चलो आँखों के पनघट पर , तुम्हें कुछ ताजगी दे दूं,
बड़ी ठंडी सी पैमाइश, जरा कुछ मुख़्तसर कर दूं,
बहुत दिन से नजर भर देखने की तुमको चाहत है,
ज़रा तुम आँख बंद कर लो, मैं अब दीदार तो कर लूं,
ये जंजीरें जखम करती, येही देहलीज सीमा है,
मैं इस पार पलकों पे तुम्हें उस पार तक देखूं,
नहीं रुकते हो तुम जब सोचकर ये मेरी दुनिया मैं,
आँख के कोर हैं छलके, हूँ वापस अपनी दुनिया मैं.
विरह के द्वार पर बैठी, निहारूं विरहिणी सी मैं,
वो रुक कर पलटना थोड़ा, नहीं कमजोर हूँ अब मैं,
बंधी है डोर जब तुमसे, निभाऊंगी अंत साँसों तक,
नहीं हूँ विरह की मारी, सजन तुम मेरी आशा हो.
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