Saturday, 28 December 2013

क्या हम बदल रहे हैं ??????


शब्द बदल रहा है,
चितन बदल रहा है
अब मन बदल रहा है
मंथन बदल रहा है......मेरा ...  :-)

शुरुआत हो चुकी है
day से विहान तक की
कुछ समय बीत जाए
बचपन बदल रहा है

कल तलक थी उम्मीदें
उनसे बड़ी हमारी
अब आज देखते हैं
जन जन बदल रहा है

अब छोडो उसकी बातें
अपनी ज़रा करो तुम
खुद को बदलना अछा
परिवर्तन बदल रहा है......



Friday, 25 October 2013

मन कहीं और है ?

मैं देखूं जिस और सखी री....
सामने मेरे सांवरिया.....

ये उपरोक्त पंक्तियाँ बड़ी ही खूबसूरत सी ...किसी गीत की हैं ,,,,,

कुछ ऐसा ही मंजर था
जब हुआ सामना उनसे था
मैं मयूर सी नृत्य वद्ध थी
वो मंजर सा बंधा बंधा ....

नील नयन बहके बहके से
मद से भरे भरे उसके
उसके बोल अधर पर अटके
मन कपोल से डरे डरे ...




मन्त्र मुग्ध मन की भाषा वह
बोल नहीं पर शब्द तो हैं
सुरभि डोर से बंधा हुआ वह
मेरे मन का छोर तो है !

मोहपाश से बंधे हुए हम
जग की बातें अलग थलग
हर पल एक द्वन्द्द चलता है
भटकन सी ...मन कहीं और है ?



Thursday, 19 September 2013

सीपियाँ


कुछ चमकते कण जो चिपके पाँव के तालू में आकर
कुछ कदम का साथ था फिर मिल गए अपनी विधा से
.

मैंने सोचा सीपियों में छुपी है इनकी ही आभा,
ले चलूँ कुछ रोप कर मुट्ठी में थोड़ी रेत जादा
कुछ समय तक एक कटोरा बन के सीपी मान लेंगे
कैसे जीवन में चमक का आगमन ये जान लेंगे


मगर ये क्या ! हो दूर सागर से ये मिटटी में परिणित
चमक का विस्तार धूमिल, नहीं का स्वर इसमें मिश्रित ,
एक जीवन रह गया है अब अधूरा मेरे कारण
खेल बस अपने खिलौने , भूल जा इसको अकारण
.




ये प्रक्रति का खेल है बस, उसकी रचना वो ही जाने
सागरों के आभरण सी सीप तुझको देगी ताने
रेत, मिटटी , खारा पानी, नील धवलित लहर है बस ,
येही तन अपना सृजित शायद ये जीवन सीप सा बंद