स्वप्न निमीलित आँखों से क्या सच का कोई भान हुआ
by Suman Mishra on Sunday, 14 October 2012 at 19:43 ·
मन के कच्चे धागों को जब जोड़ा था तब सोचा था
जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी ये खुद ही पक्के हो जायेंगे
रंगों की भरपाई आँखें कर देंगी खुद से खुद भरकर
सतरंगी सपनीले धागे गहराते मन में रच बस कर
कुछ धागों में लाल थे डोरे, जाग जाग कर बोझिल सा कुछ
कुछ सपनो की खातिर सच का ताना बाना मन से मथ कर
कुछ करने की आशा में ये धवलित डोरे लाल हो गए
कुछ पल मेरी आँख लगी तो जगते ही ये स्वप्न हो गए
कहाँ कहाँ मन भरमाता है , क्या होगा आगे के पल में
क्या सपनो की सीढ़ी होगी या सच में उड़ना अम्बर पर
कठिन समय मन की कमजोरी , मन विह्वल थोड़ा अशक्त हूँ
रिसता है कुछ रंग कहीं से आँखों से मन तक पहुंचे जो
वही तो था जो पल गुजरा था हल्की एक हंसी थी जिसमे
वही तो थी वो सुबह सुहानी , चिड़िया कुछ तिनके ले बैठी
वही शाम गुनगुन सी करती, लौट रही थी धुल फांकती
रात वही थी तारों के संग , चाँद सी रोटी माँ थी सेंकती
आज अभी धीरे धीरे मन संयत हो आँखें खोलेगा,
देखेगा उस बाल सूर्य को , मन के धागों को धो लेगा
फिर पलकों में भर के रोशनी सूरज के संग आँख मिलेगी
दिन और दिल दोनों का संगम, सपनो वाली रात धुलेगी
आज निमीलित नहीं नहीं आज मैं प्रखर सूर्य की रेनू बनी हूँ
बज्र किरण की शश्त्र शलाका अरि आँखों में शूल बनी हूँ
रुको अगर तो देख ही लोगे मैं जागृत अब निशा नहीं मन
वो पल जो भी पथ पीछे था , आगे मैं और सूर्य शिखा तक
bahut sundar,,suman ji,
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