Thursday, 15 September 2011

श्री रविन्द्र जी द्वारा प्रेषित विषय - "गद्दार" (१)



 
गद्दार की परिभाषा ? या छुपी हुयी सी शंका ?
जाहिर किया तो गलती,, सच माना तो ठगे से,
क्या सब्ज बाग़ देखूं, क्या सच मैं सच का होना,
वो शक्श था जो अपना, क्या सच है या वो सपना,

कुछ झूठ का पैमाना , कुछ वफ़ा की कमी थी,
हमने तो अपना समझा, पर वो ही बेगाना था.
ये चंद लब्ज मेरे , अब दर्द से भरे हैं ,
अब गलत हूँ जहा मैं, गद्दार खुद को कहना.

हमराज हमसफ़र सा, वो साथ साथ चलना,
हर कदम पे नवाजिश वो झुक के उसका करना,
ये समर्पण था उसका, और राज हमारे थे,
पर वफ़ा की हदें थी, गद्दार उसका बनना.

ये जिन्दगी नहीं अब सब मायने हैं बदले,
कल जहां ये अलग था, अब नाम कुछ भी कहले,
हर कदम पे हैं जुम्बिश ,हर कदम लडखडाये,
बस दोस्त नहीं मिलते, गद्दार आगे आये.

No comments:

Post a Comment