Friday, 18 July 2014

फिर वही सपनो की भाषा

फिर वही सपनो की भाषा 
आस में डूबी थी आँखें 
था पता वो दूर है अब 
दूर हो रही पदचापें 

भेजना पाती पहुंचकर 
या संदेसा कुशलता का 
हम यहाँ अछे रहेंगे 
बात बस घर में निवाले 

कितनी मजबूरी विरह मन 
अश्रु सूखे हैं कभी के 
प्राण हाथों में लिए वो 
दीप यादों के जलाए 

मौन है बचपन अभी तो 
प्रश्न जाने कितने पाले 
खोज लेगा खुद ही से वो 
माँ का दुःख क्यों वो बढाए 

एक दिन वो लौट आये 
बाँध कर खुशियों के थाले 
फिर परागित सुरभि खिलकर 
गीत में रंग बसंत वाले

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