Thursday, 27 October 2011

ये चाँद सबकी सुनता है ...है ना ?


 by Suman Mishra on Thursday, 27 October 2011 at 08:24



बचपन से दोस्ती थी मेरी , पर अर्थ बदल से जाते हैं,
पहले वो मामा था मेरा, अब अक्स ही कुछ कह जाते हैं
वो रोटी जैसा गोल गोल , खाते थे देख भुलावे मैं,
अब उसका मुखड़ा याद करूँ, है दाग कहीं अफवाहों मैं,

हर समय अक्स पर नूर तो है, पर मक्खन जैसे पिघले क्यों,
आधा तीहा, पूरा, दिखता, हर वक्त ये खुद से बदले क्यों,
गजलों की तो भरमार है पर ,इस चाँद के टुकडे की सोचो,
क्या मीत मिला इसको कोई, थोड़ा मिलकर इससे पूछो .

क्यों कबतक खुद को बाँट बाँट जीवन मैं अकेला रहेगा ये,
अपनी बहना धरती के चक्कर करके  क्या समझाये,
ये धरती वाले धरती को दिन दिन,  प्रहार कर तोड़ रहे
सतहों पर कुछ तो छोड़ा ना, पाताल लोक मैं ढूढ़ रहे,

ये शांत सौम्य चन्दा मामा या प्रिय की याद मैं डटा रहे,
शीतल सी अपनी छवि लेकर ,उस ब्योम मार्ग पर अड़ा रहे,
अब यहाँ नहीं कुछ रखा है, बस आना है तुमसे मिलने
हे चाँद मौन व्रत अब छोड़ो , स्वीकार करो ये पहल मेरी.

No comments:

Post a Comment