मैं मन तडाग में विहर रहा,
जल राशि नहीं बस रज ही रज
मैं पथिक दिवास्वप्नो का हूँ
ले जाऊंगा गठरी में रोप
दे दूंगा भूखे बच्चों को
गठरी की गाँठ है तनिक कठिन
उनके दुर्बल से हाथ मलिन
खोलेंगे अथक परिश्रम से
कुछ भाव हीन, कुछ मर्म बंधे
मुखरित होंगे उनके मुखपर
पर आशा होगी विस्फारित
नयनो से अधर तक एक बोल
फिर वही निमंत्रण निशा मौन
चांदनी और किरणों के मोल
फिर एक विहान पुकारेगा
चल आज कहीं तू स्वर्ण खोज
मैं अभिभूत नहीं हूँ वादों से
परिणाम जो उसपे छोड़ा है
मैं कर्म करू हर पल हर क्षण
वो लेखाकार हमारा है
वो जीवन देकर अंतहीन
भ्रमरो सा मन कर देता है
उसकी अथाह इस सत्ता में
कस्तूरी मृग मैं भटक रहा
वो अटल रहा ध्रुव तारे सा
हम डगमग हर पल होते हैं
फिर भी आश्वस्त हूँ आज तलक
अंतिम निर्णय वो ही तो लेता है
ओ ! री शानू ,रेनू चल खेलेगे
तू अपनी गुडिया ले अइयो
मेरा गुड्डा देखेगा
थोड़ा बातें वातें कर लेगा
फिर सोचेगा उसके बारे में
अरे जा जा...तेरा गुड्डा कुछ भी सोचे
मेरी गुडिया शर्मीली सी
वो कैसे आएगी मिलने
कह दे अपने गुड्डे से
घोड़ी चढ़ कर ले जाए वो
दीवारों के साथ बतकही
दिवा स्वप्न की तरह से बातें
पीछे से माँ का आ जाना
पीछे छूट गयी बारातें
नहीं नहीं ये स्वप्न नहीं था
सच था बस आगे पड़ाव का
एक बड़ा सा चौराहा आगे
हुए पराये संग निहोरे
मेहँदी, बिंदी, गहने , चन्दा
सब के सब अब साथ रहेंगे
सूरज लाल उवेगा जब तब
दुवा सलाम रोज ही होगी
फिर काहे मन हुवा पराया
सात जनम के बचन साथ ले
अर्थी और पालकी दोनों
अर्थ अलग पर साथ हैं दोनों
हर तरफ अपभ्रंश जैसी
रूप में साकार है
कोई मदिरा, कोई अमृत
हर दिशा आकार है
ढल गयी हर रूप में वो
मान फिर भी ना मिला
अश्रु में या सीप मोती
बह गया या पिघल गया
क्या ग्रसित है शाप से या
कर्म की ही एक रीत सी
वचनों से ये बंधी क्यों है
मिथक शब्दित प्रीति सी
अबला कह लो , सबला कह दो
भोग्या या शक्ति हो
हर तरफ एक दंश सी है
नारी है या है व्यथा ?
रत्न जडित नीलम सी आँखें
केश मेघ के जल से तिरोहित
भीगे भीगे केश राशि से
जल की बूँदें बरखा बरसी
बार बार मुख आलिंगन कर
कितने नयनो की छवि बनती
कितने स्वप्नों की परिभाषा
अलग हुयी ना कभी ना टूटी
गर्व गर्विता रही निशा सी
धीमी गति शीतल सी वाणी
पूर्ण चन्द्र की चंद्रिका जैसी
यज्ञ आहुति निर्मल कायान्वित
बीता कल वो एक नाम था
आज अग्नि की सखी बनी है
जाने किस विकृति मन दुर्भिछ
इस चेहरे पर हवन किया है
वो जिसने था उसे बनाया
वो भी नहीं देखता अब तो
फेर के कबसे मुख बैठा है
नहीं आ सका कृष्ण ही बनके
उसकी चीखें मर्मान्तक थीं
कितने थे दुह्शाशन जग में
जला रहे थे इस काया को
कितने अट्टाहास जगे थे
जल कर काया ख़ाक हो गयी
जर्जर तन की माप हो गयी
वो जो अग्नि शिखा सी जलती
जल कर जैसे राख हो गयी