श्री रविन्द्र जी द्वारा प्रेषित विषय - "गद्दार" (२)
पंचतंत्र पढ़ा ,कुछ वेद पढे ,कुछ किस्से सब षड्यंत्रों के,
चाणक्य पढ़ा, और रामायण सब मन की दिशा लिए चलते,
सब पात्र समाहित कर्म से थे, कुछ गोपनीय पर मित्र बने,
अंतिम परिणित जब रूप खुला, गद्दारों की श्रेणी से लगे.
अब आज का ये परिवेश जहां संज्ञा देते हैं साँपों की,
हैं कुटिल बहुत कुछ पछी भी, कुछ जंतु इन्हीं के जमातों की,
ये प्रकृति मगर कुछ ऐसी है ,हम इंसानों ने नाम दिया,
गद्दार कहा, बेईमान कहा, पर भूख का क्या तब भान रहा ?
सब अर्थ अलग, सब कर्म अलग, सब रूप बदल कर फबते हैं,
गद्दारों की भाषा मैं कहे, ये हर एक रूप मैं मिलते हैं,
उज्जवल हैं वस्त्र पर मन काला , कैसे ये मन को धुलते हैं,
कालिख की परत चढे दिन दिन, ये जीव नहीं जिन्न दीखते हैं.
कब होगा कहाँ इनको है पता, जीवन की मर्यादा या पल,
कोई रिश्ता ना अपनापन, बस चंद सिक्कों मैं बिकते हैं,
विश्वास ही इनका अमोघ अस्त्र, विश्वास को ही ये छलते हैं,
छल बल से जीवन छीन रहे, ये देश की कीमत रखते हैं.
(ऐसा गद्दारों का मानना है)
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