मन के झकोरे,,,,स्नेह के सकोरे...(पहली बारिश सावन की )
by Suman Mishra on Sunday, 15 July 2012 at 17:01 ·
वो बचपन के बादल और थे
काले काले भूरे भूरे
मन भी उड़ता था संग उनके
मुट्ठी भर चने के दानो के संग,
खिड़की पे बैठकर
हाथों को बाहर करना
अम्बर से धरती का लंबा सफ़र
बूंदों को पकड़ने की कोशिश
बड़ी नाकाम सी कोशिश
उन बूंदों को पकड़ने की
उनके रुख पे नजर मेरी
हरे पत्तों में सिमटने की
आती हैं झड़ी सी बनकर
आसमा की चादर से
धरा पे बिखर गयी
या मोती सी पात के सकोरे में
मन ये करता है मेरा
रुक के ज़रा बात करू
ज़रा सा ठहरी अगर
इनको आत्मसात करू
थोड़ी मिटटी की ललक
लग गयी थी पैरों में
आज बारिश के इन मोतियों में
भीगूँ ,,खुद को आभास करू
अब तो बरसात के माने बदल गए हैं
सोंधी सी महक के मुहाने बदल गए हैं
झूले नहीं पेड़ पर क्यों ? शाखें कमजोर हैं?
झूलने की बात अलग अफसाने बदल गए हैं
बारिशों के रुख पर आसमान की तपिश है
मुट्ठी में बेगारी , आशा की ही कशिश है
कुछ भी हो मन का मयूर नाचता है
मेरी इस बात में इन्तजार की खलिश है ,,,,
अब वो सकोरा कहाँ स्नेह जो छलकता सा
भीगी हुयी धरती के कोपलों सा सजता था
हरी हरी दूब और पानी की बूँद लसी
मेघ और नयन एक , जब तब बरसता था,,
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