Tuesday, 13 March 2012

भूख


भूख

by Suman Mishra on Monday, 27 February 2012 at 23:55 ·

ये भूख शब्द मर्मान्तक है , हर पथ पर ये एक आहट है,
इससे बचना कितना मुश्किल, ना हो तो थोड़ी राहत है
तन मन की भूख कौन देखे,वो तो निर्गुण सी बहती है
इसके हर शब्द में शक्ति बहुत, ये रक्त प्रवाहित करती है

मुट्ठी खाली तो भूख कैसी मन को मारो और सो जाओ,
इसके आगे तो कुछ भी नहीं, मन को धोखा देते जाओ
ये भूख और मन कुछ तो है, क्या दृढ़ता प्रबल नहीं उसकी
आत्मिक,सात्विक शक्ति ह जब पर भूख मिटे तब चछु खुले





इन तरसी आँखों के सपने, हर दिन एक ठौर कहीं ना कही,
जीवन फिरता एक पत्ते सा, भरता है पेट कभी इनका,
जब जनम लिया इस धरती पर ,बस एक और जीवन आया
स्वप्नों की ली तालीम यहाँ, आंसू स्याही से लिख पाया

बस एक हताशा और ये तन यूँ साथ साथ बस चलते हैं
ना फिकर कहीं कोई इनको, शब्दों की मार ये सह लेंगे,
है कड़ी धुप और तपते ये,सोना कुंदन सा वज्र देह
बस एक पिपासा झलक गयी, ये बड़े लोग पर हम क्या हैं



ठठरी सा तन निर्बल जीवन ये हार नाम है जीवन का,
बस रोग मिला है भूख से ही, कुछ समय बचा अब इस तन का
कहने को मेहनत कर लेंगे, पर मेहनत का फल कहाँ मिला
सब लूट गए मेहनत इनकी ये साँसों से लड़ता ही रहा

अधिकार शब्द क्या होता है, ये उसके अंतर्गत में हैं
बस  पेट और उसकी ज्वाला के दमन शमन में रहते हैं,
हर वर्ग की भूख अलग होती कुछ तन के बहशी यहाँ वहाँ
फैले हाथों को आगे कर,बस भूख और कुछ नहीं यहाँ.

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