पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा ( PART 3 ) "गृहस्थ/बयस्क मन"
by Suman Mishra on Tuesday, 2 October 2012 at 00:17 ·
स्वप्न ही तो था जहां एक छोर से तुमको पुकारा
स्वप्न ही तो था एक आकार बना तुमको था ढाला
साछी है चाँद सूरज , तारों की महफ़िल सजी थी
बस येही कुछ ख़ास ना था स्वप्न में आँखें मुदी थी
एक सपना ठहर कर कुछ दिन रुका था पलक पीछे
दिवस से डरता हुआ , छुपता हुआ अलकों के पीछे
बांच ना दूं मैं उसे अपनी कही एक पंक्ति सा ही
भूलना था विवशता में , रहता था अंखियों को मींचे
आज जब गुजरे वहाँ से युग युगों की बात लगती
एक तुम्हारा साथ है , झूठी ये कायनात लगती
खुशियों के फूलों की खुशबू आगे कुछ भी याद ना कर
येही तो शुरुआत जीवन , दुखों से अब बात मत कर
स्वप्न से उठकर अभी हम सूर्य से आँखें मिलाएं
किरणों की अठखेलियाँ जल में तरंगे छु के आयें
स्वप्न से आकार लेकर वो गया है सपने लेने
राह में नैनो को रखकर , आले में दीपक जलाएं
चूड़ियों की खनखनाहट, चिड़ियों के स्वर से मिली है
एक हंसी गुंजार में ही , बह हवा के संग चली है
वो बटोही बन गया अब, मेरे सपने सच करेगा
मैं दिवा स्वप्नों में खोयी , आके आँखे बंद करेगा
है बहुत रंगीन दुनिया, स्वप्न में बस श्याम सी है
रंगों के मझदार से बहती हुयी एक नाव सी है
कुछ कदम धरती पे रखकर सोचती हूँ आज जब मैं
ये नहीं वो अलग दुनिया , ये तो बस अनजान सी है
खुद के नीचे की धरा को जकड कर रखा है मैंने
छूट ना जाए ये मुझसे , कसमों से कुछ कहा मैंने
स्वप्न सारे भूलकर अब हाथ से सपने बुनेगे
पहनकर वो अंगरखे सा ,मन के अम्बर पर उड़ेंगे .
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