मर्म
,कहीं छलक जाते हैं आहत हो,
कहीं पर पी के हंसते हैं,
मर्म आंसू की कुछ बूँदें,
समाये शब्द हैं इनमें,
... नहीं कहती मैं सागर हूँ,
ना ही नदिया की ये धारा,
मगर एक बूँद बारिश की ,
भुला देती है गम सारा,
ये भी क्या बात है उसने
ज़रा मिन्नत से पुछा था,
उडेला सारा मर्म-ओ-गम,
मगर शब्दों का खेला था,
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