Thursday, 27 October 2011


रोशनी के मायने , ख़तम हुआ पर्व ये ,
खाली हुयी जेबें कई , ब्यापारियों का घर भरा,
राम आये घर को जब , जगमग दिए खुद जल गए,
अब तो एक दिन का पर्व, बाकी चाँद पर टिके.

रावणों के मुख बढे , कुम्भकरण जागते,
शान्ति द्वार बंद है , शोरगुल ललकारते ,
आवाज खुद की दब गयी, माइकों के शोर से,
वोट मांगते फिरे , तिरछी नज़रों की ओट से.

उधार पर इंसान अपनी जिन्दगी चला रहा,
हाथ फैलाना नहीं, बस बैंक पर ही चोट कर,
बेच बेच कर वो कर्म कागजात बना रहा,
दर और दीवार रंग रंग से सजा रहा.

खुद से ही तलाश आज खुद को ही वो कर रहा ,
भूलता है खुद को बस ये बैंक लोन भर रहा,
हम ने आज पर्व पर कुछ याद की मिसालें ली,
आज दीप पर्व गया , आगे की फ़िक्र कर ज़रा,

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