कभी पूर्णिमा कभी अमावस्या
हर दिन कोई तिथि और त्यौहार
मगर ये इंसानों का सब कारोबार
अबोध सी वो पर कितना अत्याचार
कुछ लिखो ना ओ ! ऊंचे तबके वालों
बहुत लिख चुके अब चुप बैठो
तुम्हारी लेखनी निकम्मी है
शब्दों की सरहदों के अन्दर रहा करो
कौन सुनता है अब नज्मो गजलों को
उनसे उठाये गए अल्फाजों को
सब दफना दो कहीं गर्त में
आंसुओं से भीग कर निकल आयेंगे
चीख लेना अपने बा-अदब लफ्फाजों से
फोड़ लेना अपनी हार का ठीकरा
शब्दों की सत्ता से बाहर निकलो तो ज़रा
इज्जत और आंसू की नियामत कद्र करो
हर दिन कोई तिथि और त्यौहार
मगर ये इंसानों का सब कारोबार
अबोध सी वो पर कितना अत्याचार
कुछ लिखो ना ओ ! ऊंचे तबके वालों
बहुत लिख चुके अब चुप बैठो
तुम्हारी लेखनी निकम्मी है
शब्दों की सरहदों के अन्दर रहा करो
कौन सुनता है अब नज्मो गजलों को
उनसे उठाये गए अल्फाजों को
सब दफना दो कहीं गर्त में
आंसुओं से भीग कर निकल आयेंगे
चीख लेना अपने बा-अदब लफ्फाजों से
फोड़ लेना अपनी हार का ठीकरा
शब्दों की सत्ता से बाहर निकलो तो ज़रा
इज्जत और आंसू की नियामत कद्र करो
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