Tuesday, 13 March 2012

कल पलाश का फूल मिला था


कल पलाश का फूल मिला था

by Suman Mishra on Friday, 2 March 2012 at 23:21 ·

 सुबह की लाली आने को थी , पूरब से उजास की दस्तक
चाँद टिका था छत  पर ऐसे , जैसे दिन का सफ़र करेगा
तारों की बारात लिए वो टांक रहा था नरम दुशाले
फिर भी रंगों की साजिश है कोई रंग नहीं दिखता

मेरे क़दमों की जुम्बिश भी सुबह की खातिर तेज हो गया  
बरसेगा लेकर अंगारे  , सूरज से मतभेद हो गया  ,
हलके से बादल और उस पर रंग के छींटे सुर्ख हो गए
झील के पानी में अक्सों का चेहरा भी लबरेज हो गया,


पेड़ों की छावों का असर सुबह नहीं होता है ऐसे
लाल सुर्ख अंगारों जैसे ये पलाश के पुष्प हैं जैसे,
इनके रंगों से पटती है धरती  पूरी लाल हो गयी
नहीं हैं ये पारिजात अगर तो देव सी धरती साथ हो गयी

सुंदरता की इस आभा से सूर्य का रंग भी फीका फीका
उसके प्रखर तेज में बढ़ता अग्नि का घेरा अग्नि सरीखा
एक कुसुम हाथो में लेकर उसकी शीतलता तो छु लो
माना ये जो रूप ज्वलित है स्पर्शित कर अंकों में भर लो



मेरे बढ़ते कदम ठिठकते पूछा मैंने उससे बोलो
ये क्या इतने सुंदर हो तुम फिर भी धरती पर यूँ फैले
लोग फूल से  यौवन के आभूषण गुथते जाने कितने
तुम ऐसे ही अग्नि शिखा से पड़े हुए यूँ बीचे हुए से

थोड़ा मुस्काया हलके से पर कुछ दर्द था उसके मन में
पडी ये धरती परती परती सूर्य की किरणों के आँगन में
मैंने भी ये प्रण है रखा नहीं चढूगा मस्तक पे मैं
जो जननी है अलंकार बन सजूंगा उस के तन मन पर मैं

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