम कहीं ऊंचा रहा
हर जगह गतिमान है दिन रात का ये शहर भी
सो गया इंसान तो आहट का मंजर और था
 


शब्द की माला बनाकर पहन लूं मैं उसकी खातिर 
कोरे पन्नो को सजाया छुप के मैंने उसकी खातिर
ये चला उड़ कर वहाँ पर जहा उसका रास्ता था
आहटों में अब मैं ढूढूं  उसके मन का वास्ता जो था

अजब सा संयोग है ये, यहाँ से उसको मैं बांचूं
उसकी हर तहरीर दिखती आँखों के कोरो में जांचूं
पत्र की मियाद उतनी ये गया वो लौट आये
आहटों की परख मुझको भीड़ से उसको मैं छाटूं


मन के अंतर में दबी है आहटें अपनों की जज्बित
ये कथा सी याद रहती हैं हमेशा खुद में संचित
शोर कितना भी हो कैसा मन वही पे जा के रुकता
लेके आता है कहीं भी आहटों के बिन वो छुपता

स्वप्न में भी उसकी आहट अकन कर मन सजग रहता
आँख गर ये ना खुली तो , वो भला कैसे मिलेगा
चल ज़रा आवाज दे लें ,कोई आहट क्यों ना आयी
भूल कर वो बदल जाए , अपने सुर उससे मिलाये



मगर कुछ आहट नहीं बस मौन के घर से हैं आती
साया सी वो हर तरफ से साथ में   चलती ही जाती
मन विरक्ति और विशादित ना ! नहीं ! वो क्यों है आती
लौट जाने को कहो उनसे , जो असहज भाव लाती

खुद नहीं उनको समझ है मोह से मानव भरा है
वो निरंकुश प्रस्तरों सी उस पे छैनी हैं चलाती
छलनी हो जाता ह्रदय ये, मगर कोई सुन ना पाता
अंत में हर आहटों से छूटता है जग का नाता

नाकाम इश्क.....यादों की धरोहर


नाकाम इश्क.....यादों की धरोहर

by Suman Mishra on Saturday, 16 June 2012 at 01:49 ·
 

नाकाम इश्क   यादों की धरोहर ,
छुपा हुआ कुछ तीर नज़र का,
हर पल जैसे रंग बदलता
इन्द्र धनुष हो  बारह रंग का

कोई चाभी नही है इसकी
जब मन हो बंद हो जाते हैं
एक बार जो मन की दस्तक
खुद ताले यूँ खुल जाते है




हर लम्हा उसको जीता हूँ
मौन से मैं बाते करता हूँ
कुछ यादों के पंख सुनहले
जोड़ जोड़ कर उड़ लेता हूँ


एक सुरंग और मैं तनहा
दुनिया भी तनहा लगती है
धड धड करती रेल की पटरी
जहां पे कल थी, वही पडी है

मैं भी इनके जैसा इस पल
उस पल यहाँ वहाँ जा आया
आखें ,मन सब कही अलग थे
पर मैं येही या मेरा साया




इन यादों का येही बसेरा
लिपटी हैं ये बेले बनकर
मैं स्थिर सा अचल खडा हूँ
याद की बारिश मन के तीरे

एक धरोहर  हैं जन्मों की
मिलना और विछ्ड़ना जारी
नए रूप पर याद वही है
हर जन्मों की एक कहानी




मत सोचो ये लोग हैं कहते
क्या साँसों को रोक सकूं मैं
सांस जो मेरी शब्द बने तो
पूरी कहानी सुन लेना तुम

एक झोंके से उड़ा ले गया
दूर दूर तक पता नही है
तरु के तट पर बैठ पथिक वो
खुद को खुद में ढूढ़ रहा है

मैंने चाँद को चाहा था पर सूरज ने साथ निभाया मेरा


मैंने चाँद को चाहा था पर सूरज ने साथ निभाया मेरा

by Suman Mishra on Friday, 15 June 2012 at 14:10 ·




मैंने चाँद को चाहा था, पर सूरज ने साथ निभाया मेरा
चाँद चांदनी दोनों ही थे , मेरे साथ ना रहा अकेला
बादल ओढ़ के सूरज ने बन चाँद किया था मेरा फेरा
मैंने तब मुख फेर लिया था , कसम दिलाई हुआ सवेरा,,,


कभी निशान्वित कितनी बातें, चाँद ने सुनकर भरी थी हामी
कुछ कहने सुनने में बीती , रात चांदनी बस मनमानी
कैसा रिश्ता धवल चांदनी मै क्या जानो मेरा है वो
वो भी तो पूरा था उस दिन , आधा बंटा प्रेम की हानी



तिरते चाँद का अक्स अजब सा जल में लहराता मंधिम सा
चांदनी की थी  शाल फैलाई सोया था उस रात जमी पर
जिसने देखा वही नहाया , वो है सभी का पर ना मेरा
वादा जो उसने किया था, नाम का ही पल में था तोड़ा





सूर्य की ज्वलित आभा , कोमल स्पर्श लाल 
अक्स उसका छणिक सा ही मन की तासीर अजब 
सारे दिन फैला जाल   तम का करता  शिकार 
मन को ऊर्जान्वित कर, चाँद भी है उसका ढाल

दिन के भुलावे में, हलचल बाजारों में
फिरता है मन पांखी, कर्म कारागारों में
कोशिश भी जारी है, चाँद वांद भूल गया
दिवस और सूर्य आज , साथ सभागारों में



       धराशायी मन
कर्ता वो धर्ता वो खेल बस निराले हैं
उसकी हर रचना अटल, हम तो निवाले हैं
मैंने क्या चाहा और उसने है सोच लिया
उसको जो करना था , करके मुख मोड़ लिया

अंतहीन तथ्य है ये सूरज और चाँद अटल
इंसान मन भाव पथिक,ऊपर के नियम सख्त
मेरी जो चाह बनी , जुडी है उसी से कही
माना की नाम अलग. मगर वो कहाँ है बिलग,

एहसानों का दौर है ये , कुछ बात करो अरमानो की


एहसानों का दौर है ये , कुछ बात करो अरमानो की

by Suman Mishra on Wednesday, 13 June 2012 at 11:08 ·


एहसानों का दौर है ये , कुछ बात करो अरमानो की
जिसमे मेरे सपने अपने, और तुम अपने नजरानो की,
कहते हैं लोग तुम ना होते ,फिर मेरा क्या होता बोलो
मैंने खुद को आगे रखा , अपनी शेखी पहचानो की


वो नाखुदा दिखा ना तब ? जब पैरों में छाले फूटे थे
अब आये हैं तोहफे लेकर , बन मिसाल मेहरबानो की
वो सरहद पर  हम अपने घर पर, दिल में खौफ भरा मेरे
एहसान देश पे उसका है , मेरा घर के दरबानो पर



सर ऊंचा कर हम चलते हैं, संयम वाले तो हम भी हैं
जब रक्त बहा उन वीरों का, कुछ बात ज़रा हम्मे भी है
बस मौक़ा आने दो ,घूघट के पट खुल जायेंगे
ये तीर नज़र ज्वाला बनकर बरसेगी शत्रु पर तीरों सी,


मत कह देना अबला जैसी, ये रक्त हमारा लाल ही है ,
अरि का मस्तक झुक जाएगा, इस देश की शान प्रणाम ही है
कब तक वो वार करेगा यूँ, अंदरूनी ताकत सोएगी
अब जाग रहा है मन पौरुष , जीवन सस्ता बस आन ही है 





कितने भी देश विदेशी से हम लगें मगर ये ह्रदय अलग
ये पाँव लगे हैं धरती से, इसकी गरिमा मन मस्तक पर
ये स्वप्न नहीं जो टूट गया , ये अपनी एक हकीकत है
हर काम अलग सबसे पहले ,मन प्राण से इसकी इबादत है

क़दमों को ठोकर लग जाए मत रुकना देने सहारे को
हम खुद ही से उठ जायेंगे , आगे समतल या पहाड़ों पे
बस आने दो उस समय को तुम जो शाब्दिक रेखा खींची है
अछरशः सत्य कहा मैंने , हर हिन्दुस्तानी वालों से

पैबंद कपड़ों पर या शब्दों पर


पैबंद कपड़ों पर या शब्दों पर

by Suman Mishra on Monday, 11 June 2012 at 00:54 ·


बड़ा ही कठिन शब्द जिससे दूर ही रहना
वरना ये जिन्दगी में बढ़ते ही जायेंगे

एक बार गर लगा तो फिर आसान नहीं है
अरमानो के हैं खून ,कोई अरमान नहीं है

ये तो दिखा ही देगा की हम किस जगह खड़े
पैबंद लगा लिया, कोई एहसान नहीं है



कल सड़क पर बिखरा हुआ एक घोंसला देखा
तिनकों से था भरा , मगर पंखों से था सिला

खुद के ही तन से निकला हुआ टुकडा  लगाया
इंसान की बाबत , ये पैबंद से नुमाया

कुछ भी हो मगर इससे शर्मसार नहीं है
बिखरा है ये हवा से, पर अधिकार अब भी है




माना की वो गया है बहुत दूर अब मुझसे
लौटेगा या नहीं बस इन्तजार हो गया

मेरी निगाह में मेरी तासीर कुछ ऐसी
ये जिंदगी परिंदा मन रुखसार हो गया

कुछ रिश्तों में पैबंद लगा कर ही रोक लो
वो गया और आया एक ब्यापार हो गया
              *****