Friday, 10 August 2012

मैंने अब मोड़ा है खुद को दावानल से सरिता तक

 

मैंने अब मोड़ा है खुद को दावानल से सरिता तक

by Suman Mishra on Wednesday, 25 July 2012 at 01:01 ·

कितना आहत होता है मन
जब अग्नि रेख हम पार करें
पैरों के छाले फूट रहे
लपटों में जन प्रस्थान करें

ये मायावी दुनिया की गली
आगे संकरी होती ही गयी
मन भटक भटक कर थकता है
फिर भी सपनो में  कहाँ कमी


कितने शब्दों की बलि चढ़ती
कितनी घटनाएँ सच लगती
पर हम मानव और तुम इंसा
कैसे माने ये सच की सदी

वो लिखने में यूँ डूब गया  
अब दावानल की फ़िक्र कहाँ
धू धू जलता जीवन कैसे
अपनी जेबों में ठूंस रहा


तूलिका बना तू अग्नि रूप
जिसमे सागर लहराता हो
जीवन से हार चला मरने
सागर से मिल तर जाता हो

मैं भी दावानल बीच खडी
अम्बर को ताक थकी अलकें
मैं मोडू  खुद को सरिता तक
रश्मि की डोर पे पाँव धरू
"अब और नहीं बस प्रण बाकी "

बस आज येही सोचा समझा
ज्वाला से  पंख जो  झुलस गए
क्यों  तम में खोज रहा उसको
चांदनी मिली तो प्राण भरे

No comments:

Post a Comment