Friday 10 February 2012

उसके सतरंगी रंग,,,मेरा मन फिर क्यों रीता


उसके सतरंगी रंग,,,मेरा मन फिर क्यों रीता

by Suman Mishra on Wednesday, 25 January 2012 at 01:23 ·


मन मयूर की पांखी छु ली, रंग लगे कुछ सतरंगी से,
कभी ये नीला आभा देता, कभी बसन्ती  मन को हर ले,
कहीं श्याम का मन मतवाला, कहीं पे मीरा का विष प्याला
हारे हैं तो सभी प्रेम से, पी ली प्रेम से अमृत हाला .


दिल की दुनिया बड़ी अजब है, इसकी गति है मन मतवारी,
कभी प्रेम ये पुरुष पगा है ,कही रूप धरता ये नारी
नैन सुधा से भरमाये से, अविरल नीर की गति है न्यारी,
कहीं निश्चला नदी ये आंसू, कही मौन से लगते भारी



विरह के पांखी उड़ते फिरते, खोज रहे प्रिय यहाँ वहा पे
कुछ पलाश की अग्नि समेटे , देख रहे पथ मन उजियारी
दीप नैन में जलते रहते, नीर भरे हैं तेल नहीं है
मार्ग ना हो अवरुध्ह प्रिये का मन ही मन कुछ बोल रहे हैं.

हर आवाज में नाम है उसका ,भाषा के सुर प्रेम  गीत हैं,
उस तक पहुँच के रस्ता  भूले, शायद वो मनमीत नहीं है
किन किन राहों से गुजरा वो, किनसे मिला जो खबर ना आयी
रंग हैं बिखरे प्रेम सघन में, बीन रही वो चुन चुन पाती


दीन मलिन सी बनकर क्या खो देगी वो सारे अपने रंग,
ह्रदय के स्पंदन की गति से छीन ही लेगी वो अपना मन
क्यों न्योछावर वो उसपर , क्यों बे-रंग रुधिर अब उसका,
किसने उसके रंग ये छीने, मौन किया हर पल बे-मन का

दीप शिखा की है उजास अब भर लो खोल अंजुरी से ही
ना फिसलेगी किरण कहीं से, कस कर मुट्ठी बाँध लो जी से,
नहीं रेत सा प्रेम करो जो रुके नहीं बयार में बहके,
दो थोड़ा ठहराव ज़रा सा, राधा प्रेम कृष्ण के जैसा.

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