Friday 10 August 2012

वास्ता सच्चाई से....मगर हम कितने सच्चे हैं,,,,,??? by Suman Mishra on Wednesday, 1 August 2012 at 00:39 · आँखों को बंद करें , और खुद अपने मन की सारी भावनाएं उजागर हो जाती हैं, हम शब्दों में स्वर और व्यंजन की चाशनी लगा कर, नए नए रंगों से उसे रंग कर , नए परिधानों में सजा कर पेश करें मगर सच्चाई बहुत सीधी साधी होती है,,,,मैंने सच्चाई के लिए कहा , इंसान के लिए नहीं,,,क्योंकि इंसान सच्चाई नहीं जानता,,,जानता तो उसका मौन है...जो वो कभी सामने नहीं लाना चाहता,,,सही से कभी वास्ता नहीं और अंततः वो गलत को सही सिद्ध करने में माहिर हो जाता है....आज क्या क़ानून सच की लड़ाई लड़ता है अगर लड़ता तो खुले आम अपराधी घूमते,,,क़ानून की आड़ में चुनाव लड़ते..या क़ानून का कोई विसात है क्या माहिर अगर हुए तो फिर जंग हो या सौदा सब बाँट कर ले आओ ,घर घर बजेगा डंका क्या रंक और क्या राजा, एक जगह सब मिलेंगे बस कुछ समय की बातें , बढ़ने दो ज़रा पौधा ये बंश बेल जैसी बढ़ती ही जा रही हैं एक धरा और हम हैं सहती ही जा रही है सच्चाई का बखेड़ा छोड़ो भी क्या करें हम बस काम बने अपना, बस अंजाम पा रही है अविश्वास , दंभ, कुत्सित विचार, बिना पंख पंछी की तरह स्वछंदता ..मगर सच्चाई वही हाड मांस का शरीर इश्वर ने सबके अंग प्रत्यंग एक से बनाए , रक्त का समीकरण वही ,सच्चाई ही सच्चाई मगर हम झूठ के पुतले ज्ञान के लिए गुरु चाहिए,,,अरे पहले खुद को सत्य मानो की हमारा पालक जिसने हमें भेजा है , हम अपने होने की पुष्टि करें हाँ हम तुम्हारी तरह ही इंसान हैं , फिर गुरु फिर इश्वर...मगर हम सच्चाई और सच्चाई के करीब फिर भी अनदेखा करते रहते है,,, वो जश्न था कही पर आया हुआ था कोई व जश्न था कही पर..निकला वो लम्बी दूरी बस दो तरह की गति से इंसान भ्रम में जीता कभी चाँद से गुजरता कभी सूर्य जज्ब करता कुछ सडको पर कतारें ,इंसान से हैं दीखते कुछ शामियानो में हैं ..हैवान से हैं दीखते कुछ मदिरों में झुकते .भगवान् या फ़रिश्ते कुछ दहशतों से दुबके ..पैगाम देते फिरते गौतम की तरह निकलूँ , फिर सत्य हो या इश्वर कोई तो फिर मिलेगा, दर्शन ही या हो धोखा हम तो निकल पड़े जब, करती निगाहें पीछा जब तक याहां खड़े थे, साए ने भी ना देखा सोकर उठो तो सोचो , मन साथ में या सोया वो आज लेके आना कल राह में था खोया कुछ सोचकर कहोगे ,अब वो नहीं है पाना मंजिल नयी बनायी , सच को है ढूढ़ लाना अब सत्य को रंगों तुम, धरती से आसमा तक , बन इंद्र धनुष निकले , मिटने ना दो जहां से फिर सीढियां लगा कर जाना नयी दुनिया में सब ज्ञान के परिंदे , फिरते कहाँ कहाँ पर तपता है जिसका जीवन, सच मिलता है उसीको ना अरण्य ना ही उपवन, खोजे कहाँ किसीका हम भी तलाश में है गर मिल गया किसी दिन फिर खुद से भी मिलेंगे , चेहरे पे अक्स सच का

वास्ता सच्चाई से....मगर हम कितने सच्चे हैं,,,,,???

by Suman Mishra on Wednesday, 1 August 2012 at 00:39 ·


आँखों को बंद करें , और खुद अपने मन की सारी भावनाएं उजागर हो जाती हैं, हम शब्दों में स्वर और
व्यंजन की चाशनी लगा कर, नए नए रंगों से उसे रंग कर , नए परिधानों में सजा कर पेश करें मगर
सच्चाई बहुत सीधी साधी होती है,,,,मैंने सच्चाई के लिए कहा , इंसान के लिए नहीं,,,क्योंकि इंसान सच्चाई

नहीं जानता,,,जानता तो उसका मौन है...जो वो कभी सामने नहीं लाना चाहता,,,सही से कभी वास्ता नहीं
और अंततः वो गलत को सही सिद्ध करने में माहिर हो जाता है....आज क्या क़ानून सच की लड़ाई लड़ता है
अगर लड़ता तो खुले आम अपराधी घूमते,,,क़ानून की आड़ में चुनाव लड़ते..या क़ानून का कोई विसात है क्या

माहिर अगर हुए तो फिर जंग हो या सौदा
सब बाँट कर ले आओ ,घर घर बजेगा डंका
क्या रंक और क्या राजा, एक जगह सब मिलेंगे
बस कुछ समय की बातें , बढ़ने दो ज़रा पौधा

ये बंश बेल जैसी बढ़ती ही जा रही हैं
एक धरा और हम हैं सहती ही जा रही है
सच्चाई का बखेड़ा छोड़ो भी क्या करें हम
बस काम बने अपना, बस अंजाम पा रही है




अविश्वास , दंभ, कुत्सित विचार, बिना पंख पंछी की तरह स्वछंदता ..मगर सच्चाई वही हाड मांस का शरीर
इश्वर ने सबके अंग प्रत्यंग एक से बनाए , रक्त का समीकरण वही ,सच्चाई ही सच्चाई मगर हम झूठ के पुतले
ज्ञान के लिए गुरु चाहिए,,,अरे पहले खुद को सत्य मानो की हमारा पालक जिसने हमें भेजा है , हम अपने होने
की पुष्टि करें हाँ हम तुम्हारी तरह ही इंसान हैं , फिर गुरु फिर इश्वर...मगर हम सच्चाई और सच्चाई के करीब
 फिर भी अनदेखा करते रहते है,,,


वो जश्न था कही पर आया हुआ था कोई
व जश्न था कही पर..निकला वो लम्बी दूरी
बस दो तरह की गति से इंसान भ्रम में जीता
कभी चाँद से गुजरता कभी सूर्य जज्ब करता


कुछ सडको पर कतारें ,इंसान से हैं दीखते
कुछ शामियानो में हैं ..हैवान से हैं दीखते
कुछ मदिरों में झुकते .भगवान् या फ़रिश्ते
कुछ दहशतों से दुबके ..पैगाम देते फिरते



गौतम की तरह निकलूँ , फिर सत्य हो या इश्वर
कोई तो फिर मिलेगा, दर्शन ही या हो  धोखा
हम तो निकल पड़े जब, करती निगाहें पीछा
जब तक याहां खड़े थे, साए ने भी ना देखा

सोकर उठो तो सोचो , मन साथ में या सोया
वो आज लेके आना कल राह में था खोया
कुछ सोचकर कहोगे ,अब वो नहीं है पाना
मंजिल नयी बनायी , सच को है ढूढ़ लाना



अब सत्य को रंगों तुम, धरती से आसमा  तक ,

बन इंद्र धनुष निकले , मिटने ना दो जहां से

फिर सीढियां लगा कर जाना नयी दुनिया में
सब  ज्ञान के परिंदे , फिरते कहाँ कहाँ पर


तपता है जिसका जीवन, सच मिलता है उसीको

ना अरण्य ना ही उपवन, खोजे कहाँ किसीका
हम भी तलाश में है गर मिल गया किसी दिन
फिर खुद से भी मिलेंगे , चेहरे पे अक्स सच का

खुशबुए चमन ,,,

खुशबुए चमन ,,,

by Suman Mishra on Sunday, 29 July 2012 at 14:56 ·


शब्दों ने मुझे फूल कहा , गुलशन का गुल कहा
मगर अभी तो मैं फूल बेचने में मशगूल हूँ
कुछ पैसे जो आये उनसे चूल्हा जला
और फिर फूल खरीदे गए,,,,


कुछ फूल चदे मंदिर में, कुछ मजारों पर
कुछ वेणी में गूथे गए, कुछ हाथों के गजरे
गजरे,,,,,,?????????????????????????
अरे वही ! गुलों की तारीफ़ में शेर कहने वालों के लिए


कभी कभी कतारों में बैठी हुयी ,,,
चुना जाता है इन्हें दरिंदों के हाथों में जाने के लिए
इस खुशबुए चमन में गंदगी की तावीर के लिए
अँधेरी गलियों के दरमियान उनके घर के रास्ते

कोफ़्त...कहाँ ..कैसे,,,,,बस समझने की बात है
चूल्हा ,कपड़ा ,धुवां उठना चाहिए घरों से,
खुशबू आनी चाहिए ,पेट भरा होना चाहिए,,,
मगर,,,किसी के जलने का धुंआ ,,,,,,,????



एक फूल या या उसके जैसा ही पत्ता
शाख से अलग,,मंजिल मिलेगी कभी ?
नहीं ! पैरों के तले रौंदने वाले मिलेंगे,,,
कोई उठा कर सड़क के किनारे राफ्ता करेगा,,,,


मत कहो गुले  गुलशन ,ये दरियाफ्त है
बस इज्जत बख्शो , इन छोटे हाथों को
ये मिन्नतों के लिए नहीं, अधिकारों के लिए हैं
माना की फूल बेचते हैं,कल बन्दूक बेचेंगे,,,,,,

मैंने अब मोड़ा है खुद को दावानल से सरिता तक

 

मैंने अब मोड़ा है खुद को दावानल से सरिता तक

by Suman Mishra on Wednesday, 25 July 2012 at 01:01 ·

कितना आहत होता है मन
जब अग्नि रेख हम पार करें
पैरों के छाले फूट रहे
लपटों में जन प्रस्थान करें

ये मायावी दुनिया की गली
आगे संकरी होती ही गयी
मन भटक भटक कर थकता है
फिर भी सपनो में  कहाँ कमी


कितने शब्दों की बलि चढ़ती
कितनी घटनाएँ सच लगती
पर हम मानव और तुम इंसा
कैसे माने ये सच की सदी

वो लिखने में यूँ डूब गया  
अब दावानल की फ़िक्र कहाँ
धू धू जलता जीवन कैसे
अपनी जेबों में ठूंस रहा


तूलिका बना तू अग्नि रूप
जिसमे सागर लहराता हो
जीवन से हार चला मरने
सागर से मिल तर जाता हो

मैं भी दावानल बीच खडी
अम्बर को ताक थकी अलकें
मैं मोडू  खुद को सरिता तक
रश्मि की डोर पे पाँव धरू
"अब और नहीं बस प्रण बाकी "

बस आज येही सोचा समझा
ज्वाला से  पंख जो  झुलस गए
क्यों  तम में खोज रहा उसको
चांदनी मिली तो प्राण भरे

शबनम के मोती सा बिखरता मन समेटो तो

शबनम के मोती सा बिखरता मन समेटो तो

by Suman Mishra on Monday, 23 July 2012 at 00:37 ·

चलते चलते थम जाते हैं
कदम यहाँ पर जाने क्यों
अरे ! रुको तुम  कहा आ गए 
छोड़ के अपने मन को यूँ,

अक्स वही है तन भी साँचा
फिर मन क्यों मेरा छूट गया
बीत गया जीवन का हर पल
एक येही मन साथ रहा

मन पल को दोहरा लेता था
समय तीर सा निकल गया
मन का साथ जो छूटा पल भर
सब हाथों से  फिसल गया


मन की थाप से आँख खुली  तो
जग का बाना बदला था
लहर प्रलय सब मन के आगे
जीवन भंगुर कहता था

मैंने रोका हाथ पकड़ कर
थोड़ा मन को समझाया
वो जो जुड़ा था परम दिव्य से
लौ में उसकी दिखलाया

क्या तेरा और क्या मेरा है
ये मन की पहचान है क्या
आज यहाँ ये शब्द समर्पित
कल जाने उनवान बना


वीत राग और दीप राग
रागों में सुर और  समय दिखा
चल मन को तू जोड़ ले खुद से
हर दर्पण को मैं ही मिला


मन शबनम के मोती सा है
हर वासन में ढल जाए
अगर हटा आधार कहीं से
कण कण बिखर कहा पाए

नहीं अलग मेरे पथ से ये
जिधर कदम का रुख होगा
ना बहकेगा ना छूटेगा
साथ हमारे  प्रण जैसा ( ये मन )

कराहती भूख और जज्बा ये जिन्दगी का

कराहती भूख और जज्बा ये जिन्दगी का

by Suman Mishra on Saturday, 21 July 2012 at 01:03 ·

माना की अभिनय जरूरी है
उस दृश्य को जीने के साबके के लिए
कैसी सोना पड़ता है भूखे पेट
नीद आये भी तो आये  कैसे ,

कभी नाराजगी में खाना नहीं खाया मैंने
मगर वो भूख थी की बढ़ती चली आ रही थी
और ये बच्चे जिनके छत का आसरा भी नहीं
भूख का सामना ये दर बदर हो कर लेते हैं


आज हम तौलते है शब्दों में वजन भर भर कर
मगर क्या देश में कातर निगाहें कम हो गयीं
ज़रा पूछो उनसे क्या तुमने पढ़ा है मुझको
बेरुखी झट से अपने हाथ को फैला देगी


एक कतरा जो गिरा मोती सा
जाने कितने यूँही बिखर के सूख गए
ले आओ सीपियाँ ज़रा समुन्दर से
उसी में रोप लेंगे कुछ तो ठौर मिल ही गया

कौन कहता है हमें दर्द का पता ही नहीं
ये तो अभिनय ही है हम मस्त नज़र रखते हैं
मगर जब आँखों के परदे गिरे अंधरे में
उनके घर टिमटिमाती सी रौशनी पे अशर लिखते है


Alice Lo
बड़ी अजीब सी आवाज इन  कराहों की
हर गली नुक्कड़ों पे ये जो मंजर दीखते हैं
अजब सी दुनिया और उनमे शामिल हम भी है
आँख पे चश्मों की परतों के पीछे छुपते हैं

नहीं कभी नहीं की दर्द का पता ही नहीं
हमने भी दर्द के तदवीर में  काटी रातें,
मगर ये भूख के आलम में पलते इंसा नुमा
गजब का हौसला जज्बा जिगर में रखते है

कलम आज क्यों मौन पडी है

कलम आज क्यों मौन पडी है

by Suman Mishra on Wednesday, 18 July 2012 at 11:42 ·

कलम आज क्यों मौन हो गयी
बिन तरकश के द्रोण हो गयी
अर्जुन ने बदला जो पाला
आशा धरती से ब्योम हो गयी


चित्र लिखित सी रह जाती है
द्रश्यों का एक पटल बनाकर
क्यों सजीव की आशा मथती

रुक कर आगे डग ना भरती




लिख जो बोल बने जन जन के
मन और प्राण पगे शब्दों से
शब्दों से जो बाण चलेंगे
धधक उठेंगे मुख पर्वत के

कहीं ज्वलित दावानल होगा
अरि की घात , प्रपात गिरेगा
कहीं पुष्प से महक चुराकर

हवा बहे मन सुरभित होगा




कही ठगी सी रुक कर सोचे
क्या लिखना है मुझसे पूछे
माँ की ममता या वो बचपन
लिख दू क्या उसका अपनापन

अरी ! कलम मत सोच अभी तू
बढ़ती जा धवलित पन्नो पर
इन शब्दों में बाँध  बज्र को
फेंक शलाका अरि मस्तक पर

लिख जो इश्वर के मन भाये
एक पुकार वो दौड़ा आये
शब्दों में बस वही दिखेगा
जिसको अर्पित मन ये लिखेगा

आम आदमी....

आम आदमी....

by Suman Mishra on Tuesday, 17 July 2012 at 23:46 ·


हम आम आदमी  तुम आम आदमी
क्यों,,,,क्योंकि इस देश के नागरिक जो हैं
जिस तरह से सहन शीलता भरी हममे
घोटालों का दर्शक बस आम आदमी


स्वतंत्रता दिवस आम आदमी के लिए ही
कभी एक दिन के लिए आजाद जो हुआ था
खुद पे ही खुद के लोगों का शाशन
कुर्सी  देकर उन्हे खुद को बर्बाद जो किया था

आज धूप में खडा हुआ, नंगे पाँव चलता हुआ
लम्बे झोले को लेकर घर से निकला हुआ
भावों की मर्मान्तक मार खाता हुआ
खुद के भाग्य को कोसता हुआ आम आदमी



बड़ी बड़ी गाड़ियों के बीच से खुद को बचाता हुआ
ये आम आदमी कहीं विलुप्त के कगार पर तो नहीं
उसके सपने बहुत ऊँचें है
सिनेमा के पोस्टर्स में खुद को देखता हुआ
झल्लाहट में उलझता हुआ आम आदमी

सपनो की सीढ़ी चढ़ पायेगा क्या ?
माँ बाप के ख़्वाबों के घरोंदे में रहता हुआ
बचपन ख़तम कर अब बड़ा भी हो जा
ये आम आदमी ने अपने बच्चो को सिखाया है


सुबह के उजाले से रात के अँधेरे तक
शब्दों के जखीरे से , सच्चाई के मंजर तक
दौड़ता , भागता, रुकता हुआ आम आदमी
कहीं बे-परवाही, कहीं रोष से भरा हुआ
ये  आम आदमी वो आम आदमी


पूछो ज़रा कहाँ जाता है रोज
पूछो तो कहाँ दबिश बजाता है
सूरज की किरने और माथे पर बल
किसी तरह दिन बिताता ये आम आदमी

मन के झकोरे,,,,स्नेह के सकोरे...(पहली बारिश सावन की )

मन के झकोरे,,,,स्नेह के सकोरे...(पहली बारिश सावन की )

by Suman Mishra on Sunday, 15 July 2012 at 17:01 ·


वो बचपन के बादल और थे
काले काले भूरे भूरे
मन भी उड़ता था संग उनके
मुट्ठी भर चने के दानो के संग,

खिड़की पे बैठकर
हाथों को बाहर करना
अम्बर से धरती का लंबा सफ़र
बूंदों को पकड़ने की कोशिश


बड़ी नाकाम सी कोशिश
उन बूंदों को पकड़ने की
उनके रुख पे नजर मेरी
हरे पत्तों में सिमटने की

आती हैं झड़ी सी बनकर
आसमा की चादर से
धरा पे बिखर  गयी
या मोती सी पात के सकोरे में



मन ये करता है मेरा
रुक के ज़रा बात करू
ज़रा सा ठहरी अगर
इनको आत्मसात करू

थोड़ी मिटटी की ललक
लग गयी थी पैरों में
आज बारिश के इन मोतियों में
भीगूँ ,,खुद को आभास करू            

 
अब तो बरसात के माने बदल गए हैं
सोंधी सी महक के मुहाने बदल गए हैं
झूले नहीं पेड़ पर क्यों ? शाखें कमजोर हैं?
झूलने की बात अलग अफसाने बदल गए हैं

बारिशों के रुख पर आसमान की तपिश है
मुट्ठी में बेगारी , आशा की ही कशिश  है
कुछ भी हो मन का मयूर नाचता है
मेरी इस बात में इन्तजार की खलिश है ,,,,

अब वो सकोरा कहाँ स्नेह जो छलकता सा
भीगी हुयी  धरती के कोपलों सा सजता था
हरी हरी दूब और पानी की बूँद लसी
मेघ और नयन एक , जब तब बरसता था,,

हे ! प्रलय के देवता तुम शांति का उपहार दे दो

हे ! प्रलय के देवता तुम शांति का उपहार दे दो

by Suman Mishra on Saturday, 14 July 2012 at 00:34 ·




हे प्रलय के देवता तुम
शांति का उपहार दे दो

कर रहा संहार मानव ,
सबक का आकार दे दो


चल अचल ढेरों पे बैठा,
हनन कर अधिकार लेते

दर्शकों से देखते तुम,
क्यों नहीं प्रतिकार करते



जल पे तुम कलि नृत्य करते
थल पे नटनागर बने हो,
उलझती गंगा की धारा
प्रलय का आह्वान सुनते

क्यों नहीं तुम समझ लेते
भक्त के मन की व्यथा को
छोड़ कर कैलाश प्यारा
आज आ जाओ धरा पर





आपदा के महल निर्मित ,
भय की पगडंडी बनी है

पथिक मन रहता यहीं पर,
जाने का है ताना बाना


क्यों नहीं ये ठौर अपनी,
तुम बसों अब साथ सबके

एक युग की बात बीती ,
अब रचो नव युग येही से

बरखा रानी जरा झूम के बरसो...अब समझ में आया इस बारिश का जादू

बरखा रानी जरा झूम के बरसो...अब समझ में आया इस बारिश का जादू

by Suman Mishra on Saturday, 7 July 2012 at 00:35 ·



बरखा रानी जरा झूम के बरसो....ये गीत अक्सर सूना है पुराने गीतों के संग्रह से
मगर ,,महानगरों की बर्षा वो बर्षा नहीं जिसका आनद लिया जा सके , शायद  हंसेगे
आप लोग,,,,कहने का मतलब ये है...सुबह तो कभी आती ही नहीं , चटकीली  धुप,
आराम से निकलो फाइलों के बीच सर खपाने , मगर शाम होते ही जैसे ही फाइलों से सर बाहर
और आसमान को देखा तो रंगत ही बदली नजर आएगी..मगर क्या करना है दो पहिया ,
चार पहिया , छे पहिया वाहनों के बीच से बारिश की फुहारों के बीच , आधी सड़कों पर पानी
के रेले को धकेलते हुए घर तो पहुचना ही है...और जब रविवार आता है तो उस दिन सूर्य
महाराज गायब और और बारिश का अंदाजे बयां जारी....जाने क्या दुश्मनी है बड़ी
आधुनिक बरसात है यहाँ ...मगर बरसो मेघों यहाँ दछिन भारत में तो बरसाती नदिया
ही हैं , नहीं बरसोगे तो क्या होगा जन जीवन का,

आज समझे क्या है मतलब जल नहीं जीवन है ये
हे पवन थम कर ज़रा इन बादलों को रोक लो
बरसने  दो जम के इनको , धरा रुखी सूखती
खींचते  हैं जल निरंतर , खोजना पड़ता है अब
कुए सूखे पडे कबसे , गर्त के परिवेश से



आज समझे क्या है मतलब जल नहीं जीवन है ये
मत बहाओ यूँ निरर्थक, बूँद इसकी कम जो है
खेल पानी के थे खेले  , अब नहीं संभव यहाँ,
पाँव जलते हैं धरा पर, प्यास दर्शाती है माँ 

हर तरफ पानी की बातें, क्या नहीं निदान है ?
जाने कितने लोग प्यासे मर रहे अनुमान है ?
बचपने की बात छोड़ो , छतरियों को तान लो
आई ना बरसात फिर  तो धुप का उपहार लो 



लम्बी स्कूल की छुट्टियों के बाद जब हम स्कूल की तरफ नयी किताबों
की सुगंध में सराबोर होने को आतुर होते थे तो ये बरसात सब मजा किरकिरा कर
देती थी और कई दिन वापस घर में बोर होना पड़ता था मगर उन भावनाओं  से
यथार्थ का क्या लेना देना ,,,सत्य तो ये है की आज लोग हाल चाल  से पहले मौसम
कैसा है जरूर पूछते हैं और येही जीवन में सबसे महत्व पूर्ण प्रश्न बन गया है ..

पानी से बिजली....बस इतना ही कहना काफी है...हलक तक पहुँचाना
मुश्किल हो रहा है तो बिजली कहाँ से सोचेंगे,,,अगर ऐसा ही रहा आगामी
दिनों में ,,,कृत्रिम बादल....बरखा और इंसान भी मशीनों के ही होने लगेगे,,,,


वो देखो बादल का टुकड़ा ,
तैर रहा है जाने कबसे
जाने कितनी शकल बनाता
हंसता है और मुंह को चिढाता

उसे कहाँ चिंता है हमारी
धरती फटती जर्जर  सारी
आज ज़रा नत मस्तक होकर
सोचें बूंदों की हो क्यारी

उग जायेगी बूँदें उनमे
शोख रंग सब झिलमिल सपने
तोड़ेंगे हम अल सबेरे
ले आयेगे भरकर झोले



और अंत में इस दुर्लभ चित्र को देखिये, चित्रकार ने कितनी ख़ूबसूरती से वर्षा के आगमन को चित्रित किया है..


दामिनी की चमक चमकी
स्वर्ण सी बूंदों में ढलती  
पग बढ़ा तू वेग से अब
देख बरखा कितनी बरसी


खेत सारे भर गए हैं
दादुरों के स्वर नए हैं
चल चलें पैगाम सुन ले
सूखी धरती नम  हुयी है..

आ गयी बरखा सुहानी
पत्तों के रंग हुए धानी

एक मग कोफी का लेकर
आज ऑफिस  "SAY NO दीवानी "