Tuesday, 4 October 2011

सपनो का महल या शब्दों का महल

 by Suman Mishra on Tuesday, 04 October 2011 at 17:31


मेरी ये कलम जो लिखे दूर तक जड़ फैले ऐसा हो काश,
हर शाखा से भी वृछ बने, शब्दों के उनसे रस फूटें,
हो तृप्त सभी का मन इससे , ना अभिलाषा हो भोजन की
शब्दों का माध्यम सबको दे स्वाद सभी हर ब्यंजन के .

ये स्वप्न कभी देखा मैंने, पर कलम नहीं चलती मेरी,
भावों के भटके राही को,निद्रा हरदम है भरमाती,
बस शाख शाख ,कोपल की आस, कब स्वप्न मेरा ये सच होगा,
शब्दों का महल या सपनो का, बन जाए जीवन थिर होगा,
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सपनो के महल बनते ही नहीं, या बनते ही ढेह जाते हैं,
अच्छा होगा अब बदलो तुम, शब्दों की काया से इसको,
जाने कितनी देह्लीजें हैं, सोपान अनगिनत गिनती के,
पांवो के नीचे फूल पडे , लहराते उपवन झूलों से,

मैंने देखा और सोच लिया, ये सच है या एक सपना है,
पर नीद स्वप्न के साथ चलूँ , बस तब तक ये सब अपना है,
भावों के मैं मानिंद बहूँ, डूबूं तिर तिर कर पार करूं,
कोई तिनका तो नहीं मिलता, उसके हाथों मैं हाथ ये दूं,

अधखुले नेत्र ,जागे सोये, सब कुछ भूला भूला सा है,
बरबस यादों की तहरीरें वापस कोई कुछ लिखता है,
जाने कैंसा वो सपना था, सबकुछ जैसे प्रवाहमय सा,
ये सपने मन को भरमाते, जब आँख बंद इनका स्पंद.


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