Saturday 25 October 2014

मुड़ा तुड़ा सा ख़त सही


वो मुड़ा तुड़ा सा ख़त सही
कुछ यादें इसमें कैद है
ये रहेगी अंतिम सांस तक
इसे खुलने से परहेज है

कभी मन हुआ तो सोचकर
कभी मन हुआ तो देखकर
क्या लिखा है इसमें यादकर
जह्नो में बस अवशेष है

कभी उड़ गया परिंदे सा
कभी खो गया हेर फेर में
मेरे दिल का टुकडा छुपा हुआ
मेरी जिन्दगी का भेद है

कभी अक्स आता उभर उभर
चाहे दिन हो या हो दोपहर
कभी रात के अँधेरे में
शब्दों से मिल मुझपर असर

मैं रहूँ अगर इस शहर में
ये रहेगा मेरे इर्दगिर्द
ये मुड़ा तुड़ा सा ही ख़त सही
मेरे मन के बहुत करीब है