Friday, 25 October 2013

मन कहीं और है ?

मैं देखूं जिस और सखी री....
सामने मेरे सांवरिया.....

ये उपरोक्त पंक्तियाँ बड़ी ही खूबसूरत सी ...किसी गीत की हैं ,,,,,

कुछ ऐसा ही मंजर था
जब हुआ सामना उनसे था
मैं मयूर सी नृत्य वद्ध थी
वो मंजर सा बंधा बंधा ....

नील नयन बहके बहके से
मद से भरे भरे उसके
उसके बोल अधर पर अटके
मन कपोल से डरे डरे ...




मन्त्र मुग्ध मन की भाषा वह
बोल नहीं पर शब्द तो हैं
सुरभि डोर से बंधा हुआ वह
मेरे मन का छोर तो है !

मोहपाश से बंधे हुए हम
जग की बातें अलग थलग
हर पल एक द्वन्द्द चलता है
भटकन सी ...मन कहीं और है ?



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