Monday, 3 October 2011

फरेब


 फरेब से रची बसी दुनिया , इसी मैं उलझे हैं,
ज़रा सा शब्दों मैं सचाइयां उतार ही लूं ,
कहीं ये शब्द बिखर गए तो फिर क्या होगा,
हवा मैं सांस गहरी खींच कुछ शुमार कर लूं,

...
इन्हें अलकों और पलकों पे सजाना मुश्किल,
बस ख्यालों मैं बंट कर यहाँ हम जीते हैं,
कभी इसकी कही, उसकी सुनी और अपना किया,
हम भी दिल दायरे मैं खुद को डुबो लेते हैं,

बहुत सोचा मगर ये साफ़ गोई कहीं नहीं,
हंसीं आती है सभी उलझे हुए जीते हैं,
हंसना बहुत मुश्किल से बयाँ होता है,
फरेब उसने किया, हम यहाँ पे रोते हैं.
 
 

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