Thursday 29 May 2014

पंख का अतीत


कल मैंने एक पंख था देखा
उड़ आया था तेज हवा में
रात को चुपके खिड़की से यूँ
शांत पडा था बिन साँसों के

कब तक तन से जुड़ा हुआ था
आज अलग फिर भी ना भूला
क्या यादों का लेके जखीरा
अलग हुआ अंतिम साँसों में

मैंने जब अतीत में झांका
कितने आसमान थे नापे
अंतिम है फिर भी है जीवित
मानव तन का पखेरू लागे

काश ये जीवन अपना भी हो
जीवन के अंशों में जीवित
इधर उधर कुछ नजर तो आये
आभासित कुछ मन को अर्जित

Wednesday 28 May 2014

संबल

ये जमी बंट चुकी है,
आसमा पर भी कई आंखें हैं
बस परिंदों का आना जाना
या फिर जीवन का आवागमन

मत बांटो इस सत्ता को
खुशियों की परिधि को
थोड़ा और बड़ा करो
नि:श्वास छोड़ता इंसान
अब आसमा ना देखे

बढ़ो एक कदम आगे
मिलाकर हाथ शक्ति दो
संयम की मोहर थमाओ
खुशी की जागीर नाम करो
ताकि उसे विश्वास हो
दुःख में वो अकेला नहीं ...

Friday 23 May 2014

संभल कर रहना बिटिया तुम,

संभल कर रहना बिटिया तुम,
तुम्हारा इस तरह छुपना ?
क्यों छुपना, अभी तो तुम बच्ची हो
तुम तितली की तरह उडो
फूलों के दल गिनो
रेत से शंख बीनो
मगर तुम्हारा इस तरह छुपना
क्या लोगों में स्नेह ख़तम हो चला है
तुम बिटिया नहीं हाड मांस का पुतला हो
जब तक छुपी हो अच्छा है
वरना नजरें बींधने लगेगी
आंकने लगेगी तुम्हारे कद को
ये पेड़ की ओट काम नहीं आएगी
सड़क की भीड़ तमाशाई बन जायेगी
लोगों को बिटिया नहीं लड़की याद रह जाएगी

Thursday 22 May 2014

कुछ टूटता रहता है

जब कुछ टूटता है मुझमे
शोर बहुत परेशान करता है
लोगों का हो - हल्ला
बेवजह हंसी के फ़ौवारे
कहते हैं वेवजह भी हंसना चाहिए

फिर मुझे क्यों नहीं आती ?
क्या ? अरे वही ! बेवजह हंसी
टूट कर विखरने के बाद
हंसी की कोई वजह नहीं होती

मौन और चिंतन दोनों घेरते हैं
मैं अभिमन्यु नहीं बन सकती
मगर वो विषादों का चक्रव्यूह
बहुत कडा घेरा होता है

टूट रहा है अब भी अनवरत
मौन की चीत्कार परेशान करती हैं
कुछ कदम चल कर देखूं
शायद जोड़ सकूं खुद से खुद को

Monday 19 May 2014

मेरा वजूद









मेरे वजूद में अभी दो चार इल्म जुड़ने दो
फिर पुकारना मुझे कबूल होगा तभी
अभी कुछ भी नहीं हूँ बस एक परिंदा हूँ
मुझे पंखों से कुछ ऊंची उड़ान भरने दो


यहाँ जमी पे सभी लोग एक जैसे हैं
अपने मजमून लिए बंद हैं लिफ़ाफ़े में
मुझे अल्फाज समझने में ज़रा वक्त लगे
उनकी मज्मूनियत भी मुझे ज़रा पढने दो

कभी हारा कभी जीता हुआ महसूस करू
ये रिवाजों का सफ़र तय मुझे भी करने दो
कभी काँटों से तार तार हुआ जख्म मेरा
बिना मरहम के मुझे भी ज़रा सँवरने दो

इन्तजार

इन्तजार

12 February 2014 at 09:56


इन्तजार मेरा हमेशा से ही प्रिय विषय रहा है.....आज फिर वही शब्द ,,,को अनुभूति में उतार रही हूँ

एक विरहनी राधा या मीरा सी कोई
कहने को तो लोग कहेंगे इन्जार ही
 मगर उन्हें जो मिला क्या कोई जान सका है
शब्दों में ही सही नहीं कोई भान सका है ?

एक शून्य और दो नयनो की आवाजाही
 जाने क्या क्या भाव तैरते श्वेत सी स्याही
क्या भावी सपने को लेकर इन्जार है  
या फिर वर्तमान में कोई प्रेम का राही




माना की हर दिन सूरज से आँख मिलाऊँ
मैं मानव वो परम ब्रम्ह मन को समझाऊँ
फिर भी इन्तजार उसका उसको जानू मैं
तप्त दहक़ की ज्वाला में खुद को सानू मैं

शब्दों का आवाहन उसकी रश्मि रेनू से
जो बंधती है आकर मुझसे तप्त तीर से
आकर लिपट लिपट कर कहती अपना लो अब
मुझे छुडाओ तेज ज्वलित दग्धित बंधन से




कही कहीं इस इन्तजार में दर्द की रेखा ,
 नयन सजल या पत्थर से किसने है देखा
क्या निरीह आँखों में आशा की किरने  
या फिर जीवन का अंदेशा ये फिर जी लें

मन राही सा भटक रहा है पथ अनजाने  
कौन गया फिर ना आया, दिन लगा बीतने
इन्तजार हर पल उसका आस है बाकी  
माँ की ममता तड़प रही जैसे बिन पांखी



मगर कहाँ ये परिधि कभी पूरी हो पायी
 इन्जार की कड़ी अभी तक ना जुड़ पायी  
वही सूर्य जो रोज रात को है छुप जाता  
दिखलाता पथ फिर मुझमे ही गुम हो जाता

मैं भी चाँद के तकिये पर फिर सर रख लूंगा
मन भरमा कर स्वप्नों में थोड़ा घूमूंगा  
मत कर तू मन आस किसी की देख ले सच को 
 इन्तजार बस शब्द ..कर्म ही सच जी सच को

एक सुनहली धुप की खातिर

एक सुनहली धुप की खातिर

6 February 2014 at 09:05

सूना है सूरज भी तरसा है धुप की खातिर
नख शिख उसका लाल लाल वो ठंडाया सा  
कैसे बरसायेगा अब वो धुप के टुकड़े  
जब खुद ही सर्दी में लिपटा बर्फाया सा

एक सुनहला धुप का टुकडा काश जो मिलता
बर्फ के टुकड़े में लिपटा बीज भी खिलता
 तोड़ पारदर्शी दीवारे जन्म वो लेता
एक फूल ही सही मगर थोडा जी लेता


अभी सर्द की गर्द है फ़ैली धरा गगन पर  
स्वप्न नहीं आयेंगे अब तो जमे कहीं पर  
अस्वीकार किया क़दमों में स्वप्न विहरना
ओढ़ तिमिर की चादर सोया नयन विछौना

शब्द यात्रा रुकी रही स्वप्नों की खातिर
नहीं कल्पना गढ़ पायी मन रूप अव्यस्थित
ऊँगली के पोरों ने कम्पन से गति थामी
क्या जीवन है थमा थमा सा किसका अनुगामी ?


चलो धुप का आवाहन कर चाय बनाएं
थोड़ा गटके आत्मित मन को राह दिखाएँ
गर्म भाप से सूरज थोडा पी ही लेगा
ऊर्जा के कतरे बुनकर वो जी ही लेगा 

क्या मानव ,क्या इश्वर दोनों ही पर्यायी
एक दूसरे के परिपूरक और अनुयायी
गर होता इंसान नहीं तो क्या वो होता
नहीं पूजता कोई फिर तो .......................................?????

जब बरबस ही आँखें नम हो गयी

जब बरबस ही आँखें नम हो गयी

6 December 2013 at 15:21


माना की   पड़ाव   जीवन  का , 
येही क्या कम है , दोनों साथ हैं ,
 कितने खूबसूरत हैं दोनों,  
कितना प्रेम , वात्सल्य, सुख, दुःख  
सिमटा हुआ इन हाथों में,
इनका स्पर्श हजारों दुआओं की तरह है

बस देखकर आँखें नम हो गयीं

एक युग और ये दो जोड़ी  हाथ ,  
कितनी राहों पर आवागमन ,
मर्मों का खजाना ,  
एक वंश का विस्तार  
अब अशक्तता की राह पर  
मगर ईश्वरीय शक्ति से सराबोर... 

बस सोचकर आँखें नम हो गयी



कितना अकेलापन, आकाश जैसा सूनापन
तारों की जमात आस पास  
मगर अम्बर निरीह, निःशब्द  
अपने चिंतन के समुद्र में डूबा हुआ
 बस आहों से अपनी अनुभूति कराता हुआ
जीवन संगिनी के सान्धिय, दुलार को तरसता हुआ  
जग की नियामतें बेकार हैं अब तो
मन मिलन की उहापोह में

जाने क्यों आँखों के कोरों में आंसू हैं ....



माना की कुछ वर्ष की रेखा ,  
हाथ में खींची थी इश्वर ने  
पर क्या ये सीधी  चलती है ?  
धूमिल होती है हर पल में  
माना की ये जग अथाह है,  
है अनन्त इसकी परिभाषा  
फिर क्यों बांधा है मानव को
एक समय जीवन बिन आशा

त्वरित, वेग, गतिमान था जीवन
 अब अशक्त है तन से मन से  
वो जो बीता था हँसते ही  
अब मन रीता है इस पल से

आँखों की कोरों में जल है  
एक बूँद जो ढलक ना जाए
 क्यों अपने मर्मो का मरहम मैं
जग से आश्वासन पाऊँ
रहने दो ..अब बचा है कितना  
खुद से ही खुद को पार लगाऊँ


फिर भी दुःख तो होता ही है....आँखों में जल रोता ही

अंतर्द्वंद......(गोवा केस पर एक ख़याल )

अंतर्द्वंद......(गोवा केस पर एक ख़याल )

3 December 2013 at 22:22

अंतर्द्वंदों की आंधी में , 
सूरज भी नीला दिखता है , 
निशा अभी तक नहीं गयी है ,
तम से ही हर दृश्य पगा है ,.   

एक एक कर प्रश्न पूछती ,
किरणों का आना जाना है  ,
कैसे मन की गाँठ खुलेगी  , 
कैसे खुद को समझाना अब ??? 



कितने अस्थी पंजर बिखरे  , 
एक ह्रदय के कितने टुकड़े  ,
तार तार ये सारे रिश्ते  ,
पलकों का काँटों पर टिकना  , 

रस्तों पर शीशे बिखरे हैं , 
जाने कौन दिशा में जाना  ,
सारी राहें हैं अनजानी   ,
क्या ये सारा जग बेगाना  ,  



मंजिल को है रौंदा जिसने ,
वो गरूर का मारा होगा , 
मेरे पथ में गरिमा अब भी   , 
वही पथिक खुद हारा होगा , 

मेरे स्वप्न सत्य के पथ पर ,
फिर् जागने पर क्योंकर डरना  , 
माना की कमजोर पथिक हूँ  , 
तम को ओढ़ किरण से लड़ना  , 

कितने मर्म हैं आहत मेरे  , 
भर जायेगे समय लगेगा  , 
पर ये दोष तुम्हीं पर होगा  ,
मेरे संग बस सत्य रहेगा.....  



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सतरंगी सपने आखों में......सूरज ही तो है अब मुझमे

सतरंगी सपने आखों में......सूरज ही तो है अब मुझमे

12 November 2013 at 22:26




सतरंगी सपने आँखों में
सूरज ही तो है अब मुझमे
प्रहर प्रहर ये जलता मुझमे
तम का काम नहीं जीवन में

गहन अन्धेरा कब ठहरा है
मुझसे ही रस्ता पूछेगा ,
इन्द्रधनुष के रंग में ढलकर
मेरे सपनो में विखरा है


ये सतरंगी तार के धागे
रेशम से फैले हैं मन पर
बस उजास तक सब्र करो तुम 
गिन लेना रंगों को जी भर


आज धरा पर नयी ओढनी
विछ जायेगी शुभ मुहूर्त में
बाँट बाँट कर थोड़ा थोड़ा
आत्मसात हम इन्द्रधनुष में

कुछ आशा के दीप प्रज्वलित
छन छन दीप्ति बढ़ेगी इनकी
एक नया दिन नयी दिशा में
कितने सूरज चमकेंगे फिर

नहीं जलेगा जीवन अब फिर
हम तो सारथि रश्मि प्रभा के
पुष्प पल्लवित सूर्य मुखी से
स्वप्न सार्थक रेनू धनुष से.

ओ छितिज के पार वाले.....नील अम्बर पुष्प धारे

ओ छितिज के पार वाले.....नील अम्बर पुष्प धारे

1 September 2013 at 15:37




ओ ! छितिज़ के पार वाले,
नील अम्बर पुष्प धारे,
परावर्तित रौशनी में भी,
श्याम तुम तो निरे कारे

दृग हमारे खोजते हैं ,
धरा से उस छितिज पारे,
तुम बसे हो गर कणों में,
क्यों नहीं चमके सितारे?



नीला अम्बर , हरी यमुना,
श्याम सी वृंदा भी कारी , 
वो कदम्ब अब भी वही है
तुम थे हरदम जहां ठाडे ,

सुर बहे थे माझी के संग,
तुम जो थे पतवार म्हारे,
रंग बदलो आ मिलो अब,
 नैन सूर्य तुम पे वारे..

उस बारिश में.....इस बारिश में

उस बारिश में.....इस बारिश में

6 July 2013 at 00:28
 उस बारिश में......

उस बारिश में सुबह खिली थी
कचनारों के रंग रंगी थी ,
 रात की रानी महकी महकी.  
बूँद बूँद में रची बसी थी ,

पाँव के नीचे दूब हरी सी ,
मलमल सा एहसास दे गयी,
 पहन ओस के मोती गहने,
 छुवन ज़रा सी शोर कर गयी .

कुछ पांखी जागे हैं फिरसे ,
 नीड नए कुछ और तन गए,
एक नयी दुनिया रचने को,
मीत से अब मनमीत बन गए





कितने फूल  खिले धरती पर,
इंद्र धनुष के रंग भी कम हैं,
मन मयूर भी पंख लगाकर,
अम्बर पर बादल से उड़ गए.


गहरे काले भूरे फाहे उड़कर
ठहरे देखो कौन सी ठांव,
उनकी मर्जी आज येही पर
बरसो जमके अपने गाँव.

मन बहका या बचपन लौटा ,
दोनों ही तो एक ही जैसे,
आँखों को अम्बर पर रखकर,
कहाँ कहाँ देखो ये भटके.


इस बारिश में........................................... (-:



शब्द नहीं हैं मेरे पास.......


कभी कभी नम हो जाती है आँखें मेरी

कभी कभी नम हो जाती है आँखें मेरी

23 May 2013 at 00:45

कभी कभी नम हो जाती हैं आँखें मेरी
हो सकता है यादों का बहना ही सही हो
ठोस धरातल पांवों  में छाले  गहरे  हैं
छला गया मन शायद मुझको सीख येही है

जाने कितने पल जीवित हो उठते हैं
कही मर्म पहरे के भीतर दबे दबे है
वो जज्बा जो अब नादानी सा लगता है
आज याद बन बहना शायद रीत येही है

कभी कभी कोई जीवन बस एक छलावा
जाने कितने सपने लेकर सो जाता है
मगर येही आँखों के रस्ते बूंदों सा वो
आ आ कर अपनी यादों को धो जाता है



जाने कितने रिश्तों की माला सा जीवन
जाने कितने मनके इसमें लगे हुए हैं
इस  जीवन के पार जो रिश्ते चले गए हैं
ह्रदय द्वार पर साँसों के संग गुंथे हुए हैं


आज ह्रदय क्यों बेकल बेसुध आँखें धुंधली
खोज रही हैं उस को जो अब कहीं नहीं है
एक प्रवाह जो लहरों सा अश्कों में उमडा
नैनों  के कोरों में आ कर लौट रही है

पुतली यूँ बिन साँसों के

पुतली यूँ बिन साँसों के

22 May 2013 at 00:37


स्वप्नों के उन्माद से जन्मी
काया ये जब दमक गयी
पलकों के पीछे से छिपकर
लुका छिपी सा खेल गयी

कभी देखती  उगता सूरज
कभी चाँद से कुछ बातें
कभी एक दर्पण और वो बस
घंटों मन की सौगातें

पायल और कंगन की ध्वनि से
सप्त सुरों के गीत मिले
हर सरगम में नए राग थे
हर पंक्ति मन मीत के थे

नारी और व्यथा का रिश्ता
हाथों की रेखा धुंधली
नहीं दिखी थी पहले ये तो
आज अचानक गहरी सी


         *****
सांस, आस के रिश्ते को
घुट घुट कर तयं करती है
अपने जीवन के रस्ते को
नाप नाप पग धरती है

मेहंदी और महावर के संग
शहनाई की स्वर लहरी
मगर कहीं उत्ताल तरंगें
डगमग जीवन मय पी के

क्या वो देख रहा है इसको
कठपुतली के नाचों सा
क्यों धागों में बंधी रहेगी
पुतली यूँ बिन साँसों के

कल सपनो पर पैर पड गया, बिखर गए सब टुकड़े होकर ...

कल सपनो पर पैर पड गया, बिखर गए सब टुकड़े होकर ...

7 May 2013 at 14:47


कल सपनो पर पैर पड गया
बिखर गए सब टुकड़े होकर
बंद पलक भीगी भीगी सी
लगी जोड़ने उन टुकड़ों को

एक एक टुकड़े को छूकर ,
था एहसास मुझे उस पल का
जो बातें करते थे मुझसे ,
आज थे विखरे रुसवा होकर

कुछ पलाश के फूल से हलके
दग्धित थे वो अग्नि शिखा से
टुकड़े थे वो सृजन सरीखे
छुई मुई से सिकुड़े छन में



चेहरे पर शिकनों की छाया
पल पल उनका  जाना आना
लकों के पीछे की घटना

चेहरे पर आकर लिख जाना,

सुबह और बस एक उबासी
चेहरे पर शब्दों की कहानी
धुल जायेंगे स्वप्न लिपि के
खोल द्वार पलकों के तिमिर से



हर जीवन स्वप्नों की कहानी
आज है मुखरित कल है जबानी
हर स्तर पर स्वप्न अलग से
सब कुछ जैसे प्रेम कहानी

छीनित काया, दुर्बल सा वह
स्वप्नों की किरचों सा फैला
हर टुकड़े में घाव भरे है
तभी ना सोया सुबह का भूला

जागी आँखों से देखा था
आज तलक वो स्वप्न ना जागा 
अब चिर निद्रा ले आयेगी
स्वप्नित मन का उड़न खटोला.///

चीत्कार

चीत्कार

2 May 2013 at 12:52




मौन धूसरित चित्कारों से
खिन्नित मन क्या हंस पायेगा ?
एक कली खिल गयी तो क्या ?
पूरा गुलशन  क्या जस  पायेगा ?

फूल देवता के चरणों पर
कैसे हम अब अर्पण  कर दें ,
कितने परिवारों के आंसू,
चरणों में हम तर्पण कर दें

एक मौन चीत्कार कर रहा
लाखों मन धिक्कार कर रहा
हत्यारों को इंगित कर के
खुद पर अत्याचार कर रहा

 
छोड़ मौन संगीने पकड़ो ,
मुट्ठी को बांधो अब मन से
कब तक सूरज के पहरे पर
शांत चित्त अब पडे रहोगे

योग ,साधना , क्या है ये सब
कहाँ हंसी की शाख है फूली
कोई पुष्प ना खिल पायेंगे
एक एक कर कली है तोड़ी

तोपों के मुंह मत बांधो अब
ज्वलित द्वार का मार्ग खोल दो
चिंगारी या अंगारे हों
दुश्मन का घर बार तोड़ दो



देश कहाँ अब बसे दरिन्दे
कितने हैं नापाक इरादे
गद्दारी रक्तिम हो चली है
शेर बने हैं गीदड़ सारे

इस धरती की मिटटी रुसवा
कितनी घायल चीत्कारों से
एक एक कर पोंछूं  आंसू
या फिर ह्रदय वेदना गाऊँ ?

बे-रहमी गर उन्हें है भाती
निर्ममता हमको भी  आती
शोले बरसेंगे अब हमसे
दया , प्रेम अब नहीं सुहाती


गर वो कुचलेंगे फूलों को
रक्तिम कर देंगे हम धरती
याद रहे नापाक इरादे ..
कहीं रहो तुम ...नहीं बचोगे ,,,,जय हिन्द

डर लगता है जग की नजरों से

डर लगता है जग की नजरों से

29 April 2013 at 22:31


डर लगता है जग की नजरों से
दहलीज से बाहर की नजरों से,
डर लगता है किसी की थपकी से
कोई सीमा ही नहीं है इस डर का


जन्म का सिलसिला लगातार
कहीं श्यामा तो कही श्याम
कामुकता और पिपासा नहीं विराम
गर्मी और सर्दी या कैसा भी हो तापमान

अब तो मलाला भी मलाल करेगी
खुद के देश को भूल कर
वो हमारी ही मिसाल देगी
कहेगी ,,,,उस देश में नहीं ..डर  लगता है




आज हर तरफ बदहवासी है
तुम्हारी सलामती ही शाबासी है
जितनी साँसे है बस महफूज़ रहे
कहने को जिंदगी ज़रा सी है

हिदायतों का दौर है समझो
कदम कदम समझ के चलना है
अब तो ऊँगली भी थामना मुश्किल 
कहीं जंगल शहर के रस्ते में 




कहाँ अबला, अबोध, अब वो रही
हवस की एक कहानी ही तो
रोज ख़बरों में सांस लेती हुयी
नाम और शकल से गुमनाम रही

शहर की रोशनी धुंधली सी है
कही पे दर्द की बारिश है हुयी
सिमट गयी है खुद से खुद में ही
होश अब तक नहीं ...डर लगता है

वक्त के बाद मिलेंगे तुमसे

वक्त के बाद मिलेंगे तुमसे

12 April 2013 at 15:56

वक्त के बाद मिलेंगे तुमसे
ख्वाहिश थी तुम्हारी मगर इस जनम नहीं
जीवन बंधन में बंधे हैं हम
और तुम भी शायद
ख्वाहिशों के अम्बार हैं जीवन में
उसमे तुम्हारा ख़याल ही नहीं रहा
क्या कहा ? तुमने पुकारा था सदियों से
शायद मैंने ही नहीं सूना था ,
पर्वतों की ऊंचाई, नदियों की गहराई
समुद्र की ऊंची लहरें
सब को पार करना पड़ता है आवाज को
मुझ तक आते आते छीड हो चुकी थी
शायद नहीं सूना होगा मैंने

कभी कभी मन को शांत करना पड़ता है
सारी दुविधाओं को एक तरफ रखना पड़ता है
शोर से दूर , बस हवा और बादल के साथ
शांत नदी के शांत पारदर्शी जल के साथ
किनारे पर बैठकर तुम्हारी आवाज सुनने की कोशिश में
हल्की हल्की सी दस्तक मन पर होती है
एक छन लगा था मुझ तक पहुचने में
मगर ऐसा कहाँ संभव है अब
तुम पुकारते रहे उस छोर से हमेशा
कोशिश करूंगी पार कर आने की
इस युग में इस जीवन को जी तो लूं



एक सूखा हुआ फूल अभी भी पन्नो में हैं
जिनमे से दम घुटने की आवाज आती है
पन्नो से आजाद होना चाहता है
कहता है स्वतन्त्र कर दो मुझे
दफ़न करने से क्या फायदा
मुझे देखकर यादों को हवा मिलेगी
मुझसे हमेशा नाराज रहता है
आज उसे आजाद कर ही दूं क्या ?

मगर तुम्हारी आवाज की बे-दखली
मत करना आजाद उस फूल को
मेरी आवाज टूट जायेगी , बिखर जायेगी
अस्तित्व बचेगा ही नहीं , ख़तम हो जाएगा
मगर ये क्या ? ये सूखा फूल , फिर से ताजा हो गया
मेरे आंसू की बूँदें उस पन्ने पर ?
शायद खारे जल से जीवन पा गया
नहीं अब मत पुकारो मुझे
मैं अलग हूँ , बिलकुल अलग तुमसे
तुम फूल में हो, अल्प जीवन के साथ
मैं दीर्घ जीवन के साथ
मैं इस वक्त के साथ हूँ , हमेशा जब तक हूँ
तुम मिलना मुझे वक्त के बाद ये वादा है मेरा

बरसात कैसी कैसी

बरसात कैसी कैसी

4 April 2013 at 11:31

हर बार की बरसात में वो बात नहीं है
पानी की बूँद जल गयी फ़रियाद वही है
पहले तो नाव कागजों की तैर जाती थी
कुछ दूर तलक नजरों में फिर दूर जाती थी
अब कहा मवस्सर हमें वो बूँद का रेला
पलकों पे ठहरी बूँद अब इफराद नहीं है !!


उफ़ वो कहानिया जब आँखें भीग जाती थी
बीते पलों को पास लाके सींच जाती थीं
लगता था वो किरदार कहीं मैं ही तो नहीं
जो पास नहीं उससे मिलकर रीझ जाती थीं
बारिश में धुली सी सड़क अब याद ही नहीं
क़दमों के निशा ठहरे हैं ये वाक्यात ही नहीं





तुमसे मिले थे जब जूनून था बहुत जादा
हर दिन मलाल था नहीं मिल पाए आज भी
सुनते हैं कही दूर थी बारिश गजब की यूँ
पर यहाँ तो बादल जमे थे बर्फ की तरह
पत्थर पे बूंदों ने कई प्रहार थे किये
फिर भी नहीं टूटे , कोई दरकार ही नहीं

अब भी कहीं सूना है बारिश थी झूम कर
बौछार बहुत तेज थी आकर पडी मुझपर
एक बूँद ठहरकर कहीं कुछ  देर थी रुकी
लगती थी टूटे शाख सी, भटकी सी सहर पर
अंजाम होगा क्या मिलेगी धूल में जाकर
फिर से मिलेगी मुझसे शायद बात येही है 



बरसात कैसी कैसी ,,,