रिक्त तिक्त सी ,
अजब उदासी में लिपटी
देवालय में दिखी थी मुझको
अश्रु भरे उसकी आँखों में
मैंने देखा था जब उसको ,
अजब पहेली लगी थी मुझको
फिर सोचा मैंने भी कुछ क्षण
हर शख्स पहेली ही तो है
राज खोलने में क्या रखा है
सब अपने हैं कर्म के मारे
मन की उलझन, ब्यथा जाल सी
ले आती इश्वर के द्वारे
वो ही माया, वो ही काया
त्रिश्नित , तृप्त वही है करता
फिर हम क्या कर पायेंगे गर वो
याचक बन इश्वर को समर्पित
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