बिखर जाने दो फूलों को...(नई उम्मीद )
by Suman Mishra on Sunday, 30 October 2011 at 01:23
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बिखर जाने दो फूलों को ,नए फूलों की ख्वाहिश है,
चमन होता नहीं है एक जैसा देखा है सबने,
वो पत्ते उड़ ही जायेंगे, शाख से टूटते हैं जो,
उन्हें फिर याद ना करना, नहीं अब लौट पायेंगे,
कोई रोके जो अपने को कहाँ रुकता जो गैरों का,
है आदत नशे के जैसी, खुमारी उसपे छाई है ,
आँख पर पर्दे कितने है, दिलों पर एक मुलम्मा है,
कहाँ उसकी कोई मंजिल , रास्तों पर बिखरना है.
ये रिश्ते खाक से उड़कर कहीं खुद को तलाशेंगे
वो ढूढेंगे कहीं अपना , नहीं अपनों को जानेंगे,
बहुत से लोग फिरते हैं एक मुखौटे लगा कर ऐसे,
है पतझड़ सामने फिर भी, फूल को सींचते जाते,
नहीं रोको उसे अब खोजने दो उसकी मंजिल को,
हवा के रुख पे जाने कब कहाँ अंजाम जानेगे
पता है लौटन मुश्किल , बेरुखी ही है अब अच्छी
चलो अब अलविदा कहकर, आज हम खुद को देखेंगे,
एक मंजर , एक आलम ,उदासी साफ़ नज़रों में
नए रंग भरने हैं इनमें , नयी शाखें तलाशेंगे,
नयी कोपल उगेगी मन के आँगन मैं किसी भी दिन,
आज से रंग भरकर ये समा रंगीं बनायेंगे