Friday, 30 September 2011
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों..
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों...
by Suman Mishra on Friday, 30 September 2011 at 19:12
कुछ कहना है इस भाव मैं , रिश्तों मैं दरार है शायद
ऐसा ही होता होगा जब प्रेम चढ़ा परवान की कायद,
कितने आसानी से कह कर किया किनारा उसने उससे ,
कैसे कोई बनके अजनबी, कह देता है नहीं जानते.
ये उसने कहा था कभी
दामन को जलाया , परवाना कह दिया,
वो शमा बनी सभी उसके ही दीवाने.
देखा नहीं की कितने जले और रोशनी हुयी,
लोगों ने शमा से ही उजाला समझ लिया .
ये हमने कहा था
हमसे ना होगा जूझना झंजावतों मैं यूँ,
तुम राह चलो अपनी , हम तय करेंगे खुद,
तुम खोज लो खुद के लिए अपना सहारा यूँ,
हमने कसम खाई है हम ना याद करेंगे.
ये सच नहीं जो हमसे मिला वो हमारा है,
ये सच है जो नहीं मिला मेरा नहीं है,
आसान राह , रिश्ते, स्वीकार जरूरी,
फिर सोचना तुमसे ना मिल पाए हम कभी
ये प्रेम -पुरुष नारी सब एक ही मोहरे,
मजबूरियों मैं गोते लगाकर मिले नहीं,
जो लड़ सका सबसे, वोही मीत बन सका,
वरना तो छटेंगे नहीं बादल घने कोहरे
इससे तो है अछा की जुदा होके हम देखें,
क्या जिन्दगी के मायने जो तुम नहीं यहाँ,
कितने बिछाए फूल जो राहों मैं हमारे,
तुमसे मिले कांटे ,ज़रा हम चुभा कर देखें.
बस याद को भूलूँ मुझे इतनी मिले मोहलत,
थोड़ा सा ही सही, अपनी हो जरूरत.
खुद को भुलाया मैंने उसकी ही वजह से,
अब अजनबी बने हैं तो पहचान मिली है..
Thursday, 29 September 2011
दुल्हन -नयी बहु, नए सपने
दुल्हन -नयी बहु, नए सपने
by Suman Mishra on Thursday, 29 September 2011 at 12:47
कुछ अरमान लिए अपने मन , नई बहुरिया आयी है,
लाज से उसके नयन झुके हैं सपनो मैं तिर आयी है,
कुछ दुविधा है, कुछ अंदेशा, जाने कैसा घर होगा ,
सपनो की जो सेज सजी है, क्या ये अपना घर होगा ?
उसकी आशा उसके सपने सब परिणित स्थल है बना,
कदम संभल कर रखना होगा, जीवन का है नियम घना,
किसी को अपना करना है तो पहले उसको अपनाना,
खुद की पीछे सबको आगे ,माँ का था ये समझाना.
सुबह की लाली सूरज की जब खिड़की से देखा उसने,
अब तक चन्दा मामा देखा, सुबह का सूरज था अनमना,
चहल पहल से घर गूंजा पर माँ ने नहीं जगाया क्यों,
भूल गयी वो पलभर ही सही ,हुई पराई बेटी हूँ.
हमारी आरजू है की उसे भुला सकूं(उसने कहा था )
हमारी आरजू है की उसे भुला सकूं(उसने कहा था )
by Suman Mishra on Wednesday, 28 September 2011 at 23:57
किसी के शब्दों की माला को आत्मसात खुद में करना
बड़ा ही अजीब सा लगता है किसी की यादों मैं बहना .
उसकी वेदना को समझना, उसके दर्द को आंकना,
और फिर उन्मुक्त सी हंसी हंसना , जैसे कुछ ना हुआ हो.
उस दोस्त(मेरी friend ) के ख़त जब मिले जाने कितने बार पढ़ा,
समझ ना पायी उन शब्दों को , क्योंकर वो ऐतबार लिखा,
प्रेम मैं डूबी जाने कबसे, बस हंसकर हम रह जाते,
ये सब है बस टाइम पास और कहकर कागज़ फाड़ दिया.
ये रहस्य है , प्रेम कठिन है, समय नहीं आड़े आता,
सीखें कितनी भी दे लो पर, कोई नहीं समझ पाता,
ये रुतबे से अलग जमी है, नहीं कोई ऊंचा नीचा,
प्यार प्रेम बस मन से जुड़ता, मीठा भी फीका फीका, (दोस्त ने कहा था)
पता नहीं था दर्द बहुत है, समझे एक छलावा है
भीगा सा मन , सहमी चितवन सब कुछ लगे पराया सा,
एक वही मनमीत बसा मनमंदिर तबसे ध्वनित हुआ,
उसने कहा और हंस दी थी मैं मेरा मन भी भ्रमित हुआ.
कोरे कागज़ के पन्नो पर फूल एक किसने रखा,
हाथों मैं लेकर जब देखा कुछ अहसास अनोखा सा,
याद आ गयी उसकी बातें, वो जिसपर मैं हंसती थी,
मन को उस दिन उड़ते देखा , सांस कहीं पर अटकी थी (हा हा हा )
एक शाम बस शब्द कहे कुछ ना समझी मना किया (उसे)
प्रेम भुलावा दे देता है, पथ से भटकूँ कहाँ भला,
लक्छ्य नहीं ये ,अभी बहुत कुछ मुझको करना बाकी है,
कभी कभी बस उसका चेहरा फिर भी याद दिलाती हैं
वो थी बनी शकुंतला जब से, कुछ खोयी खोयी सी थी
पहले वो तितली सी उडती , अब हिरनी सी दिखती थी.
उसकी सभी किताबें छानी , कुछ टुकडे ही पाए थे
तुमसे मुझको प्यार हो गया, इतना ही पढ़ पाए थे.
Wednesday, 28 September 2011
एक विषय मिला है लिखने को *****नारी*********-जिसके बिना जीवन नहीं.
एक विषय मिला है लिखने को *****नारी*********-जिसके बिना जीवन नहीं.
by Suman Mishra on Sunday, 25 September 2011 at 07:09
विषय मिला है लिखने को खुद के जीवन पर या किसी नारी पर लिखूं ?
रूप कितने, भाव कितने, ये कदम और वो तरीका,
भीगी सी वो हंसी लिखूं, माँ के माथे का वो टीका,
रिश्तों के कुछ नाम लिख दूं, या लिखूं दर्पण सलीका,
मन से मन की डोर बांधू ,या कहूं कोई कहानी,
बचपने का सुख मैं बांटूं, या ब्यथा की वो रवानी,
सारे भावों को जो सोचू, सारी उपमा याद कर लूं,
वर्ण रख दूं मैं छुपाकर, बस कहूं मैं कथा "नारी "
ओह ! लड़की जनी तुने, बंश कैसे अब चलेगा,
ये तो होती धन पराया, और सब कैसे पलेगा,
माँ की छाती, धन पराया, ह्रदय कोमल सारा जीवन,
उसके तन का एक टुकडा, येही से प्रारम्भ "नारी"
स्वप्नों की सौगात मिली है हर नारी को बचपन से,
आँख खुली और खुद से देखा,रूप एक अपने मन से,
ये उसके अस्तित्व का पहलू, नहीं जान पाया कोई,
पंख लगे जब स्वप्नों के तब उडी धरातल खुद लेकर.
छनक छनक वो नूपुर की धुन , स्वप्नों की सौगात लिए,
छोड़ दिया वो आँगन माँ का, लांघी देहरी अपने घर की,
अब ये परिणित होंगे सपने, जो सोचा वो होगा क्या,
प्रश्नों के दामन का आँचल, ओढ़ा है जो उसका क्या ?
अभी तो जीवन शुरू हुआ है, जीवन की संतति भी यही,
सुख दुःख येही धरातल अपना, क्या खोया क्या भोगा क्या,
नारी शब्द एक जीवन है,जीवन का मतलब या वस्तु,
हाथ खिलौना बन जाती है, खेल किसीने देखा क्या,
चूल्हा चौका और मात्री रूप का जगत नमूना बस नारी
फिर भी लोग विषय देते हैं एक निबंध लिखो नारी ,
क्यों ये प्रश्न मुझे चुभता है, क्यों नारी है विषय बनी,
जितना सोचूँ उतना उलझूं, मन को ब्यथित करे जननी
सारे रीति रिवाजों मैं नारी को आगे रहना है,
भाग्य विधाता दुःख दे जब तो बस नारी को सहना है,
सब कुछ ओढ़ लिया है इसने, अब भी विधि कुछ लिख है रहा,
अगर येही सब सहना था तो नारी का क्यों जनम दिया ?
अग्नि समर्पित सीता और राधा है समाई कृष्ण कहीं,
मीरा ने जब सब कुछ त्यागा, छोड़ सभी साध्वी बनी,
लक्ष्मी बाई ने खुद जौहर से सबको ललकारा था ,
माँ दुर्गा जो जग की जननी , सब असुरों को संहारा था,
हम सब काव्य पुराण पढ़ें पर महा काव्य बस नारी है,
जीवन का सुख दुःख इससे ही, दुःख से कभी ना हारी है,
लो दहेज़ की सौगातें और इसे जलाओ कागज़ सी ,
ओ ! पुरुषों क्या समझा तुमने, नारी विषय और वस्तु बनी ?
जीवन की हर विधा है सहती , हर पल को ये जीती है,
हर वर्गों मैं आगे रहकर , खुद को नारी कहती है
क्या अब तक बस येही है निश्चित, चलो लिखो कुछ नारी पर,
धरती से अब चाँद की दूरी , और नापना बाकी है ?
नजरअंदाज मत करना,
ये जो रोशनी है उसके लिए आसान होगी,
दिए की लो उसे रास्ता दिखा ही देगी,
सुबह निकला था ज़रा काम की तलाश लिए,
मन के अँधेरे मैं किरण थोड़ी सी बुहार लेगा.
... कैसे कह दें नहीं होती फरियादें पूरी,
वो तो अपना तर्जुमा है उससे मिन्नतों का,
चलता है मुसाफिर मंजिलों की तलाश लिए,
हम तो बस राहों को पलकों से नाप लेते हैं.
एक रास्ता जाने कितने कदम उसके साथ चले,
दिशाएँ "चार" जाने कितने लोग हर तरफ बिखरे हुए,
कितने खो जाते हैं इन रास्तों पर भटकते हुए,
तुम इस दिए की रोशनी को नजरअंदाज मत करना,
क्योंकि वो लड़की है
क्योंकि वो लड़की है
by Suman Mishra on Wednesday, 28 September 2011 at 19:36
क्यों कहते हैं ये लड़की है, जाने दो औरत जात है ये,
अब क्या बोलूँ ये रक्त उबलता पल पल ये सब सुन सुन कर,
हो गया जनम , कुछ आहों से , ओह क्या जन्मी -ओह ! लड़की है,
बचपन प्रतिबंधों से बंधित क्यों मन है ब्यथित "वो लड़की है.
हे! बिटिया बाहर मत जाना थोडा समझो तुम लड़की हो,
ये जनम लिया लड़की बन कर, बाहर देहलीज पे रुके कदम,
कहते हैं सब रस्मी बातें, हो गया जमाना बदतर ये,
उन्नति अवनति के माने क्या, सब तौल रहे "वो लड़की है".
जीवन के जितने भाव यहाँ, बस विरह प्रेम से नाता है,
संरछक ना हो जीवन मैं, फिर लड़की से क्या हो पाता ,
ये तो है पराया धन तबसे ,जब जनम लिया इस धरती पर,
जो भी कर्तव्य निभाया वो सब मिथ्या है "वो लड़की है"
बस शांति दया की मूर्ती रहे ,स्वागत सत्कार मैं हो आगे,
मीठी वाणी और सृजन ही बस, नम आँखें जलपूरित जागे,
कितने भी सुंदर स्वप्न दिखे, बस नेत्र सजल और पूर्ण हुआ,
अब किन शब्दों मैं बया करू ,क्योंकि "वो तो लड़की है"
माँ की ममता से ओत प्रोत, निर्झर वात्सल्य है उसके मन,
सारी पीड़ा को जज्ब किये, बस निकली घर से खुशी लिए,
अब प्रेम दिखाओ इससे तुम, या करो समर्पित अग्नि इसे,
ये अब वापस ना जाएगी , है लाज बंधी आँचल इसके
सारी बंदिश को तोड़ ताड़ जब नारी आगे आएगी,
ये प्रकृति जन्य विविधा लड़की अपनी शक्ति दिखलाएगी,
क्या दंभ तुम्हें इस शक्ति पर, क्या मर्यादा पुरुषों को ही,
"वो लड़की है" पर विवश नहीं , पूछो गर राह दिखायेगी,,,
"क्योंकि वो लड़की है "
वो बंद लिफाफा
वो मुड़ा तुड़ा सा एक लिफाफा ,जिसमें संचित कुछ यादें हैं
बचपन की चुगली से लेकर, इश्वर तक की फरियादें हैं,
उसे लिखा था एक बार कुछ , दिया नहीं हम हुए किसीके,
नाम नहीं बस शब्द लिखे थे, मेरे थे पैगाम ह्रदय के,
मन विरक्ति की बातें लिख दी, कोरे पन्ने भर डाले थे,
अंतिम अछर लिखते लिखते आंसू ने सब धो डाले थे
गर्म थी बूँदें ,मन था शीतल, नहीं बचा कुछ लिखते लिखते,
एक दास्ताँ अधूरी सी है, पढ़ा ना मैने लिख कर के फिर,
अब जैसे ही धड़कन बोले, चलो ज़रा खोले ये परते,
फटा लिफाफा तार तार सब , मन के भाव तिरोहित हो ले,
जीवन मैं जाने कितने छन ऐसे ही बस हो जाते हैं,
बार बार मैं याद करू ये पर ये लिफाफे बंद रहेंगे
Tuesday, 20 September 2011
नयी नवेली
वो सपनो की दुनिया से बाहर आकर सोचकर यूँ मुस्कराना,
अभी तो शुरुआत के दिन, दो दिलों का हार जाना,
मुस्कराना किस वजह से, है बड़ी तादाद लम्बी,
... घर का ये छोटा झरोखा, यादों से मुस्कान बिखरी,
वो बडे छोटे से दिन जब गली बचपन और गेंदें ,
एक ही पाले थे खेले, बंदिशों की बात झेलें ,
अब नहीं उठते हैं पग ये, भूलकर ऊंची दीवारें,
बागों मैं वो आम तोडे, भरते भागे सब कुलांचें.
अब ये मन अपना है निष्ठुर, भूलना है उस गली को,
है दीवारें ऊंची ऊंची, खोजती हैं मौसम की बहारें,
इन्हीं हम आइना सा साफ़ कर कुछ देख लेंगे,
जो रिवाजों मैं लिखा है, उन्हीं से सब बूझ लेंगे.
अब तो जीवन अलग सा है, अब नयी पहचान मेरी,
उसकी खुशियाँ हैं बचन सब, जो कहे वो मान लेंगे,
माँ !वही हूँ अब भी मैं बस ,घर है बदला अलग सा ये,
लोरियां सब याद रखना, जब मिलूँ मुझको सुनाना,
अभी तो शुरुआत के दिन, दो दिलों का हार जाना,
मुस्कराना किस वजह से, है बड़ी तादाद लम्बी,
... घर का ये छोटा झरोखा, यादों से मुस्कान बिखरी,
वो बडे छोटे से दिन जब गली बचपन और गेंदें ,
एक ही पाले थे खेले, बंदिशों की बात झेलें ,
अब नहीं उठते हैं पग ये, भूलकर ऊंची दीवारें,
बागों मैं वो आम तोडे, भरते भागे सब कुलांचें.
अब ये मन अपना है निष्ठुर, भूलना है उस गली को,
है दीवारें ऊंची ऊंची, खोजती हैं मौसम की बहारें,
इन्हीं हम आइना सा साफ़ कर कुछ देख लेंगे,
जो रिवाजों मैं लिखा है, उन्हीं से सब बूझ लेंगे.
अब तो जीवन अलग सा है, अब नयी पहचान मेरी,
उसकी खुशियाँ हैं बचन सब, जो कहे वो मान लेंगे,
माँ !वही हूँ अब भी मैं बस ,घर है बदला अलग सा ये,
लोरियां सब याद रखना, जब मिलूँ मुझको सुनाना,
Monday, 19 September 2011
अरमान
ये भी क्या तहजीब है, आग बस करीब है,
जल गए तो कोई भी पहचान नहीं दे सका,
पेट तो सब भर लिए , ख्वाहिशें सब जज्ब हैं,
शिकन कितनी बढ़ गयी, अरमान वो न कह सका,
... ... प्यार के दो बोल बस आवाज सुनकर जान लो,
हंसी की तहरीर पर तक़रीर लिख कर मान लो,
शकल क्या बस चाँद है या निशा की है चांदनी,
सांस कब ली पल वो कब अहसान वो ना कर सका
भीगती,सूखी लकडियाँ जलती हैं आखीर में,
देह की आभा सुखाई, है बंधी जंजीर में,
कंपकपाती ठण्ड या गर्मी में जलता जिस्म ये,
बस शुरू हो या ख़तम , दिल-जान वो न दे सका.
Thursday, 15 September 2011
श्री रविन्द्र जी द्वारा प्रेषित विषय - "गद्दार" (२)
पंचतंत्र पढ़ा ,कुछ वेद पढे ,कुछ किस्से सब षड्यंत्रों के,
चाणक्य पढ़ा, और रामायण सब मन की दिशा लिए चलते,
सब पात्र समाहित कर्म से थे, कुछ गोपनीय पर मित्र बने,
अंतिम परिणित जब रूप खुला, गद्दारों की श्रेणी से लगे.
अब आज का ये परिवेश जहां संज्ञा देते हैं साँपों की,
हैं कुटिल बहुत कुछ पछी भी, कुछ जंतु इन्हीं के जमातों की,
ये प्रकृति मगर कुछ ऐसी है ,हम इंसानों ने नाम दिया,
गद्दार कहा, बेईमान कहा, पर भूख का क्या तब भान रहा ?
सब अर्थ अलग, सब कर्म अलग, सब रूप बदल कर फबते हैं,
गद्दारों की भाषा मैं कहे, ये हर एक रूप मैं मिलते हैं,
उज्जवल हैं वस्त्र पर मन काला , कैसे ये मन को धुलते हैं,
कालिख की परत चढे दिन दिन, ये जीव नहीं जिन्न दीखते हैं.
कब होगा कहाँ इनको है पता, जीवन की मर्यादा या पल,
कोई रिश्ता ना अपनापन, बस चंद सिक्कों मैं बिकते हैं,
विश्वास ही इनका अमोघ अस्त्र, विश्वास को ही ये छलते हैं,
छल बल से जीवन छीन रहे, ये देश की कीमत रखते हैं.
(ऐसा गद्दारों का मानना है)
श्री रविन्द्र जी द्वारा प्रेषित विषय - "गद्दार" (१)
गद्दार की परिभाषा ? या छुपी हुयी सी शंका ?
जाहिर किया तो गलती,, सच माना तो ठगे से,
क्या सब्ज बाग़ देखूं, क्या सच मैं सच का होना,
वो शक्श था जो अपना, क्या सच है या वो सपना,
कुछ झूठ का पैमाना , कुछ वफ़ा की कमी थी,
हमने तो अपना समझा, पर वो ही बेगाना था.
ये चंद लब्ज मेरे , अब दर्द से भरे हैं ,
अब गलत हूँ जहा मैं, गद्दार खुद को कहना.
हमराज हमसफ़र सा, वो साथ साथ चलना,
हर कदम पे नवाजिश वो झुक के उसका करना,
ये समर्पण था उसका, और राज हमारे थे,
पर वफ़ा की हदें थी, गद्दार उसका बनना.
ये जिन्दगी नहीं अब सब मायने हैं बदले,
कल जहां ये अलग था, अब नाम कुछ भी कहले,
हर कदम पे हैं जुम्बिश ,हर कदम लडखडाये,
बस दोस्त नहीं मिलते, गद्दार आगे आये.
चलो आँखों के पनघट पर , तुम्हें कुछ ताजगी दे दूं,
बड़ी ठंडी सी पैमाइश, जरा कुछ मुख़्तसर कर दूं,
बहुत दिन से नजर भर देखने की तुमको चाहत है,
ज़रा तुम आँख बंद कर लो, मैं अब दीदार तो कर लूं,
ये जंजीरें जखम करती, येही देहलीज सीमा है,
मैं इस पार पलकों पे तुम्हें उस पार तक देखूं,
नहीं रुकते हो तुम जब सोचकर ये मेरी दुनिया मैं,
आँख के कोर हैं छलके, हूँ वापस अपनी दुनिया मैं.
विरह के द्वार पर बैठी, निहारूं विरहिणी सी मैं,
वो रुक कर पलटना थोड़ा, नहीं कमजोर हूँ अब मैं,
बंधी है डोर जब तुमसे, निभाऊंगी अंत साँसों तक,
नहीं हूँ विरह की मारी, सजन तुम मेरी आशा हो.
Monday, 12 September 2011
श्याम बांसुरी
श्याम बांसुरी छुवत ही लागे , मन तन से मैं श्याम होवे गयी,
धरनी धरन के पगन की धुन मन ही मन अभिराम होवे गयी,
रंग रूप सब बदल गयो है, श्याम श्याम अब सबही पुकारे,,
नाचत छम छम कदम के नीचे, श्याम आज अब नाहीं म्हारो
ई जो बांसुरी तन से लागी, मन वैराग मैं बदलन लाग्यो ,
मन भंवरा अब उड़त गिरत है, तन सरोज कुम्भ्लात हमारो,
रीति प्रीती सब भूल गयी है, कोऊ ना मोको राधे पुकारेयो,
श्याम ,कन्हैया मन विलखत है, तोरी बांसुरी तुम्ही सम्भारेयो
मन है विहग तन भयो सांवरो, अब ई पर ना वश है हमारो,
सुध बुध खोय सब हार गयो मन, सब कुछ प्रियतम भयो तिहारो,
स्वर लहरी सब नाद निनादित, सब मैं ब्यापित नाद विचारो,
अब न कहैगो राधे मोको, श्याम कहो अब लागत प्यारो,
Saturday, 3 September 2011
ईश्वर के दर्शन भी दुर्लभ-मन से देखो अच्छा है
ईश्वर के दर्शन अब दुर्लभ है, सोने के भाव जैसे चढे आसमान पर,
फूल पत्र जल तो पुजारी चढ़ाते हैं, इंसानों की तो मर्यादा आसमान पर,
हम तो पुजारी हैं घर मैं ही श्रध्हा है, दर इनका महंगा है रत्नों की खान पर,
मिलना है इनसे गर,परिचय देना होगा, नहीं है भरोसा इंसान का इंसान पर,
इश्वर भी मिलने से कतराते लगते हैं,खाली हाथ जाना अब येही प्रमाण है,
कितना बड़ा आदमी है, कितना रसूख उसका, बात नहीं बची अब कैसा स्वाभिमान है,
मन मैं तलाशा बहुत प्रभू नहीं मिलते हैं, द्वार पे जो दरस करें खडा दरबान है,
मेहनत हलकान करे ,लोग थके हारे मिले, उसका भी दर बड़ा उसका एहसान है
अब तो ये गीता के वचन याद आते हैं ,कृष्ण रूप विष्णु का सब ही पुराण है,
कर्म करो, तप जैसा ,येही तप इश्वर है, दर्शन तो दूर बस कर्म ही प्रधान है,
पेट भरा अगर तेरा, प्रभू की तब चाह करो, फलित होगा उसी समय ये ही गुणगान है,
फूल पत्र जल तो पुजारी चढ़ाते हैं, इंसानों की तो मर्यादा आसमान पर,
हम तो पुजारी हैं घर मैं ही श्रध्हा है, दर इनका महंगा है रत्नों की खान पर,
मिलना है इनसे गर,परिचय देना होगा, नहीं है भरोसा इंसान का इंसान पर,
इश्वर भी मिलने से कतराते लगते हैं,खाली हाथ जाना अब येही प्रमाण है,
कितना बड़ा आदमी है, कितना रसूख उसका, बात नहीं बची अब कैसा स्वाभिमान है,
मन मैं तलाशा बहुत प्रभू नहीं मिलते हैं, द्वार पे जो दरस करें खडा दरबान है,
मेहनत हलकान करे ,लोग थके हारे मिले, उसका भी दर बड़ा उसका एहसान है
अब तो ये गीता के वचन याद आते हैं ,कृष्ण रूप विष्णु का सब ही पुराण है,
कर्म करो, तप जैसा ,येही तप इश्वर है, दर्शन तो दूर बस कर्म ही प्रधान है,
पेट भरा अगर तेरा, प्रभू की तब चाह करो, फलित होगा उसी समय ये ही गुणगान है,
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