वास्ता सच्चाई से....मगर हम कितने सच्चे हैं,,,,,???
by Suman Mishra on Wednesday, 1 August 2012 at 00:39 ·
आँखों को बंद करें , और खुद अपने मन की सारी भावनाएं उजागर हो जाती हैं, हम शब्दों में स्वर और
व्यंजन की चाशनी लगा कर, नए नए रंगों से उसे रंग कर , नए परिधानों में सजा कर पेश करें मगर
सच्चाई बहुत सीधी साधी होती है,,,,मैंने सच्चाई के लिए कहा , इंसान के लिए नहीं,,,क्योंकि इंसान सच्चाई
नहीं जानता,,,जानता तो उसका मौन है...जो वो कभी सामने नहीं लाना चाहता,,,सही से कभी वास्ता नहीं
और अंततः वो गलत को सही सिद्ध करने में माहिर हो जाता है....आज क्या क़ानून सच की लड़ाई लड़ता है
अगर लड़ता तो खुले आम अपराधी घूमते,,,क़ानून की आड़ में चुनाव लड़ते..या क़ानून का कोई विसात है क्या
माहिर अगर हुए तो फिर जंग हो या सौदा
सब बाँट कर ले आओ ,घर घर बजेगा डंका
क्या रंक और क्या राजा, एक जगह सब मिलेंगे
बस कुछ समय की बातें , बढ़ने दो ज़रा पौधा
ये बंश बेल जैसी बढ़ती ही जा रही हैं
एक धरा और हम हैं सहती ही जा रही है
सच्चाई का बखेड़ा छोड़ो भी क्या करें हम
बस काम बने अपना, बस अंजाम पा रही है
अविश्वास , दंभ, कुत्सित विचार, बिना पंख पंछी की तरह स्वछंदता ..मगर सच्चाई वही हाड मांस का शरीर
इश्वर ने सबके अंग प्रत्यंग एक से बनाए , रक्त का समीकरण वही ,सच्चाई ही सच्चाई मगर हम झूठ के पुतले
ज्ञान के लिए गुरु चाहिए,,,अरे पहले खुद को सत्य मानो की हमारा पालक जिसने हमें भेजा है , हम अपने होने
की पुष्टि करें हाँ हम तुम्हारी तरह ही इंसान हैं , फिर गुरु फिर इश्वर...मगर हम सच्चाई और सच्चाई के करीब
फिर भी अनदेखा करते रहते है,,,
वो जश्न था कही पर आया हुआ था कोई
व जश्न था कही पर..निकला वो लम्बी दूरी
बस दो तरह की गति से इंसान भ्रम में जीता
कभी चाँद से गुजरता कभी सूर्य जज्ब करता
कुछ सडको पर कतारें ,इंसान से हैं दीखते
कुछ शामियानो में हैं ..हैवान से हैं दीखते
कुछ मदिरों में झुकते .भगवान् या फ़रिश्ते
कुछ दहशतों से दुबके ..पैगाम देते फिरते
गौतम की तरह निकलूँ , फिर सत्य हो या इश्वर
कोई तो फिर मिलेगा, दर्शन ही या हो धोखा
हम तो निकल पड़े जब, करती निगाहें पीछा
जब तक याहां खड़े थे, साए ने भी ना देखा
सोकर उठो तो सोचो , मन साथ में या सोया
वो आज लेके आना कल राह में था खोया
कुछ सोचकर कहोगे ,अब वो नहीं है पाना
मंजिल नयी बनायी , सच को है ढूढ़ लाना
अब सत्य को रंगों तुम, धरती से आसमा तक ,
बन इंद्र धनुष निकले , मिटने ना दो जहां से
फिर सीढियां लगा कर जाना नयी दुनिया में
सब ज्ञान के परिंदे , फिरते कहाँ कहाँ पर
तपता है जिसका जीवन, सच मिलता है उसीको
ना अरण्य ना ही उपवन, खोजे कहाँ किसीका
हम भी तलाश में है गर मिल गया किसी दिन
फिर खुद से भी मिलेंगे , चेहरे पे अक्स सच का