शबनम के मोती सा बिखरता मन समेटो तो
शबनम के मोती सा बिखरता मन समेटो तो
by Suman Mishra on Monday, 23 July 2012 at 00:37 ·
चलते चलते थम जाते हैं
कदम यहाँ पर जाने क्यों
अरे ! रुको तुम कहा आ गए
छोड़ के अपने मन को यूँ,
अक्स वही है तन भी साँचा
फिर मन क्यों मेरा छूट गया
बीत गया जीवन का हर पल
एक येही मन साथ रहा
मन पल को दोहरा लेता था
समय तीर सा निकल गया
मन का साथ जो छूटा पल भर
सब हाथों से फिसल गया
मन की थाप से आँख खुली तो
जग का बाना बदला था
लहर प्रलय सब मन के आगे
जीवन भंगुर कहता था
मैंने रोका हाथ पकड़ कर
थोड़ा मन को समझाया
वो जो जुड़ा था परम दिव्य से
लौ में उसकी दिखलाया
क्या तेरा और क्या मेरा है
ये मन की पहचान है क्या
आज यहाँ ये शब्द समर्पित
कल जाने उनवान बना
वीत राग और दीप राग
रागों में सुर और समय दिखा
चल मन को तू जोड़ ले खुद से
हर दर्पण को मैं ही मिला
मन शबनम के मोती सा है
हर वासन में ढल जाए
अगर हटा आधार कहीं से
कण कण बिखर कहा पाए
नहीं अलग मेरे पथ से ये
जिधर कदम का रुख होगा
ना बहकेगा ना छूटेगा
साथ हमारे प्रण जैसा ( ये मन )
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