Friday, 19 October 2012

मैं और मेरा सांध्य गीत


मैं और मेरा सांध्य गीत

by Suman Mishra on Friday, 19 October 2012 at 00:06 ·
 

सुबह सूरज बड़ा शांत सा था ,हल्का सा गेंद की तरह उछला , जैसे किसी ने झील के अन्दर से उसे बाहर उछाल दिया था
पानी में भीग कर ठण्ड से लाल हो गया था मगर अम्बर के  करीब आते ही वो अपने रंग में आ गया, चेहरे की ललाई ख़तम
और कर्तव्य बोध होते ही प्रखरता की चादर में लिपट कर भौहें चढ़ा ली और खुद को गतिमान करता गया......आगे.......


सोचती हूँ सांध्य गीत , प्रेम का परिदृश्य लिखूं
लौटती चिड़ियों के थके पंख के कुछ कृत्य लिखूं
झील का वो हरा पानी, लाल रंग वरन हुआ
फूल के झुकते पटल से रंग का भविष्य लिखूं


नीड़ जो खाली पड़े थे , आहटों से भर गए वो
हर तरफ से लौट कदम , द्वार पर ठहर गया वो
दिन भर की थकन ज़रा, टूटती सी आस लिखूं
जुडी नहीं जोड़ लेंगे, खुद पर उपहास लिखूं


किसी ने उसको पुकारा एक नजर प्यार लिखूं
दिन की सांझ बदल गयी एक इन्तजार लिखूं
ना ! नहीं ! स्वीकार नहीं ,प्यार में मनुहार लिखूं
रास्ते मेरे अलग हैं , प्यार में इनकार  लिखूं


एक सांस अलग सी है, कुछ ज़रा निःश्वास सी ही
जीवन की अलग पारी , मगर ये विश्वास भी है
सांझ और सुबह में क्या ख़ास सी एक बात लिखूं
जहां पे दो मन मिले थे वही एक एहसास लिखूं



एक  अंजुरी से  प्यार , छलक गया बूँद बूँद ,
कम हुआ तो भान हुआ, नैन शब्द भाव मूँद
कोई भी आवाज नहीं , मन की बात जैसे शून्य
सांध्य गीत येही मेरा , कितने ही अरमा अबूझ


लोग चाँद चांदनी में चातकों को लिए साथ
फिर रहे हैं दंश लिए , मन विरह से भ्रमित पाथ,
मेरे सारे खेल मेरे , मेरी शह और उसकी मात
येही मेरा सांध्य गीत , कल सुबह हो नयी बात

1 comment:

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