हमारी आरजू है की उसे भुला सकूं(उसने कहा था )
by Suman Mishra on Wednesday, 28 September 2011 at 23:57
किसी के शब्दों की माला को आत्मसात खुद में करना
बड़ा ही अजीब सा लगता है किसी की यादों मैं बहना .
उसकी वेदना को समझना, उसके दर्द को आंकना,
और फिर उन्मुक्त सी हंसी हंसना , जैसे कुछ ना हुआ हो.
उस दोस्त(मेरी friend ) के ख़त जब मिले जाने कितने बार पढ़ा,
समझ ना पायी उन शब्दों को , क्योंकर वो ऐतबार लिखा,
प्रेम मैं डूबी जाने कबसे, बस हंसकर हम रह जाते,
ये सब है बस टाइम पास और कहकर कागज़ फाड़ दिया.
ये रहस्य है , प्रेम कठिन है, समय नहीं आड़े आता,
सीखें कितनी भी दे लो पर, कोई नहीं समझ पाता,
ये रुतबे से अलग जमी है, नहीं कोई ऊंचा नीचा,
प्यार प्रेम बस मन से जुड़ता, मीठा भी फीका फीका, (दोस्त ने कहा था)
पता नहीं था दर्द बहुत है, समझे एक छलावा है
भीगा सा मन , सहमी चितवन सब कुछ लगे पराया सा,
एक वही मनमीत बसा मनमंदिर तबसे ध्वनित हुआ,
उसने कहा और हंस दी थी मैं मेरा मन भी भ्रमित हुआ.
कोरे कागज़ के पन्नो पर फूल एक किसने रखा,
हाथों मैं लेकर जब देखा कुछ अहसास अनोखा सा,
याद आ गयी उसकी बातें, वो जिसपर मैं हंसती थी,
मन को उस दिन उड़ते देखा , सांस कहीं पर अटकी थी (हा हा हा )
एक शाम बस शब्द कहे कुछ ना समझी मना किया (उसे)
प्रेम भुलावा दे देता है, पथ से भटकूँ कहाँ भला,
लक्छ्य नहीं ये ,अभी बहुत कुछ मुझको करना बाकी है,
कभी कभी बस उसका चेहरा फिर भी याद दिलाती हैं
वो थी बनी शकुंतला जब से, कुछ खोयी खोयी सी थी
पहले वो तितली सी उडती , अब हिरनी सी दिखती थी.
उसकी सभी किताबें छानी , कुछ टुकडे ही पाए थे
तुमसे मुझको प्यार हो गया, इतना ही पढ़ पाए थे.
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