माया कहते हैं मिथ्या है
फिर हम क्यों पापी बनते हैं
रोज वो गढ़ता नया रूप एक
हम खुद पर ही मर मिटते हैं
मिथक और ये मृषा है जीवन
मगर अहम् के पाले में हम
पग तल की जमीन ना अपनी
स्वप्न जीत लंका लायेंगे
क्या कुछ दीनारों का भोगी
कर्म का राजा बन जाता है ?
या फिर खुद के लिए अंत में
राजमहल संग ले जाता है
क्या कुम्हार जो चाक घुमाता
मिटटी से यारी है निभाता
मगर वही फिर लेना देना
अंतिम साँसों में रह जाता
मैं मेरा और कुछ ना तुम्हारा
तोर मोर का सगा ज़माना
देखेंगे आगे क्या होगा
डोर में सब हैं पृथक कहाँ है
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