Friday 18 July 2014

अब पत्थरों से खेलना मुमकिन नहीं रहा

 

14 July 2014 at 14:00
अब पत्थरों से खेलना
मुमकिन नहीं रहा 
बचपन का लौटना 
अब ख्वाब रह गया 

गलियाँ थी गुंजार पहले
शोर से बहुत
खामोशी  इतनी हो गयी 
मन बेजार हो गया 


वो चश्मई तालाब
तितली , फूल , और जुगनू 
पत्थर से यारियां 
पलक, मोलू  और माहताब 

पानी में कोई नुस्ख नहीं
दोआबे सी थी चमक 
सपनो में डूबी नीद
गुल्लक में थी खनक  

अब तो नजर उठती नहीं 
सरे आबरू की खैर
मुस्कान लपेटे रहे
खुद से ही खुद को बैर 

कुछ मामले ऐसे की
जन्नत या जहानत 
बस नाम ही सुनकर 
फना इंसानियत का दौर 

वो चौकड़ी भरती है
आँगनो के दायरे
अब  पत्थर नहीं रहे
जिनसे खेलना मुमकिन 

भाई नहीं रहा
बस नाम ही रहा  
राहों में खडा शख्स
अब बदनाम हो गया  

No comments:

Post a Comment