कुछ तो मर्यादा होती गर
मानव जीवन के रिश्तों में
हर लम्हा है विद्रूप सा यहाँ
कर्मों से गंध निकलती है
वो आदिम युग तो बीत गया
ये हैवानो का युग आया
क्या इसीलिये तुमने खुद को
सभ्यता का जामा पहनाया
हर बार पुरुष ? ये पुरुष ही क्यों ?
मेरे भी शब्द अब दोषी हैं
नारी है शर्मसार तुमसे
तुमसे ही धरती दूषित है
अब क्या रक्षा सीमा की हो
जब माँ की लाज नहीं बचती
छोटी मुनिया को रौंद रौंद
ये पौरुष धर्म ही विकृत है
धिक्कार तुम्हें ओ ! जननायक ( जिन्हें सत्ता मिली है )
किस पर अधिकार चलाओगे
जब लाज शर्म ही रही नहीं
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,
मानव जीवन के रिश्तों में
हर लम्हा है विद्रूप सा यहाँ
कर्मों से गंध निकलती है
वो आदिम युग तो बीत गया
ये हैवानो का युग आया
क्या इसीलिये तुमने खुद को
सभ्यता का जामा पहनाया
हर बार पुरुष ? ये पुरुष ही क्यों ?
मेरे भी शब्द अब दोषी हैं
नारी है शर्मसार तुमसे
तुमसे ही धरती दूषित है
अब क्या रक्षा सीमा की हो
जब माँ की लाज नहीं बचती
छोटी मुनिया को रौंद रौंद
ये पौरुष धर्म ही विकृत है
धिक्कार तुम्हें ओ ! जननायक ( जिन्हें सत्ता मिली है )
किस पर अधिकार चलाओगे
जब लाज शर्म ही रही नहीं
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,
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