Thursday 19 June 2014

चल आज कहीं तू स्वर्ण खोज

मैं मन तडाग में विहर रहा, 
जल राशि नहीं बस रज ही रज 
मैं पथिक दिवास्वप्नो का हूँ 
ले जाऊंगा गठरी में रोप 

दे दूंगा भूखे बच्चों को 
गठरी की गाँठ है तनिक कठिन 
उनके दुर्बल से हाथ मलिन 
खोलेंगे अथक परिश्रम से 

कुछ भाव हीन, कुछ मर्म बंधे 
मुखरित होंगे उनके मुखपर 
पर आशा होगी विस्फारित 
नयनो से अधर तक एक बोल 

फिर वही निमंत्रण निशा मौन 
चांदनी और किरणों के मोल 
फिर एक विहान पुकारेगा 
चल आज कहीं तू स्वर्ण खोज

वो लेखाकार हमारा है

मैं अभिभूत नहीं हूँ वादों से 
परिणाम जो उसपे छोड़ा है 
मैं कर्म करू हर पल हर क्षण 
वो लेखाकार हमारा है

वो जीवन देकर अंतहीन 
भ्रमरो सा मन कर देता है 
उसकी अथाह इस सत्ता में 
कस्तूरी मृग मैं भटक रहा 

वो अटल रहा ध्रुव तारे सा 
हम डगमग हर पल होते हैं 
फिर भी आश्वस्त हूँ आज तलक 
अंतिम निर्णय वो ही तो लेता है

Friday 13 June 2014

अबोध सत्य


ओ ! री शानू ,रेनू चल खेलेगे
तू अपनी गुडिया ले अइयो
मेरा गुड्डा देखेगा
थोड़ा बातें वातें कर लेगा
फिर सोचेगा उसके बारे में

अरे जा जा...तेरा गुड्डा कुछ भी सोचे
मेरी गुडिया शर्मीली सी
वो कैसे आएगी मिलने
कह दे अपने गुड्डे से
घोड़ी चढ़ कर ले जाए वो

दीवारों के साथ बतकही
दिवा स्वप्न की तरह से बातें
पीछे से माँ का आ जाना
पीछे छूट गयी बारातें 

 
 नहीं नहीं ये स्वप्न नहीं था
सच था बस आगे पड़ाव का
एक बड़ा सा चौराहा आगे
हुए पराये  संग  निहोरे

मेहँदी, बिंदी, गहने , चन्दा
सब के सब अब साथ रहेंगे
सूरज लाल उवेगा जब तब
दुवा सलाम रोज ही होगी

फिर काहे मन हुवा पराया
सात जनम के बचन साथ ले
अर्थी और पालकी दोनों
अर्थ अलग पर साथ हैं दोनों

Tuesday 10 June 2014

अपभ्रंश ... नारी

हर तरफ अपभ्रंश जैसी
रूप में साकार है
कोई मदिरा, कोई अमृत
हर दिशा आकार है

ढल गयी हर रूप में वो
मान फिर भी ना मिला
अश्रु में या सीप मोती
बह गया या पिघल गया

क्या ग्रसित है शाप से या
कर्म की ही एक रीत सी
वचनों से ये बंधी क्यों है
मिथक शब्दित प्रीति सी

अबला कह लो , सबला कह दो
भोग्या या शक्ति हो
हर तरफ एक दंश सी है
नारी है या है व्यथा ?

Sunday 1 June 2014

जलकर जो बस राख बनेगी

रत्न जडित नीलम सी आँखें
केश मेघ के  जल से तिरोहित
भीगे भीगे केश राशि से
जल की बूँदें बरखा बरसी

बार बार मुख आलिंगन कर
कितने नयनो की छवि बनती
कितने स्वप्नों की परिभाषा
अलग हुयी ना कभी ना टूटी

गर्व गर्विता रही निशा सी
धीमी गति शीतल सी वाणी
पूर्ण चन्द्र की चंद्रिका जैसी
यज्ञ आहुति निर्मल कायान्वित


बीता कल वो एक नाम था
आज अग्नि की सखी बनी है
जाने किस विकृति मन दुर्भिछ
इस चेहरे पर हवन किया है

वो जिसने था उसे बनाया
वो भी नहीं देखता अब तो
फेर के कबसे मुख बैठा है
नहीं आ सका कृष्ण ही बनके

उसकी चीखें मर्मान्तक थीं
कितने थे दुह्शाशन जग में
जला रहे थे इस काया को
कितने अट्टाहास जगे थे

जल कर काया ख़ाक हो गयी
जर्जर तन की माप हो गयी
वो जो अग्नि शिखा सी जलती
जल कर जैसे राख हो गयी